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स्वदेशी तेजस विमानों से भारतीय रक्षा उद्योग बढ़ेगा तेजस्विता की उड़ान
- ललित गर्ग
- जनवरी 15, 2021 12:54
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रक्षामंत्री राजनाथ सिंह स्वदेशी रक्षा-उत्पादों के लिये सक्रिय हैं, अपनी दूरगामी सोच एवं निर्णायक क्षमता से उन्होंने तेजस के स्वदेशी विमानों की खरीद की स्वीकृति को बाजी पलटने वाला बताया। पूर्व में 40 तेजस विमानों की खरीद से पृथक है 83 तेजस विमानों की खरीद का निर्णय।
सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति ने हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) की ओर से निर्मित किये जाने वाले हल्के लड़ाकू विमान की खरीद को मंजूरी देकर भारत के स्वदेशी रक्षा उद्योग को तेजस्विता एवं स्वावलंबन की नयी उड़ान दी है। पिछले साल भारतीय वायु सेना ने 48 हजार करोड़ रुपये से अधिक की लागत के इन 83 तेजस विमानों की खेप की खरीद के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, जिसे स्वीकृति मिलना नये भारत, आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक है। नरेन्द्र मोदी सरकार की आत्मनिर्भर भारत की पहल के क्रम में रक्षा मंत्रालय ने अनुकरणीय कदम उठाया है। स्वदेशी आयुध सामग्री एवं रक्षा उत्पादों के निर्माण से विदेशों से आयात पर रोक लगेगी, जो न केवल आर्थिक दृष्टि से किफायती साबित होगी बल्कि भारत दुनिया में एक बड़ी ताकत बनकर भी उभरेगा।
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यह पहल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि भारत की गिनती दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वाले देशों में होती है। दूसरी ओर पाक व चीन की सीमाओं पर सुरक्षा चुनौतियों में लगातार इजाफा हुआ है। वहीं विगत में हर बड़े रक्षा सौदों में बिचैलियों की भूमिका को लेकर जो विवाद उठते रहे हैं, उसका भी पटाक्षेप हो सकेगा। साथ ही जहां भारत में रक्षा उद्योग का विकास होगा, वहीं देश में रोजगार के अवसरों में आशातीत वृद्धि हो सकेगी, भारत का पैसा भारत में रहेगा।
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह स्वदेशी रक्षा-उत्पादों के लिये सक्रिय हैं, अपनी दूरगामी सोच एवं निर्णायक क्षमता से उन्होंने तेजस के स्वदेशी विमानों की खरीद की स्वीकृति को बाजी पलटने वाला बताया। पूर्व में 40 तेजस विमानों की खरीद से पृथक है 83 तेजस विमानों की खरीद का निर्णय। इन विमानों की स्वीकृति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भारत में निर्मित ये लड़ाकू विमान वायुसेना की कसौटी पर खरे उतरे हैं, यह एक शुभ एवं नये विश्वास का अभ्युदय है कि हम सेना की जरूरतों के लिये अब दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहेंगे। इसके लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लगातार कोशिशों एवं संकल्पों की महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि सधे हुए कदम से आगे बढ़ते जायें तो संभव है भविष्य में भारत हथियारों के निर्यातक देशों में भी शुमार हो जाये।
भारत में आजादी के बाद से ही सरकारी स्तर पर सेनाओं की जरूरत का सामान आयुधशालाओं में निर्मित होता रहा है, लेकिन सरकार की दोहरी नीतियों, आधुनिकीकरण के अभाव, नेताओं के स्वार्थ तथा निजी क्षेत्र की भागीदारी न हो पाने के कारण हम रक्षा उत्पादों के मामले में दूसरे देशों पर ही निर्भर रहे। हमारा देश में हथियारों की खरीद की दृष्टि से दूसरे देशों की निर्भरता का एक बड़ा कारण विदेशी कम्पनियों से मिलने वाला कमीशन भी रहा है। मोदी की पहल एवं राजनाथ सिंह की सूझबूझ एवं तत्परता से मौजूदा वक्त में रक्षा उत्पादों के स्वदेशीकरण से सेना को आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिलने लगी है। इसी का परिणाम है राजनाथ सिंह द्वारा लिया गया 101 रक्षा उत्पादों के आयात पर रोक का निर्णय।
