संघ प्रमुख मोहन भागवत का हिंदुत्व भी सर्वसमावेशी बन गया है

Mohan Bhagwat

भारत का मुसलमान सर्वश्रेष्ठ तो है ही, वह निश्चित रूप से उन देशों के मुसलमानों से कहीं बेहतर हालात में हैं, जहां वह अल्पसंख्यक हैं। हमारे मुसलमानों की तुलना जरा उन देशों से कीजिए, जो ईसाई हैं, बौद्ध हैं, यहूदी हैं और कम्युनिस्ट हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुसलमानों के प्रति आजकल रवैया क्या है, इस प्रश्न पर बहस चल पड़ी है। बहस का मुख्य कारण संघ के मुखिया मोहन भागवत के कुछ बयान हैं। अभी-अभी उन्होंने कहा है कि दुनिया में सबसे ज्यादा संतुष्ट कोई मुसलमान है तो वह भारत का मुसलमान है। पिछले साल उन्होंने अपने विज्ञान भवन के भाषण में कहा था कि हिंद में जो भी पैदा हुआ है, वह हिंदू है। भारत के मुसलमान भी हिंदुत्व के दायरे से बाहर नहीं हैं। उन्होंने माना कि ‘हिंदू’ शब्द हमें विदेशियों (मुसलमानों) ने दिया है। लेकिन अब वह हमसे चिपक गया है। पिछले दिनों पड़ोसी देशों के शरणार्थियों के लिए जो नागरिकता संशोधन कानून बना है, उसके बारे में संघ का कहना है कि उसमें मजहब और जाति का अड़ंगा लगाना ठीक नहीं है।

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भारत के मुसलमान दुनिया में सबसे संतुष्ट हैं, यह बात कोई बड़े मुल्ला-मौलवी या कोई नामी-गिरामी मुस्लिम नेता कह देते तो बेहतर होता लेकिन उनके खिलाफ काफिराना हरकत के फतवे जारी हो जाते। लेकिन संघ और मोहन भागवत के उक्त बयानों से भी कुछ मुस्लिम नेता खुश नहीं हैं। उनका मानना है कि जब से केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, देश के मुसलमानों पर बड़ा अत्याचार हो रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कह दिया कि भारत तो अब हिटलर का जर्मनी बन रहा है। यहूदियों पर हिटलर जो जुल्म करता था, वे अब भारत के मुसलमानों पर हो रहे हैं। वे धारा 370 को खत्म करने पर बोल रहे थे।

जाहिर है कि मुसीबतों में फंसे पाकिस्तान के नेता भारत पर ये इल्जाम इसलिए भी लगाते हैं कि उनके वोट वहां पक्के हो जाएं लेकिन हमारे मुस्लिम नेताओं को वैसे आरोप लगाते समय कुछ मुद्दों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहले तो यह कि पिछले पांच-छह साल में मुसलमानों के साथ यहां-वहां जैसी भी हिंसा और जोर-जबर्दस्ती हुई है, वैसी क्या बरसों-बरस तक कांग्रेसी राज में नहीं होती रही है ? यह किसी पार्टी-विशेष का मसला नहीं है। यह भारतीय समाज के आंतरिक अंतर्विरोधों का परिणाम है।

भारत के मुसलमान कौन हैं ? क्या ये अरब हैं, मंगोल हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, उइगर हैं ? हजार-पांच सौ साल पहले ये विदेशी अल्पसंख्या में भारत जरूर आए थे लेकिन अब तो वे इतने घुल मिल गए हैं कि उनका घराना-ठिकाना ही खोजना मुश्किल है। इन मुट्ठीभर विदेशियों के कारण क्या हमारे करोड़ों मुसलमानों को हम विदेशी मूल के कह सकते हैं ? इस प्रश्न का जवाब मैं अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में देना चाहूंगा। उन्होंने कहा था कि भारत के मुसलमानों का खून, हमारा खून है और उनकी हड्डियां, हमारी हड्डियां हैं।

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कुछ वर्ष पहले दुबई के अपने एक भाषण के दौरान जैसे ही मैंने कहा कि भारत के मुसलमान दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान हैं तो श्रोताओं में बैठे कई अरब शेखों के चेहरों पर अचानक तनाव आ गया। मुझे उन्हें बताना पड़ा कि ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि भारत के मुसलमानों ने इस्लाम की नई विचारधारा को कबूल तो किया लेकिन उनकी नसों में हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति भी प्रवाहित होती है। दोनों का सम्मिश्रण ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ बनाता है।

