कश्मीरी पंडित रहते तो जम्मू-कश्मीर की आर्थिक स्थिति अच्छी होती

If Kashmiri Pandit lived, Jammu and Kashmir''s economic situation was good

कश्मीरी पंडित भारत के दूसरे हिस्सों में चले गए और अपनी ऊंची डिग्रियों के कारण नौकरियां हासिल की हैं। कश्मीर ने सबसे अच्छे युवाओं को खो दिया है जो राज्य के आर्थिक विकास में मदद करने के लिए तकनीकी रूप से पूरी तरह सक्षम थे।

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि कश्मीरी पंडितों को अपने जन्मस्थान यानि घाटी आना चाहिए। उनका बयान घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। पंडितों को 1993 में कश्मीर से जबर्दस्ती बाहर कर दिया गया। उनका दोष सिर्फ इतना था कि 90 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाली घाटी में वे हिंदु थे।

पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने एक सार्वजनिक बयान में स्वीकार किया है कि एक भी मुसलमान ने उनके बाहर किए जाने का विरोध नहीं किया। वास्तव में, यह सच है। उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया जिसके बाद जम्मू तथा कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। यह आरोप लगाया जाता है कि कश्मीरी पंडितों को बाहर भगाने के लिए उस समय के राज्यपाल जगमोहन मुख्य रूप से जिम्मेदार थे। उन्हें जिस दिन गर्वनर बनाया गया, उनके हिंदु समर्थक रवैए के कारण कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया।

यह आरोप लगाया गया कि जब सैंकड़ों उग्रवादियों के पास हथियार मिला तो सुरक्षा बलों ने श्रीनगर के हर घर की तलाशी ली। ज्यादातर उग्रवादियों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन आपरेशन, जिसके कारण गौकाडाल नरसंहार हुआ, के दौरान गर्वनर की भूमिका पर सवाल उठाया जाने लगा। जगमोहन, जो संजय गांधी के काफी करीब थे, सौंदर्यीकरण के नाम पर दिल्ली की कई गंदी बस्तियों के जबर्दस्ती उजाड़े जाने में शामिल थे। उग्रवाद के उभार के दौरान कट्टरपंथी मुसलमानों और उग्रवादियों की ओर से सताए और धमकाए जाने के कारण 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन करना शुरू कर दिया। कश्मीर सरकार ने 2010 में पाया कि घाटी में अभी भी 808 पंडित परिवार रह रहे थे, लेकिन वित्तीय तथा दूसरी सहूलियतों के जरिए बाकी परिवारों को वापस लाने में कोई सफलता नहीं मिली।

जम्मू तथा कश्मीर सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 और 2004 के बीच 219 पंडित मारे गए, लेकिन इसके बाद एक भी नहीं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में जम्मू तथा कश्मीर में 1989 में समुदाय के 700 लोगों की हत्या के मुकदमे को फिर से खोलने से इस आधार पर मना कर दिया कि काफी समय बीत चुका है।

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की अभी की अपील सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। कश्मीरी पंडितों से दिल्ली में मिलने के बाद, उन्होंने कहा कि ''कश्मीरी पंडितों को कश्मीर आना चाहिए ताकि नई पीढ़ी को मालूम हो सके कि उनकी जड़ें कहां हैं। हम हर इंतजाम करेंगे। अतीत में जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन अब हमें आगे बढ़ना है।''

वास्तव में, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की है कि वह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेरणा लें और पकिस्तान से बातचीत शुरू करें। ''मैं प्रधानमंत्री मोदी से अपील करती हूं कि वह पाकिस्तान से बातचीत करें जैसा वाजपेयी जी ने किया था। न हम और न ही पाकिस्तान, युद्ध करने की स्थिति में है। दोनों देशों को मालूम है कि अगर युद्ध हुआ तो कुछ भी नहीं बचेगा। दोनों देश बस अपना सब कुछ गंवा देंगे,'' महबूबा ने कहा।

मैं उनसे सहमत हूं क्योंकि यह हिंदु−मुस्लिम का सवाल नहीं है और इसे ऐसा बनाना भी नहीं चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को ऐसे कदम शुरू करने चाहिए जिससे पंडितों का घाटी लौटना संभव हो सके। उनकी ज्यादातर संपत्ति रखी हुई है। बाकी भी उन लोगों से वापस ली जा सकती है जिन्होंने इस पर जबर्दस्ती या दूसरे तरीकों से कब्जा कर लिया है।