भारत की बड़ी विडम्बना एवं विवशता यह भी रही है कि वह उन देशों में गिना जाता रहा है, जो अपनी तमाम रक्षा सामग्री का आयात करता रहा है, इस पराधीन स्थिति से मुक्ति एवं आयातक से निर्यायक बनने की सुखद स्थिति में पहुंचने के लिये अभी बड़े एवं प्रभावी निर्णय लेने एवं उन्हें क्रियान्वित करने की जरूरत है। इससे न केवल विदेशी मुद्रा की बचत होगी, बल्कि भारत की गिनती सामर्थ्यवान, विकसित एवं शक्ति सम्पन्न देशों में होने लगेगी। भारत रक्षा उत्पादों की दृष्टि से शक्तिशाली एवं आत्मनिर्भर हो सकेगा। दुनिया की एक बड़ी ताकत बनकर उभरने के लिये भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपनी रक्षा जरूरतों को स्वयं पूरा करने में सक्षम बनेगा और किसी भी राजनीति आग्रह-पूर्वाग्रह एवं भ्रष्टाचार को इसकी बाधा नहीं बनने देगा। तेजस लड़ाकू विमानों का संदेश है सरकार और कर्णधारों को कि शासन संचालन में एक रात में (ओवर नाईट) ही बहुत कुछ किया जा सकता है। अन्यथा ''जैसा चलता है- चलने दो'' की पूर्व के नेताओं की मानसिकता और कमजोर नीति ने रक्षा-क्षेत्र की तकलीफें बढ़ाईं एवं हमें पराधीन बनाये रखा हैं। ऐसी सोच वाले व्यक्तियों को अपना राष्ट्र नहीं दिखता, उन्हें विश्व कैसे दिखता। वर्तमान सरकार का धन्यवाद है कि उन्हें देश भी दिख रहा है और विश्व भी।
भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा रक्षा बजट वाला देश होने के बावजूद अपने 60 प्रतिशत हथियार प्रणालियों को विदेशी बाजारों से खरीदता है, जबकि भारत की तुलना में पाकिस्तान ने अपनी हथियार प्रणालियां ज्यादा विदेशी ग्राहकों को बेची हैं। इन स्थितियों की गंभीरता को देखते हुए भारत सैन्य उत्पादों के स्वावलम्बन की ओर कदम बढ़ा रहा है तो यह देश की जरूरत भी है और उचित दिशा भी है। इसी दृष्टि से रक्षा मंत्रालय द्वारा जिन उत्पादों के आयात पर रोक लगाने का निर्णय किया गया है, उनमें सामान्य वस्तुएं ही नहीं वरन सैन्य बलों की जरूरतों को पूरा करने वाली अत्याधुनिक तकनीक वाली असॉल्ट राइफलें, आर्टिलरी गन, रडार व ट्रांसपोर्ट एयरक्राप्ट एवं लड़ाकू विमान आदि रक्षा उत्पाद भी शामिल हैं। आगामी छह-सात सालों में घरेलू रक्षा उद्योग को लगभग चार लाख करोड़ के अनुबंध दिये जायेंगे, जिसमें पारंपरिक पनडुब्बियां, मालवाहक विमान, क्रूज मिसाइलें व हल्के लड़ाकू हेलीकॉप्टर भी शामिल होंगे। वर्तमान वित्त वर्ष में घरेलू रक्षा उद्योग के लिये 52 हजार करोड़ रुपए के पृथक बजट का प्रावधान किया गया है। सेना में हथियारों की आपूर्ति बाधित न हो, इसलिये इसे चरणबद्ध तरीके से वर्ष 2020 से 2024 के मध्य क्रियान्वित करने की प्लानिंग है। इस रणनीति के तहत सेना व वायु सेना के लिये एक लाख तीस हजार करोड़ रुपये तथा नौसेना के लिये एक लाख चालीस हजार करोड़ के उत्पाद तैयार किये जाने की योजना है।
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हमें मौजूदा तथा भविष्य की रक्षा जरूरतों का गहराई से आकलन करना होगा। इसकी वजह यह भी है कि रक्षा उत्पादों के क्षेत्र में तकनीकों में तेजी से बदलाव होता रहता है। सभी उत्पादों की आपूर्ति निर्धारित समय सीमा में हो और सेना की जरूरतों में किसी तरह का कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। देश की रक्षा के मुद्दे पर किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता। इसके लिये जरूरी है कि तीनों सेनाओं और रक्षा उद्योग के मध्य बेहतर तालमेल स्थापित हो। इसके लिये कारगर तंत्र विकसित किया जाना भी जरूरी है। अभी अन्य उत्पादों के बारे में भी मंथन की जरूरत है, जिनका निर्माण देश में करके दुर्लभ विदेशी मुद्रा को बचाया जा सके। साथ ही यह भी जरूरी है कि देश रक्षा उत्पाद गुणवत्ता के मानकों पर खरा उतरे क्योंकि यह देश की सुरक्षा का प्रश्न है और हमारे सैनिकों की जीवन रक्षा का भी।
