कांग्रेस के बिना हमारा लोकतंत्र बिना ब्रेक की मोटर-कार जैसा है

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भारतीय लोकतंत्र में पैदा हुए इस खलल का असर किस पार्टी पर नहीं पड़ा है ? क्या भारत की कोई भी पार्टी यह दावा कर सकती है कि उसके अध्यक्ष या नेता का चुनाव उसके सभी सदस्य खुले रूप में करते हैं ? पार्टियों की कार्यसमिति के सदस्य भी नहीं चुने जाते।

बिहार के चुनाव-परिणामों का असर सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं है। वे अखिल भारतीय राजनीति का आईना बन गए हैं। हर राजनीतिक दल उसमें अपना चेहरा देख रहा है। भाजपा का चेहरा तो चमचमा ही उठा है लेकिन उसके प्रतिद्वंद्वी दल कांग्रेस के चेहरे पर तो धुंध ही छा गई है। बिहार में उसे 70 में से सिर्फ 19 सीटें मिली हैं और वोट सिर्फ 9.48 प्रतिशत मिले हैं। बिहार के साथ-साथ मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों में जो उप-चुनाव हुए, उनमें तो कांग्रेस की हालत और भी बदतर सिद्ध हुई है।

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लगभग सभी राज्यों में नेता लोग कांग्रेस को छोड़-छोड़कर भाजपा आदि दलों में जा रहे हैं। इसी कारण देश के कई छोटे राज्यों में कांग्रेस की सरकारें नहीं बन सकीं। जो नेता कांग्रेस में अभी तक बने हुए हैं, यह उनकी मजबूरी है। कांग्रेस के 23 नेताओं ने अपनी पार्टी की इस दुर्दशा पर एक पत्र लिखकर कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी का ध्यान भी खींचा है। उस पत्र का जवाब तो उन्हें अभी तक नहीं मिला है लेकिन उनमें से कुछ नेताओं को अपदस्थ कर दिया गया है। बिहार तथा अन्य राज्यों में हार के सवाल को कुछ नेताओं ने फिर उठाया है लेकिन पार्टी नेतृत्व ऐसे नाजुक मुद्दों पर सार्वजनिक बहस की इजाजत नहीं देता है।

ऐसे मुद्दों पर सार्वजनिक बहस हो या न हो लेकिन अफसोस की बात है कि उन पर पार्टी के अंदर भी खुलकर बहस नहीं होती लेकिन कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और सामान्य कार्यकर्ता निजी बातचीत में अपनी निराशा, व्यथा और किंकर्तव्यविमूढ़ता प्रकट करने में कोई संकोच नहीं करते। कांग्रेस की हालत आज एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी-जैसी हो गई है। इसका बुरा असर देश की लगभग सभी प्रांतीय पार्टियों पर भी पड़ गया है। यदि कांग्रेस मां-बेटा पार्टी बन गई है तो कई पार्टियां बाप-बेटा पार्टी, चाचा-भतीजा पार्टी, भाई-भाई पार्टी, बुआ-भतीजा पार्टी, पति-पत्नी पार्टी, ससुर-दामाद पार्टी आदि बनकर रह गई हैं। भारतीय राजनीति में इस परिवारवाद का जन्म 1971 की इंदिरा गांधी की प्रचंड विजय के बाद शुरू हुआ, जो अब तक चला आ रहा है।

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भारतीय लोकतंत्र में पैदा हुए इस खलल का असर किस पार्टी पर नहीं पड़ा है ? क्या भारत की कोई भी पार्टी यह दावा कर सकती है कि उसके अध्यक्ष या नेता का चुनाव उसके सभी सदस्य खुले रूप में करते हैं ? पार्टियों की कार्यसमिति के सदस्य भी नहीं चुने जाते। वे भी नामजद कर दिए जाते हैं। प्रांतीय अधिकारी भी इसी तरह ऊपर से थोप दिए जाते हैं। यह कला कांग्रेस की है। अब इसे सभी पार्टियों ने सीख लिया है।

जब तक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होगा, देश में नाम मात्र का ही लोकतंत्र चलता रहेगा। पार्टियों में यदि आंतरिक लोकतंत्र हो तो उसका सबसे पहला असर तो यह होगा कि उसके नेता चुनाव द्वारा नियुक्त होंगे। ऊपर से थोपे नहीं जाएंगे। दूसरा, एक ही नेता बरसों-बरस पार्टी पर थुपा नहीं रहेगा। समय और जरूरत के मुताबिक नए नेताओं को मौका मिलेगा। पार्टियों के नेता और हमारी सरकारें भी अक्सर बदलती रहें तो उनके सेहत ठीक रहती है। वे पापड़ की तरह होते हैं। उन्हें जल्दी-जल्दी न पलटें तो उनके जलने का डर बना रहता है।

बराक ओबामा ने अपने संस्मरणों में जो लिखा है, उससे क्या सबक निकलता है ? उन्होंने कहा है कि सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री इसीलिए बनाया कि उनसे राहुल गांधी को कोई खतरा नहीं था। दूसरे शब्दों में हमारी राजनीति राष्ट्रहित से ज्यादा व्यक्तिगत या पारिवारिक हित से प्रेरित होती है। यह परिदृश्य देश की लगभग सभी पार्टियों में देखा जा सकता है। पार्टियों के अध्यक्ष ऐसे लोगों को बनाया जाता है, जो बड़े नेताओं के इशारों पर थिरकते रहें।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक 

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