नैरेटिव का विकल्प खोजे बिना कैसे हो उद्धार

Bihar Assembly Election 2025 Results
ANI

पिछली बार के चुनावों में महागठबंधन को सबसे ज्यादा ताकत अंग प्रदेश और भोजपुर से मिली थी। शाहाबाद क्षेत्र में कांग्रेस और माले के साथ महागठबंधन ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इलाके 22 सीटों में से पिछली बार एनडीए को सिर्फ दो सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार उसका प्रदर्शन करीब सात गुना बेहतर हुआ है।

चाणक्य की धरती के मतदाताओं ने आधुनिक राजनीति के कौटिल्यों को भी हैरत में डाल दिया है। एनडीए की जीत की उम्मीद एक्जिट पोल कर तो रहे थे, लेकिन उन्हें भी इतनी बड़ी जीत की उम्मीद नहीं थी। एनडीए की भारी जीत और तेजस्वी की अगुआई वाले महागठबंधन की करारी हार ने कई राजनीतिक संदेश दिए। 

समाजवादी गठबंधन के लिए कांग्रेस का साथ पत्थर बांध कर तैरने जैसा हो गया है। जिस भी समाजवादी गठबंधन ने कांग्रेस का हाथ थामा, वह राजनीति के समंदर में डूब गया। इसके पहले उदाहरण बिहार के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में यूपी के लड़के के नारे के साथ राहुल गांधी का साथ लेकर अखिलेश चुनावी वैतरणी पार करने उतरे थे, लेकिन भाजपा की लहर में वे डूब गए। 2022 में भी कांग्रेस उनके लिए पतवार नहीं बन सकी। इस बार तेजस्वी के लिए कांग्रेस सहारा नहीं बन पाई। चुनाव नतीजों कुछ वैसे ही हैं,  जैसे हम तो डूबे ही सनम, तुझे भी ले डूबेंगे। विपक्षी गठबंधन को अब सोचना होगा कि कांग्रेस का हाथ वह कब और कितना पकड़े कि उसकी सियासी नैया पार लग सके, डूबे नहीं। 

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बिहार के चुनाव नतीजों ने यह भी संदेश दिया है कि राजनीतिक भंवर में अति आत्मविश्वास सामने से आ रही लहरों के मुकाबले का साहस दें, चाहे न दें, उनकी तासीर और ताकत का अंदाजा नहीं लगने देती। तेजस्वी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। अति आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा। तेजस्वी का अपने शपथ ग्रहण की तारीख तय करना और उसे अति उत्साही अंदाज में लोगों के बीच रखना, एक वर्ग को भले ही अच्छा लगा हो, आम वोटरों को पसंद नहीं आया। रही-सही कसर उनके अति उत्साही नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोबल ने पूरा कर दिया। बिहार की स्थानीय शब्दावली में यह मनोबल नहीं, मनबढ़ होना था। इसने सत्ताधारी एनडीए के जंगलराज के नैरेटिव को उस पीढ़ी तक पहुंचाने में मदद पहुंचाई, जो जंगलराज के बाद नीतीश के सुशासन राज में पैदा हुई है। जिस तरह स्थानीय चैनलों, यू ट्यूबरों और चुनावी माहौल में कुकुरमुत्तों की तरह कथित मीडिया चैनलों के कैमरों के सामने अठारह-बीस साल वाली लड़कियों तक ने तेजस्वी राज में एक खास वर्ग और जाति से डर की आशंका जताई, उससे साफ हो गया था कि बिहार का चुनावी नजारा क्या रहने जा रहा है। बुजुर्ग महिलाएं और पुरूष जिस तरह जंगल राज की भयावह तसवीरें लोगों के सामने रख रहे थे, उसने भी भावी नतीजों की जानकारी दे दी थी। 

मीडिया के एक वर्ग ने एनडीए के नैरेटिक के बरक्स तेजस्वी की अगुआई वाले महागठबंधन का बचाव करने की कोशिशकी। तेजस्वी को उससे अलग दिखाने की कोशिशें भी कम नहीं हुईं। ऐसा करते वक्त तेजस्वी के रणनीतिकार, कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाला बौद्धिक वर्ग भूल गया कि एक बड़ा वर्ग अब भी सक्रिय है, जिसने जंगलराज को देखा है। जैसे-जैसे तेजस्वी के नए विजन को पेश करने की कोशिश की गई, वैसे-वैसे प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों में पुराने दिनो के घाव ताजा होते गए। नतीजा सामने है। 