सरकारी नीतियों, बजट एवं कार्ययोजनाओं की धीमी रफ्तार का ही परिणाम है कि तेजस को विकसित करने में करीब तीस वर्ष लग गये। इसी तरह रक्षा क्षेत्र की अन्य परियोजनाएं भी लेट-लतीफी एवं सरकारी उदासीनता का शिकार होती रही हैं। इस तरह की स्थितियों का होना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी हम सेना की सामान्य जरूरतों के साधारण उपकरण और छोटे हथियार भी देश में निर्मित करने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। निःसंदेह तेजस एक कारगर एवं गुणवत्तापूर्ण लड़ाकू विमान साबित हो रहा है, लेकिन यह तथ्य भी हमारे ध्यान में रहना जरूरी है कि उसमें लगे कुछ उपकरण एवं तकनीक दूसरे देशों की हैं। हमारा अगला लक्ष्य उसे पूरी तरह स्वदेशी और साथ ही अधिक उन्नत एवं गुणवत्तापूर्ण बनाने का होना चाहिए। यह तभी संभव है कि हमारे विज्ञानियों और तकनीकी विशेषज्ञों को भरपूर प्रोत्साहन एवं साधन दिये जायें। यदि भारत दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होते हुए अंतरिक्ष विज्ञान में अपनी छाप छोड़ सकता है और हर तरह की मिसाइलों के निर्माण में सक्षम हो सकता है तो फिर ऐसी कोई वजह नहीं कि अन्य प्रकार की रक्षा सामग्री तैयार करने में पीछे रहे। वर्तमान मोदी सरकार ने जहां स्वदेशी रक्षा उद्योग को बढ़ावा देने के लिये उन्नत एवं प्रोत्साहनपूर्ण नीतियों को निर्मित किया है वहीं उचित बजट का भी प्रावधान किया है। अब समय है उनके सकारात्मक नतीजें जल्दी ही सामने आयें। भारत न सिर्फ आयात के विकल्प के उद्देश्य से रक्षा उत्पादों का निर्माण करे, बल्कि भारत में निर्मित रक्षा उत्पादों का निर्यात अन्य देशों को करने के लिए भी रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जाये।
-ललित गर्ग
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- अजय कुमार
- मार्च 6, 2021 15:54
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उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का दलित वोटर मायावती के साथ और पिछड़ा एवं मुस्लिम वोटर समाजवादी खेमे में चला गया। बनिया-ब्राह्मणों तथा अन्य अगड़ी जातियों ने बीजेपी का दामन थाम लिया, तभी से कांग्रेस का ग्राफ गिरता गया।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब साल भर का समय बचा है। सभी राजनैतिक पार्टियां एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। हाल यह है कि प्रदेश की सियासत दो हिस्सों में बंट गई है। एक तरफ योगी के नेतृत्व में बीजेपी आलाकमान अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए हाथ-पैर मार रहा है तो दूसरी ओर कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी 'साम-दाम-दंड-भेद’ के तहत किसी भी तरह से योगी सरकार को सत्ता से बेदखल कर देना चाहती हैं। इसके लिए इन दलों द्वारा प्रदेश की जनता के बीच योगी सरकार के खिलाफ बेचैनी का माहौल पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। सपा-कांग्रेस द्वारा प्रदेश में घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना को साम्प्रदायिक और जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश रची जा रही है। कभी योगी सरकार को ब्राह्मण विरोधी तो कभी महिला, दलित विरोधी करार दिया जाता है।
