हिंदी के खिलाफ अपमानजनक बातें करने से पहले जरा नई शिक्षा नीति को पढ़ तो लेते

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मसौदा नीति पर विवाद खड़ा करने वालों को यह भी देखना चाहिए कि मसौदा नीति जानेमाने वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली एक समिति ने तैयार की है। कस्तूरीरंगन खुद दक्षिण भारत से आते हैं। लेकिन सिर्फ विरोध की राजनीति करने वाले इतना गहराई में नहीं जाते।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद देश को "राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और क्षेत्रीय आकांक्षा" को जोड़कर नया 'नारा' (NARA) दिया था। लगा था कि समूचा राष्ट्र एक होकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में अग्रसर होगा। लेकिन सप्ताह भर के अंदर ही देश में भाषायी विवाद खड़ा कर समाज को बाँटने का प्रयास शुरू कर दिया गया। दरअसल विवाद शुरू हुआ नई शिक्षा नीति के मसौदे को लेकर। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले संबंधी नई शिक्षा नीति के मसौदे पर उठे विवाद में हिंदी पर जिस प्रकार के प्रहार हो रहे हैं वह जताते हैं कि हम एकजुट भारत की बात भले करें लेकिन भाषायी आधार पर हम बहुत ज्यादा बँटे हुए हैं। धर्म, जाति और भाषा के आधार पर बँटे होने के चलते ही समाज में वैमनस्य की भावना पनपती और बढ़ती है। आज हिंदुस्तान में ट्वीटर पर जो हैशटेग #HindiIsNotTheNationalLanguage ट्रैंड कर रहा है वह शर्मनाक है।

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विरोध करने से पहले मसौदा तो पढ़ें

जो लोग हिंदी के खिलाफ अभियान चला रहे हैं उन्हें एक बार नई शिक्षा नीति के मसौदे को पढ़ना तो चाहिए जिसमें कहीं पर भी यह नहीं लिखा गया है कि हिंदी को जबरन लागू किया जायेगा बल्कि यह मसौदा तो सभी भाषाओं के विकास की बात करता है। साथ ही यह भी समझना चाहिए कि मसौदे का अर्थ क्या होता है। नई शिक्षा नीति के मसौदे में कहा गया है कि एक अजनबी भाषा में अवधारणाओं पर समझ बनाना बच्चों के लिये मुश्किल होता है और उनका ध्यान अकसर इसमें नहीं लगता है। ऐसे में यह स्थापित हो चुका है कि शुरुआती दिनों में बच्चों को उनकी मातृभाषा में सिखाया जाए तो वे काफी सहज महसूस करते हैं। जहां तक संभव हो, कम से कम पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा में ही बच्चों को सिखाया जाए। लेकिन वांछनीय हो तो कक्षा आठ तक सीखने सिखाने की प्रक्रिया, घर की भाषा या मातृ भाषा में हो। मसौदे में आगे कहा गया है कि छोटे बच्चों की सीखने की क्षमताओं को पोषित करने के लिये प्री-स्कूल और ग्रेड-1 से ही तीन भाषाओं से अवगत कराना शुरू किया जाए ताकि ग्रेड-3 तक आते-आते बच्चे न केवल इन भाषाओं में बोलने लगें बल्कि लिपि भी पहचानने लगें और बुनियादी सामग्री पढ़ने लगें। इसमें आगे कहा गया है, 'बहुभाषी देश में बहुभाषिक क्षमताओं के विकास और उन्हें बढ़ावा देने के लिये त्रिभाषा फार्मूले को अमल में लाया जाना चाहिए।' 

बहरहाल, नयी शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा फार्मूले को लेकर उठे विवाद के बीच सोमवार को मसौदा नीति का संशोधित प्रारूप जारी किया गया जिसमें गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी अनिवार्य किए जाने का उल्लेख नहीं है। नई शिक्षा नीति के संशोधित मसौदे में कहा गया है कि जो छात्र पढ़ाई जाने वाली तीन भाषाओं में से एक या अधिक भाषा बदलना चाहते हैं, वे ग्रेड 6 या ग्रेड 7 में ऐसा कर सकते हैं, जब वे तीन भाषाओं (एक भाषा साहित्य के स्तर पर) में माध्यमिक स्कूल के दौरान बोर्ड परीक्षा में अपनी दक्षता प्रदर्शित कर पाते हैं। पहले के मसौदे में समिति ने गैर हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी की शिक्षा को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया था।

शक्तिशाली भाषा का स्वदेश में सम्मान नहीं!

इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे नंबर की भाषा हिंदी दुनिया की दस शक्तिशाली भाषाओं में से भी एक है। यह गौरव हिंदी को अंतरराष्ट्रीय पटल पर भले हासिल हो लेकिन अपने देश में हिंदी का अपमान करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी जाती। हिंदी आपको नहीं पढ़नी, समझनी है तो मत पढ़िये लेकिन उसका अपमान तो मत करिये। हिंदी को भले आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय भाषा या मातृभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हो लेकिन वह भारत की राजभाषा तो है ही। जिसे इस बात का ज्ञान नहीं है वह केंद्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग की वेबसाइट http://www.rajbhasha.nic.in/hi/official_languages_act_1963 पर जाकर राजभाषा अधिनियम, 1963 को पढ़ लेंगे तो सारी शंकाएं दूर हो जाएंगी।

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आखिर हिंदी का विरोध क्यों हो रहा है ?