मुझे याद है कि हुर्रियत नेता अहमद शाह गिलानी इसके हिंदु−मुस्लिम सवाल होने की बात से जोर से इंकार करते थे। उस समय, कट्टरपंथ के कीड़े ने गिलानी को नहीं काटा था। संभव है कि उन्होंने अपने विचार नहीं बदले हों। लेकिन उनकी चुप्पी साफ दिखाई देती है। उन्हें अपनी पहले की राय को फिर से कहना चाहिए था कि कश्मारी पंडित इस संस्कृति के हिस्सा हैं और इसे हिंदु−मुस्लिम के सामान्य सवाल से नहीं जोड़ना चाहिए। वास्तव में, गिलानी ने मुझसे कहा कि उन्होंने पहले गलत कहा था कि कश्मीर विवाद के हल होने के साथ ही कश्मीरी पंडितों का सवाल हल हो जाएगा।

लेकिन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने गैर−जरूरी ढंग से उन लोगों को मौका दे दिया है जो दलील देते हैं कि कश्मीर भारत−पाकिस्तान के बंटवारे का एक बचा हुआ काम है। वे राज्य का मजहब के आधार पर बंटवारा चाहते हैं। वे किसी जगह पाकिस्तान में भी इस पर जोर देंगे कि मजहब वाला पैमाना−जिस आधार पर भारत का बंटवारा हुआ− जम्मू तथा कश्मीर पर भी लागू हो।

कश्मीर के उस समय के मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने यह विचार रखा था कि कश्मीरी पंडितों के लिए अलग क्षेत्र रहे जहां वे सुरक्षा से रह सकें। बताया जाता है कि अभी घाटी में 30 हजार पंडित हैं, जबकि उनकी कुल संख्या चार लाख के आसपास है। कश्मीर के मामलों में जब तक शेख अब्दुल्ला प्रभावी थे, उन्होंने राजनीति में धर्म को नहीं लाने दिया। वह कहते थे कि उन्होंने पाकिस्तान में मिलाने का इसलिए विरोध किया था कि जम्मू तथा कश्मीर एक सेकुलर राज्य है। वह एक इस्लामिक राज्य में जाना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें सांप्रदायिकता की जगह विविधता पसंद थी।

यहां तक कि आजादी के आंदोलन के समय भी शेख कश्मीर के साथ रहे, मुसलमानों के लिए अलग राज्य मांगने वाली मुस्लिम लीग के साथ नहीं। उन्हें केंद्र को मजबूत रखने की नई दिल्ली की नीतियों की आलोचना की कीमत देनी पड़ी। दक्षिण में कोडईकैनाल में 12 साल हिरासत में रहने के बाद वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के आवास पर ठहरे ताकि वह दर्ज करा सकें कि बंटवारे के समय तय हुए सिर्फ तीन क्षेत्रों− विदेशी मामले, संचार तथा रक्षा को ही केंद्र की ओर से संचालित करने को लेकर उनकी मांग के कारण शेख को गलत समझने की चूक नेहरू ने मान ली है।

शेख का मशहूर बयान है कि कश्मीरी भारत का गेहूं नहीं खाएगा, अगर इससे उसे अपनी स्वायत्तता से समझौता करना पड़ता है। सेकुलरिज्म में शेख का गहरा विश्वास था, हालांकि उन्हें शक था कि भारत लंबे समय तक विविधतावादी रहेगा।

भले ही, कश्मीरी यह महसूस करें या नहीं, उन्होंने शिक्षित लोगों की सेवाएं गंवा दी हैं। पंडित भारत के दूसरे हिस्सों में चले गए और अपनी ऊंची डिग्रियों के कारण नौकरियां हासिल की हैं। अगर राज्य उन्हें बराबर की नौकरी का आफर भी देता है तो उनके वापस लौटने की संभावना नहीं है। वास्तव में, कश्मीर ने सबसे अच्छे युवाओं को खो दिया है जो राज्य के आर्थिक विकास में मदद करने के लिए तकनीकी रूप से पूरी तरह सक्षम थे।

फिर भी, श्रीनगर को पंडितों को वापस लाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें अपनी सेकुलर छवि बनाने में मदद मिलेगी, जिस तरह की छवि दशकों तक उनकी थी। इस मोर्चे पर कोशिश की कमी देश के बाकी हिस्सों से उनका अलगाव पैदा करेगी जहां कश्मीरियों को अच्छी नौकरी मिलती है।

-कुलदीप नैय्यर

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