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खैर, कांग्रेस तो पिछले तीन दशकों से अधिक समय से यूपी में हाशिये पर पड़ी है। इसलिए बीजेपी नेताओं के पास उसकी सरकार के खिलाफ बोलने को कुछ अधिक नहीं है। यह और बात है कि यूपी में जब तक कांग्रेस की सरकार रही, तब कांग्रेस कैसे सत्ता चलाती थी, किसी से छिपा नहीं था। कांग्रेस की पूरी सियासत जातिवादी राजनीति के इर्दगिर्द घूमती रहती थी। दिल्ली में बैठे गांधी परिवार के हाथ में यूपी के मुख्यमंत्री का रिमोट रहता था।
यूपी में 32 वर्षों से सत्ता के केन्द्र में आने के लिए संघर्षरत कांग्रेस पार्टी का बुरा दौर 1989 के बाद शुरू हो गया था। इसकी वजह थी, अयोध्या का रामजन्म भूमि विवाद, जिसको लेकर बीजेपी हिन्दुत्व को भुनाने में जुटी हुई थी लेकिन कांग्रेसी दोनों हाथों में लड्डू चाहते थे। इसके चलते कांग्रेस न इधर की रही, न उधर की रही। इस दौरान कांग्रेस के नेताओं की लंबी फेहरिस्त भी जातीय राजनीति का शिकार होने से अपने आप को बचा नहीं पाई थी। नतीजा, एक के बाद चुनाव हारते और गिरते प्रदर्शन से यूपी कांग्रेस हाशिए पर चली गई। अगर कहा जाये कि केन्द्र में बदलती सरकारों के समीकरण का सबसे ज्यादा असर यूपी कांग्रेस पर पड़ा तो कोई गलत नहीं होगा। जब-जब केन्द्र की राजनीति ने करवट ली, प्रदेश की राजनीति भी विकास के वादे से दूर जातिवादी राजनीति पर आकर टिक गई।
यह सच है कि यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए दिल्ली कांग्रेस नेतृत्व ने प्रदेश को कई कैडर के नेता दिए, इसमें महावीर प्रसाद, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, निर्मल खत्री, राज बब्बर जैसे नाम शामिल थे। लेकिन स्थानीय और क्षेत्रीय समीकरणों में फिट न बैठ पाने की वजह से एक के बाद एक कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी की दशा सुधारने की बजाए बारी-बारी से अध्यक्ष की कुर्सी को शोभायमान कर चले गए। कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरता चला गया। यहां तक कि यूपी में प्रियंका वाड्रा से पूर्व तीन बार यूपी कांग्रेस के प्रभारी की जिम्मेदारी संभाल चुके गुलाम नबी आजाद भी कोई कमाल न दिखा सके और उन्हें भी वापस जाना पड़ा। प्रदेश में एनडी तिवारी कांग्रेस के अंतिम मुख्यमंत्री साबित हुए थे। उसके बाद समाजवादी जनता दल से मुलायम सिंह यादव की प्रदेश में सरकार बनी थी।
इस बारे में राजनीति के जानकार कहते हैं कि देश में क्षेत्रीय क्षत्रपों के पनपने के बाद देश हो या प्रदेश, हर जगह जातिवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा। यूपी के परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो यहां मुलायम और मायावती जैसे नेताओं ने जाति आधारित राजनीति को काफी तेजी से आगे बढ़ाया। इसी वजह से कांग्रेस का दलित वोटर मायावती के साथ और पिछड़ा एवं मुस्लिम वोटर समाजवादी खेमे में चला गया। बनिया-ब्राह्मणों तथा अन्य अगड़ी जातियों ने बीजेपी का दामन थाम लिया, तभी से कांग्रेस का ग्राफ गिरता गया। 1989 के बाद के समीकरणों को गौर से देखें तो अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग जाति का प्रतिनिधित्व करने से केन्द्र व प्रदेश दोनों की राजनीति प्रभावित हुई। गौर से देखें तो जातिवादी राजनीति में खास जाति का प्रभुत्व सरकार का प्रतिनिधित्व करता नजर आयेगा। इस लहर में कांग्रेस के लीडर एक के बाद एक धराशायी हो गए। न पहले सोनिया गांधी इस गिरावट को रोक पाईं, न अब राहुल-प्रियंका कुछ कर पा रहे हैं।