यह बात समझ से परे है कि हिंदी का विरोध क्यों हो रहा है। सरकार ने बार-बार कहा है कि हिंदी को किसी पर थोपा नहीं जाएगा। भारत सरकार का सदैव यही प्रयास रहा है कि सभी भारतीय भाषाओं का समान रूप से विकास हो। तमिलनाडु में हिंदी का जो विरोध हो रहा है उससे एक सवाल यह खड़ा होता है कि तमिल लोग विदेशी भाषा अंग्रेजी तो जरूर सीखना चाहते हैं लेकिन हिंदी को कतई बर्दाश्त नहीं करना चाहते। विदेशी भाषा का सम्मान और देशी भाषा का विरोध करने का औचित्य आखिर क्या है ? अगर किसी तमिल व्यक्ति को देश के किसी भी हिस्से मसलन गुजरात, पंजाब, दिल्ली, आंध्रा प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या फिर देश के किसी भी भाग में जाना पड़े तो क्या वह सिर्फ तमिल भाषा की बदौलत अपना काम चला पायेगा ? यदि उसे हिंदी आती हो तो वह देश के किसी भी भाग में जाकर परेशान नहीं होगा और अपना काम चला सकता है। यह सही है कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं का अपना प्राचीन इतिहास, गौरव गाथाएं और सम्मान है लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी ही देश की एकमात्र ऐसी भाषा है जो राष्ट्रीय स्तर पर सभी को एक सूत्र में पिरोती है।


हिंदी विरोध के जरिये राजनीति हो रही

राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत तो हिंदी में ही हैं, क्या हिंदी विरोधी इसे गाना छोड़ देंगे ? भारतीय मुद्रा हिंदी के अलावा अंग्रेजी भाषा में मुद्रित है, भारतीय पासपोर्ट पर भी हिंदी के अलावा अंग्रेजी ही है। क्या इसका भी विरोध करेंगे ? अगर एक हिंदीभाषी को तमिल या कोई अन्य भाषा पढ़ने को कहा जाये तो वह इसे अपने ज्ञान में वृद्धि के मौके के तौर पर देखता है। हिंदीभाषी राज्यों में ऐसे अनेकों संस्थान हैं जोकि विभिन्न राज्यों की भाषाओं के बारे में शिक्षा प्रदान करते हैं। अगर हिंदी भाषी तमिल या तेलुगु सीख सकता है तो तमिल भाषी या तेलुगु भाषी या कन्नड़ भाषी को हिंदी सीखने से परहेज क्यों है ? दरअसल हिंदी के प्रति दक्षिण भारत में लोगों के बीच नफरत फैलाने का काम राजनेता बरसों से करते आ रहे हैं। यही कारण है कि दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो देश के किसी भी हिस्से से हिंदी विरोध की आवाज नहीं उठती। हिंदी विरोध सिर्फ और सिर्फ राजनेता ही करते हैं यह बात इस आंकड़े से स्पष्ट होती है कि तमिलनाडु और केरल में हिंदी बोलने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है और यहां हिंदी, असमिया और उड़िया बोलने वाले लोगों की संख्या में 33 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है। (2011 की जनगणना में भाषा संबंधित आंकड़ों में उल्लिखित।)

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सरकार का स्पष्टीकरण

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ स्पष्ट कर चुके हैं कि सरकार अपनी नीति के तहत सभी भारतीय भाषाओं के विकास को प्रतिबद्ध है और किसी प्रदेश पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी। निशंक ने स्पष्ट कर दिया है कि, ‘‘हमें नई शिक्षा नीति का मसौदा प्राप्त हुआ है, यह रिपोर्ट है। इस पर लोगों एवं विभिन्न पक्षकारों की राय ली जायेगी, उसके बाद ही कुछ होगा। कहीं न कहीं लोगों को गलतफहमी हुई है।’’ केंद्र सरकार में तमिलनाडु मूल के दो कैबिनेट मंत्रियों- एस. जयशंकर और निर्मला सीतारमण ने भी स्पष्ट कर दिया है कि हिंदी को थोपा नहीं जा रहा है।

