तनाव में जी रहे हैं बच्चे, बस्तों का बोझ कम करने से मिलेगी राहत
शिक्षा के निजीकरण के दौर में बस्ते का बोझ हल्का करने की बात एक सपना बन कर रह गयी, बच्चों के मानसिक तनाव को कम करने के प्रयास निरर्थक होते नजर आने लगे एवं बच्चों का बचपन लुप्त होने लगा।
शिक्षा के निजीकरण के दौर में बस्ते का बोझ हल्का करने की बात एक सपना बन कर रह गयी, बच्चों के मानसिक तनाव को कम करने के प्रयास निरर्थक होते नजर आने लगे एवं बच्चों का बचपन लुप्त होने लगा, ऐसे जटिल हालात में सरकार ने स्कूली बच्चों के पाठ्यक्रम का बोझ कम करने का जो फैसला किया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम जटिल है और सरकार इसे घटाकर आधा करने वाली है। निश्चित ही नरेन्द्र मोदी सरकार की अनेक उपलब्धियों में यह एक बड़ी उपलब्धि होगी, जिसमें बच्चों को उनका बचपन लौटाने का उपक्रम किया जा रहा है।
पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध हो रहा है, इससे बच्चों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। एक तो बच्चों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ बढ़ा और जो व्यावहारिक ज्ञान बच्चों को विद्यालयों में मिलना चाहिए था, उसका दायरा लगातार सिमटता गया। बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। आज बच्चे अपने बचपन को ढूंढ रहे हैं। किताबों से भरे बस्ते बेचारे मासूम बच्चे अपने कंधों पर ढो रहे हैं। हंसने-खेलने की उम्र में बच्चों की पीठ पर किताबों, कॉपियों का इतना बोझ लादना क्या इन मासूमों पर अत्याचार नहीं है ? इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम को लादे बच्चे बीमार रहने लगे, तनाव के शिकार होने लगे। तनाव है तो उद्दण्डता भी होगी, आक्रामक भी बनेंगे, इस बढ़ती आक्रामकता को हमने पिछले दिनों देखा है, किस तरह से साथी बच्चे की हत्या कर दी गयी, किस तरह प्राचार्य पर गोली चला दी गयी।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने शिक्षा पद्धति की इस बड़ी विसंगति को दूर करने का सराहनीय उपक्रम किया है, इसके लिये उनके योगदान सदैव स्मरणीय रहेंगे। उन्होंने शिक्षा पद्धति को व्यावहारिक बनाने की दृष्टि से और भी कदम उठाये हैं। उन्होंने बताया कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को कैबिनेट के सामने इस माह के अंत में पेश किया जाएगा, साथ ही जुलाई में शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) में संशोधन के आशय वाला बिल भी संसद के समक्ष रखा जाएगा। इस संशोधन में बच्चों को 5वीं और 8वीं में फेल न करने का फैसला पलटने की बात है। इसके तहत राज्यों को इन कक्षाओं की परीक्षा अपने तरीके से लेने का अधिकार दिया जाएगा। जावड़ेकर के अनुसार, सरकार छोटे बच्चों के बस्ते का बोझ कम करने के लिए भी एक विधेयक ला रही है, जिसमें स्कूलों द्वारा बच्चों को होमवर्क न देने का प्रावधान भी होगा। मद्रास हाईकोर्ट ने 30 मई को एक अंतरिम आदेश में केंद्र से कहा था कि वह राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे कि वे स्कूली बच्चों के बस्ते का भार घटाएं और पहली-दूसरी कक्षा के बच्चों को होमवर्क से छुटकारा दिलाएं।
सरकार ने संभवतः पहली बार यह बात स्वीकार की है कि बच्चों को तनावमुक्त बनाये रखना शिक्षा की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। उसने यह भी स्वीकार किया है कि एनसीआरटीई का पाठ्यक्रम जटिल है। देश के ज्यादातर स्कूलों में यही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। पिछले कुछ समय से विभिन्न सरकारों की यह प्रवृत्ति हो चली है कि वे शिक्षा में बदलाव के नाम पर पाठ्यक्रम को संतुलित करने की बजाय उसमें कुछ नया जोड़ देती हैं। इस तरह पाठ्यक्रम बढ़ता चला गया। कई शिक्षाविदों ने इस पर सवाल उठाया और कहा कि कम उम्र में बहुत ज्यादा चीजों की जानकारी देने की कोशिश में बच्चे कुछ नया नहीं सीख पा रहे, उलटे पाठ्यक्रम का बोझ उन्हें रटन विद्या में दक्ष बना रहा है। यही नहीं, इस दबाव ने बच्चों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा की हैं, वह कुंठित हो रहा है, तनाव का शिकार बन रहा है। एकदम छोटे बच्चों को होमवर्क के झंझटों से मुक्त करना जरूरी है।