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बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो पिछले दो चुनावों (2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनाव) में उसका भी हाल बुरा ही रहा। बात सपा की कि जाए तो 2013 में उसके राज में हुए मुजफ्फरनगर दंगों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बढ़त बनाने का मौका दिया तो 2017 में सत्ता विरोधी लहर और प्रदेश में जंगलराज जैसे हालात के चलते अखिलेश को सत्ता से बेदखल होना पड़ गया। फिर भी 2022 के विधान सभा चुनाव को लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव के हौसले बुलंद हैं तो इसका कारण उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी का अच्छा प्रदर्शन है। क्योंकि उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी को जीत का स्वाद भले कम मिला हो, लेकिन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी ही भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों को टक्कर देते नजर आए। इतना ही नहीं अखिलेश के कार्यक्रमों में भीड़ भी जुट रही है। इससे भी अखिलेश गद्गद् हैं।
बात बसपा सुप्रीमो मायावती की कि जाए तो अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर उनकी सुस्ती किसी के समझ में नहीं आ रही है। लम्बे समय से वह कहीं दिखाई नहीं दे रही हैं। योगी सरकार को घेरने के लिए भी वह ज्यादा रूचि नहीं दिखाती हैं। हाँ, जनवरी में अपने 65वें जन्मदिन पर जरूर उन्होंने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर सबको चौंका दिया था। वैसे भी मायावती का यही मानना है कि हमें गठबंधन से नुकसान होता है। मायावती ने दावा भी किया था कि आगामी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की जीत तय है, लेकिन जो हालात नजर आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मायावती विधानसभा चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं। बसपा ने अभी तक तमाम विधानसभा सीटों के लिए प्रभारी तक नहीं नियुक्त किए हैं।
उल्लेखनीय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा ने हाथ मिलाया था। 2014 के चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने वाली बसपा ने तब 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी, वहीं सपा 2014 की ही तरह 2019 में भी 5 सीट पर सिमट कर रह गई थी। आश्चर्य की बात यह है कि मायावती कभी बीजेपी को चुनौती देती नजर आती हैं तो कभी वह बीजेपी के कामों की तारीफ करने लगती हैं या फिर तमाम मौकों पर चुप्पी साध लेती हैं। इसी के चलते राजनैतिक पंडित भी मायावती की भविष्य की राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं।
-अजय कुमार
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- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
- मार्च 5, 2021 12:10
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बंगाल में अब्बास सिद्दिकी के ‘इंडियन सेक्युलर फ्रंट’, असम में बदरूद्दीन अजमल के ‘ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट’ और केरल में ‘वेलफेयर पार्टी’ से कांग्रेस ने गठबंधन किसलिए किया है, इसीलिए कि जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार न हों, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को सेंत-मेंत में मिल जाएं।