नेताओं का दोहरा रवैया

मसौदा नीति पर विवाद खड़ा करने वालों को यह भी देखना चाहिए कि मसौदा नीति जानेमाने वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली एक समिति ने तैयार की है। कस्तूरीरंगन खुद दक्षिण भारत से आते हैं। लेकिन सिर्फ विरोध की राजनीति करने वाले इतना गहराई में नहीं जाते। द्रमुक के राज्यसभा सांसद तिरुचि सिवा और मक्कल नीधि मैयम नेता कमल हासन ने मसौदे को लेकर सबसे पहले विरोध जाहिर किया। तिरूचि सिवा ने केंद्र सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि हिंदी को तमिलनाडु में लागू करने की कोशिश कर केंद्र सरकार आग से खेलने का काम कर रही है। सिवा ने कहा कि हिंदी भाषा को तमिलनाडु पर थोपने की कोशिश को यहां के लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम केंद्र सरकार की ऐसी किसी भी कोशिश को रोकने के लिए, किसी भी परिणाम का सामना करने के लिए तैयार हैं। द्रमुक प्रमुख एम.के. स्टालिन ने कहा कि तीन भाषा फार्मूला ‘‘प्राथमिक कक्षा से कक्षा 12 तक हिंदी पर जोर देता है। यह बड़ी हैरान करने वाली बात है’’ और यह सिफारिश देश को ‘‘बांट’’ देगी। वहीं, कमल हासन ने कहा कि मैंने कई हिंदी फिल्मों में अभिनय किया है, मेरी राय में हिंदी भाषा को किसी पर भी थोपा नहीं जाना चाहिए। सबसे ज्यादा हैरानी तो शशि थरूर के बयान से हुई जिन्होंने कहा है कि क्या कोई उत्तर भारतीय मलयालम सीखता है। थरूर शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि उनके गृहराज्य केरल में उत्तर भारतीयों की ऐसी बड़ी आबादी है जिनके बच्चे मलयालम पढ़ रहे हैं और बहुत अच्छी तरह बोलते भी हैं।

जरा द्रमुक के लोगों से यह भी पूछ लिया जाये कि जब दरकार हो तो हिंदी का सहयोग ले लिया जाये या विरोध कर दिया जाये की नीति कब तक चलेगी। सोशल मीडिया पर चल रही इन दो तसवीरों से स्पष्ट होता है कि चुनावों के दौरान हिंदीभाषी लोगों के वोटरों को लुभाने के लिए हिंदी भाषा का प्रयोग करने में द्रमुक को कोई आपत्ति नहीं दिखी। तमिलनाडु में हिंदी के मुद्दे पर गर्मा रही राजनीति को शांत करने का प्रयास करते हुए तमिलनाडु सरकार ने कहा है कि वह दो भाषा फार्मूले को जारी रखेगी। गौरतलब है कि तमिलनाडु में 1937 में जोरदार हिंदी विरोधी आंदोलन हुए थे और 1968 से ही राज्य दो भाषा फार्मूले का ही पालन कर रहा है जिसके तहत केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है।

हिंदी की वैसे तो क्षेत्रीय भाषाओं से कोई तुलना हो नहीं सकती लेकिन अगर तुलनात्मक अध्ययन करें भी तो कुछ आंकड़े बेहद स्पष्ट तसवीर प्रस्तुत करते हैं-

- तमिल भाषा की जिस भी सुपरहिट फिल्म का रीमेक हिन्दी में बना है वह फिल्म ज्यादा बड़ी हिट इसलिए रही है क्योंकि हिंदी बोलने और समझने वालों की तादाद ज्यादा है।

- तमिलनाडु से आने वाली अभिनेत्री रेखा हों, हेमा मालिनी हों, संगीतकार ए.आर. रहमान हों, मणिरत्नम जैसे प्रख्यात निर्देशक हों, या फिर ऐसे ही अनेकों नाम हों, यह सभी राष्ट्रीय स्तर पर तभी नाम कमा पाये जब इन्होंने हिंदी को अपनाया।

- भारतीय मुद्रा रुपया हो या पासपोर्ट, इन पर हिंदी और अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है।

- हिंदी भाषा और इससे जुड़ी बोलियां भारत के विभिन्न राज्यों में बोली जाती हैं। यही नहीं हिंदी का वैश्विक दायरा भी तेजी से बढ़ रहा है और फिजी, मॉरिशस, नेपाल, सूरीनाम, गयाना और यहाँ तक कि संयुक्त अरब अमीरात में भी बड़ी संख्या में भी हिंदी बोली जाती है। यही नहीं इस वर्ष अबू धाबी में हिंदी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। अमेरिका में आज कई विश्वविद्यालय और संस्थान हैं जो हिंदी भाषा से संबंधित कोर्स चला रहे हैं।

- संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक महाधिवेशनों के दौरान भारत के प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री की ओर से दिये जाने वाले संबोधनों में अब तक हिंदी के अलावा अंग्रेजी भाषा का ही उपयोग किया गया है।

- एच.डी. देवेगौड़ा जब देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्हें हिंदी सीखनी पड़ी थी क्योंकि इस भाषा को जाने बिना राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करना मुश्किल है। यही नहीं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी कह चुके हैं कि उनकी हिंदी अच्छी नहीं थी इसलिए वह देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सके। इसके अलावा सोनिया गांधी ने विदेशी मूल के मुद्दे की हवा निकालने के लिए हिंदी भाषा सीखी और अपनी पार्टी को लगातार दो लोकसभा चुनावों में जीत दिलाई।

-नीरज कुमार दुबे

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