पिछली बार के चुनावों में महागठबंधन को सबसे ज्यादा ताकत अंग प्रदेश और भोजपुर से मिली थी। शाहाबाद क्षेत्र में कांग्रेस और माले के साथ महागठबंधन ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इलाके 22 सीटों में से पिछली बार एनडीए को सिर्फ दो सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार उसका प्रदर्शन करीब सात गुना बेहतर हुआ है। इस बार एनडीए कुल मिलाकर 14 सीटें जीत रहा है या जीतने के कगार पर है। साफ है कि इस बार शाहाबाद में एनडीए को बारह सीटों का बंपर फायदा  हुआ है। शाहाबाद के रोहतासृ सासाराम जिले की सात विधानसभा सीटों में से सिर्फ एक पर राजद को जीत मिली है, जबकि दो पर लोकजनशक्ति पार्टी, दो पर राष्ट्रीय लोक मोर्चा और एक पर जनता दल यू को जीत मिली है। इसी जिले में प्रशांत किशोर की गृह सीट करगहर आती है, जहां से उन्होंने भोजपुरी गायक रितेश पांडेय को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे। चार सीटों वाले भभुआ में तो राष्ट्रीय जनता दल का तो खाता भी नहीं खुला है। यहां की रामगढ़ विधानसभा सीट आरजेडी के दिग्गज जगदानंद सिंह की मानी जाती है। उनके बक्सर से सांसद बेटे सुधाकर सिंह यहां से विधायक रह चुके हैं। चुनाव के एक दिन पहले यूपी की विधायक पूजा पाल से बदसलूकी के चलते सुधाकर चर्चा में थे। बहरहाल भभुआ की चार में से तीन सीटों पर जहां बीजेपी को जीत मिली है, वहीं एक सीट जनता दल यू के खाते में गई है। इसी तरह शाहाबाद इलाके के बक्सर जिले की चारों सीटों पर एनडीए का कब्जा हुआ है। यहां की दो सीटों पर जनता दल यू, एक पर लोकजनशक्ति पार्टी और एक पर भाजपा को जीत मिली है। शाहाबाद के भोजपुर जिले की सात विधानसभा सीटों में से एक पर माले और एक पर राजद को जीत मिली है। जबकि चार पर भाजपा और एक पर जनता दल यू को सफलता मिली है। 

इसी तरह लालू के गढ़ सारण में भी एनडीए ने महागठबंधन को भारी शिकस्त दी है। पिछली बार यानी 2020 के विधानसभा चुनाव में जिले की दस विधानसभा सीटों में से छह पर राजद का कब्जा था। लेकिन इस बार नौ सीटों पर एनडीए को जीत मिल रही है। सिर्फ मढ़ौरा से राजद समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार को जीत मिली है। सारण प्रमंडल के सीवान जिले में भी महागठबंधन का कोई जादू नहीं चल पाया। जिले की सीवान सीट से राजद के कद्दावर उम्मीदवार और विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष अवध बिहारी यादव को बीजेपी के दिग्गज मंगल पांडेय के सामने हार का सामना करना पड़ा है। जिले में आठ विधानसभा सीटें है। जिनमें से पिछली बार यानी 2020 में छह सीटों पर आरजेडी का कब्जा था। लेकिन इस बार यह समीकरण उलट गया है। इस बार राजद के हाथ सिर्फ बड़हरिया और रघुनाथपुर ही लगा है। रघुनाथपुर से बाहुबली रहे शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा सहाब को जीत मिली है। गोपालगंज जिले में ही लालू प्रसाद यादव का पुश्तैनी घर है। लेकिन यहां से भी राष्ट्रीय जनता दल को शिकस्त मिली है। यहां की छह में से सिर्फ दो सीटों पर राष्ट्रीय जनता दल को जीत मिली है, जबकि एक पर भाजपा और तीन पर जनता दल यू को जीत मिली है। दिलचस्प यह है कि जिन 21 सीटों पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने प्रचार किया, वहां एनडीए को जीत मिली है। इसके बाद बीजेपी को यह कहने का मौका मिल सकता है कि उसके पास कहीं ज्यादा विश्वसनीय यादव नेतृत्व है।

मौजूदा विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को मिली पराजय के बाद इसमें शामिल दलों को अपनी रणनीति और अपने नेतृत्व को लेकर विचार करना होगा। यह पराजय विपक्षी गठबंधन में राहुल गांधी के नेतृत्व पर भी सवाल उठाती है। विपक्षी गठबंधन को सोचना होगा कि राहुल की अगुआई कहीं उसकी राह की बाधा तो नहीं बन रही है। उसे यह भी सोचना होगा कि महज नैरेटिव के हथियार और कुछ बौद्धिकों की सोच के सहारे मोदी के हरावल दस्ते को नहीं हराया जा सकता। विपक्षी गठबंधन को राजनीतिक पैंतरेबाजी के साथ ही सांप्रदायिकता के डर वाले नैरेटिव के बरक्स जमीनी हकीकत से जुड़ा कोई दूसरा नैरेटिव अपनाना होगा, लोगों से सीधा संपर्क करना होगा, अपनी पुरानी दबंग छवियों से बाहर निकलने की तरकीब खोजनी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या महागठबंधन और उसका नेतृत्व ऐसा सोचने को भी तैयार है?

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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