भारत का मुसलमान सर्वश्रेष्ठ तो है ही, वह निश्चित रूप से उन देशों के मुसलमानों से कहीं बेहतर हालात में हैं, जहां वह अल्पसंख्यक हैं। हमारे मुसलमानों की तुलना जरा उन देशों से कीजिए, जो ईसाई हैं, बौद्ध हैं, यहूदी हैं और कम्युनिस्ट हैं। सुन्नी देशों में शिया और शिया देशों में सुन्नी मुसलमानों की दशा क्या है ? पाकिस्तान में तो वे एक-दूसरे पर भयंकर हिंसक हमले करते ही रहते हैं। मुसलमानों में अहमदिया, कादियानी, मेहदी, मेमन, मुहाजिर, पठान, बलूच, सिंधी और पंजाबी लोग एक-दूसरे पर शोषण और जुल्म के इल्जाम लगाते रहते हैं। वे अक्सर एक-दूसरे पर ‘तफरका और ताअस्सुब’ का संदेह करते रहते हैं। यदि बंगाली मुसलमानों पर जुल्म नहीं हो रहा होता तो क्या बांग्लादेश बनता ? पाकिस्तान में हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की जो हालत हैं, क्या भारत में मुसलमानों की भी वही हालत है ? क्या मुस्लिम देश में कोई गैर-मुस्लिम कभी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बना है ? भारत में विधायक और सांसद ही नहीं, मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल ही नहीं, भारत के राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति भी कई मुसलमान बने हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत का प्रधानमंत्री भी कभी कोई मुसलमान बन जाए।

पिछले 50 वर्षों में ऐसे दर्जनों ईसाई, बौद्ध और कम्युनिस्ट देशों में मैं रहा हूं, पढ़ा हूं, पढ़ाया हूं और घूमा हूं, जहां मुसलमान हैं तो सही लेकिन भारत की तरह अल्पसंख्या में हैं। मैं उनकी स्थानीय भाषाएं जानता रहा हूं और उनसे मेरे बहुत खुले और आत्मीय संवाद भी होते रहे हैं। सत्य तो यह है कि वे जहां भी अल्पसंख्या में हैं, उनका जीना दूभर है। सोवियत संघ के उजबेक, ताजिक, किरगीज़, कजाक और तुर्कमान लोगों को मैंने रूसियों की गुलामी करते हुए देखा है। चीन के शिनच्यांग प्रांत के उइगर मुसलमानों की दशा देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। फ्रांस के अल्जीरियाई और अफ्रीकी मुसलमानों के इस्लामी रहन-सहन और पहनावे पर तरह-तरह के प्रतिबंध हैं। अन्य यूरोपीय देशों में कुरान शरीफ और इस्लामी महापुरुषों की खुले-आम धज्जियां उड़ाई जाती हैं। इस्राइल में मुस्लिम फलस्तीनियों का क्या हाल है, सारी दुनिया जानती है।

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इसका अर्थ यह नहीं कि भारत के मुसलमान सउदी अरब के मुसलमानों की तरह मालदार और ताकतवर हैं। वे वैसे हो ही नहीं सकते थे। क्योंकि भारत में ज्यादातर वे ही लोग मुसलमान बने, जो गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, मेहनतकश और कमजोर थे। वही धारावाहिकता आज भी कायम है। उनसे भी ज्यादा बदहाल वे हिंदू हैं, जो दलित हैं, आदिवासी हैं, पिछड़े हैं, मेहनतकश हैं। मुसलमानों की हालत भारत में कहीं बेहतर है, क्योंकि भारत की संस्कृति सहनशीलता पर आधारित है। इस्लाम से भी अधिक कट्टरपंथी संप्रदाय हिंदुओं में हैं लेकिन उन्हें भी बर्दाश्त किया जाता है। एतराज तभी होता है, जब मजहब को राजनीति का आधार बनाया जाता है, जैसा कि मोहम्मद अली जिन्ना ने बनाया था। जिन्ना का मुंहतोड़ जवाब सावरकर और गोलवलकर थे। अब देश-काल बदल गया है। इसीलिए मोहन भागवत का हिंदुत्व भी सर्वसमावेशी बन गया है। भागवत ने पुरानी लकीर काटी नहीं है। बस, एक बड़ी लकीर खींच दी है।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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