पहले तो स्कूलों का तनावभरा परिवेश, आठों पीरियड पढ़ने से बच्चे थक जाते हैं और ऊपर से उनको भारी होमवर्क दे दिया जाता है। जो स्कूल जितना अधिक होमवर्क देता है, वह स्कूल उतना ही बड़ा माना जाता है। इस तरह होमवर्क कुल मिलाकर एक कर्मकांड का रूप ले चुका है, जिसका विकल्प ढूंढना जरूरी है। कच्ची उम्र में पढ़ाई का दबाव औसत मेधा और भिन्न रुचियों वाले बच्चों को कुंठित बनाता है। उन्हें फेल करने की व्यवस्था वापस लानी है, तो उनको दबाव से बचाने के रास्ते भी ढूंढने होंगे। जैसे, 14 साल से ज्यादा उम्र के बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम से अधिक व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना ज्यादा उपयोगी है, उनमें कौशल विकास के प्रस्ताव को ज्यादा गंभीरता से लिया जाना वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। तोतारटंत की बजाय बच्चों में कुछ सीखने की सहज प्रवृत्ति पैदा हो, इसी में उनके साथ-साथ देश की भी भलाई है, इसी में शिक्षा पद्धति की भी परिपूर्णता है।
लगभग पांच दशक पहले छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों पर इतना बोझ नहीं था। मसलन पहली कक्षा से पांचवीं कक्षा तक बच्चों के लिए तीन-चार किताबें और कॉपियां ही पर्याप्त होती थीं। इतना ही नहीं, हर कक्षा के लिए स्तर के हिसाब से पहाड़े तथा गणित के प्रश्न होते थे। इसके साथ-साथ व्यवहार गणित, लाभ-हानि, ब्याज व समीकरण के प्रश्न होते थे, लेकिन आज पाठ्यक्रम में व्यावहारिक पाठ्यक्रम के ज्ञान व शिक्षा से भी बच्चों को वंचित होना पड़ रहा है। कहना न होगा कि बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि 12 साल की आयु के बच्चों को भारी स्कूली बस्तों की वजह से पीठ दर्द का खतरा पैदा हो गया है। पहली कक्षा में ही बच्चों को छह पाठ्य पुस्तकें व छह नोट बुक्स दी जाती हैं। मतलब पांचवीं कक्षा तक के बस्तों का बोझ करीब आठ किलो हो जाता है। बच्चों के बस्ते और भारी भरकम पाठ्यक्रम हैं। इससे बच्चों को पीठ, घुटने व रीढ़ पर असर पड़ रहा है। आजकल बहुत सारे बच्चे इसके शिकार हो रहे हैं। बस्तों के बढ़े बोझ से निजी स्कूलों के बच्चे खेलना भी भूल रहे हैं। घर से भारी बस्ते का बोझ और स्कूल से होम वर्क की अधिकता से शिशु दिमाग का विकास बाधित हो रहा है। निजी स्कूलों के बस्तों का बोझ तो बढ़ता ही जा रहा है। इसके पीछे ज्ञानवृद्धि का कोई कारण नहीं, बल्कि व्यावसायिक रुचि ही प्रमुख है।
कान्वेंट स्कूलों में छोटी कक्षा के मासूमों को दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बराबर होमवर्क दिया जा रहा है जिससे देर रात्रि तक इन छात्रों को सिर उठाने की फुर्सत नहीं होती, खेलना किसने देखा। बच्चे स्कूल से घर आकर न तो कुछ वक्त फुर्सत के निकाल पाते हैं और न ही खेलों के लिए उचित समय मिल पा रहा है। बढ़ी स्पर्धा के दौर में सरकारी स्कूलों को छोड़कर अभिभावक अपने नौनिहालों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए निजी स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं। सर्व शिक्षा अभियान ने इस दिशा में प्रयास किए, परंतु उनके अनुपालन का कार्य केवल सैद्धांतिक स्तर तक सीमित रहा, इसको व्यावहारिक रूप नहीं मिल पाया। लम्बे दौर से कुछ ऐसे उपाय किये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जिससे ये मासूम बस्ते के बोझ से मुक्त हो सकें और उनका स्वाभाविक विकास हो। इस दृष्टि से केन्द्र सरकार की पहल से कुछ धुंधलका छंटने की संभावनाएं बनी हैं। परीक्षा का समय हो या अध्यापक का व्यवहार, घरेलू समस्या हो या आर्थिक समस्या, तनावमुक्त परिवेश बहुत आवश्यक है। लेकिन बच्चों को तनावमुक्त परिवेश देने में शिक्षा को व्यवसाय बनाने वाले लोगों ने कहर बरपाया है। निश्चय ही कुछ स्वार्थी तत्त्व बच्चों रूपी महकते पुष्पों पर भी अत्याचार करने से बाज नहीं आते। उनका उद्देश्य हर कक्षा में अधिक से अधिक पुस्तकें लगवाना रहता है, जिससे वे पुस्तक-विक्रेताओं और दुकानदारों से कमीशन लेकर अपनी जेब गर्म कर सकें।
दूसरी बात जो ध्यान में देनी है, वह यह है कि कक्षा के बंद कमरे में पाठ रटवाने के स्थान पर उन्हें रोचक ढंग से पढ़ाया जाए। विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा पुस्तकों के भार से दबी है। इस बोझ को कम करने की काफी चर्चा और सुझाव आते रहे, परंतु वे क्रियात्मक रूप से कुछ अधिक सफल नहीं हो पाए। बच्चों के दिमाग में शब्दों को भरना नहीं चाहिए, बल्कि उनके मस्तिष्क में शब्दों को निकलवाना चाहिए। वे अच्छी तरह से शब्दों को समझें, रटें नहीं। बच्चों को व्यावहारिक विद्या सिखलाई जानी चाहिए, ताकि उनके विचार शक्ति में इजाफा हो। केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा पद्धति की विसंगतियों को दूर करने के लिये केवल कानून ही नहीं बनाये, बल्कि उन्हें पूरी ईमानदारी से लागू भी करे, तभी भारत का बचपन मुस्कुराता हुआ एक सशक्त पीढ़ी के रूप में नयी दिशाओं को उद्घाटित कर सकेगा।
-ललित गर्ग
अन्य न्यूज़