कांग्रेस पार्टी आजकल वैचारिक अधःपतन की मिसाल बनती जा रही है। नेहरू की जिस कांग्रेस ने पंथ-निरपेक्षता का झंडा देश में पहराया था, उसी कांग्रेस के हाथ में आज डंडा तो पंथ-निरपेक्षता का है लेकिन उस पर झंडा सांप्रदायिकता का लहरा रहा है। सांप्रदायिकता भी कैसी ? हर प्रकार की। उल्टी भी, सीधी भी। जिससे भी वोट खिंच सकें, उसी तरह की। भाजपा भाई-भाई पार्टी बन गई है, वैसे ही कांग्रेस भी भाई-बहन पार्टी बन गई है। भाई-बहन को लगा कि भाजपा देश में इसलिए दनदना रही है कि वह हिंदू सांप्रदायिकता को हवा दे रही है तो उन्होंने भी हिंदू मंदिरों, तीर्थों, पवित्र नदियों और साधु-संन्यासियों के आश्रमों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए लेकिन उसका भी जब कोई ठोस असर नहीं दिखा तो अब उन्होंने बंगाल, असम और केरल की मुस्लिम पार्टियों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया।
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बंगाल में अब्बास सिद्दिकी के ‘इंडियन सेक्युलर फ्रंट’, असम में बदरूद्दीन अजमल के ‘ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट’ और केरल में ‘वेलफेयर पार्टी’ से कांग्रेस ने गठबंधन किसलिए किया है, इसीलिए कि जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार न हों, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को सेंत-मेंत में मिल जाएं। क्या इन वोटों से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है ? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर ऐसे सिद्धांतविरोधी समझौते कांग्रेस ने क्यों किए हैं ? इसीलिए की इन सभी राज्यों में उसका जनाधार खिसक चुका है। अतः जो भी वोट, वह जैसे भी कबाड़ सके, वही गनीमत है। इन पार्टियों के साथ हुए कांग्रेसी गठबंधन को मैंने ठग-बंधन का नाम दिया है, क्योंकि ऐसा करके कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को तो ठग ही रही है, वह इन मुस्लिम वोटरों को भी ठगने का काम कर रही है।
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कांग्रेस को वोट देकर इन प्रदेशों के मुस्लिम मतदाता सत्ता से काफी दूर छिटक जाएंगे। कांग्रेस की हार सुनिश्चित है। यदि ये ही मुस्लिम मतदाता अन्य गैर-भाजपा पार्टियां के साथ टिके रहते तो या तो वे किसी सत्तारुढ़ पार्टी के साथ होते या उसी प्रदेश की प्रभावशाली विरोधी पार्टी का संरक्षण उन्हें मिलता। कांग्रेस के इस पैंतरे का विरोध आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता ने दो-टूक शब्दों में किया है। कांग्रेस यों तो अखिल भारतीय पार्टी है लेकिन उसकी नीतियों में अखिल भारतीयता कहां है ? वह बंगाल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी के साथ है, केरल में उसी के खिलाफ लड़ रही है। महाराष्ट्र में वह घनघोर हिंदूवादी शिवसेना के साथ सरकार में है और तीनों प्रांतों में वह मुस्लिम संस्थाओं के साथ गठबंधन में है। दूसरे शब्दों में कांग्रेस किसी भी कीमत पर अपनी जान बचाने में लगी हुई है। मरता, क्या नहीं करता ?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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- रमेश सर्राफ धमोरा
- मार्च 4, 2021 13:04
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जी-23 के नेताओं का कहना है कि कांग्रेस पार्टी में संगठन के चुनाव होने चाहिए जिससे पार्टी में व्याप्त मनोनयन करने की प्रवृत्ति समाप्त हो ताकि आंतरिक पारदर्शिता बहाल हो सके। जी-23 में देश के विभिन्न प्रदेशों के वो वरिष्ठ नेता हैं जो कभी कांग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता होते थे।
कांग्रेस पार्टी इन दिनों अपने ही असंतुष्ट नेताओं की बगावत से जूझ रही है। देश में लगातार कांग्रेस का प्रभाव कम होता जा रहा है। कुछ दिन पूर्व पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार गिर गई थी। उससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के विधायकों में बगावत करवा कर कर्नाटक व मध्य प्रदेश की सरकारों को गिरा कर वहां भाजपा की सरकारें बनवा दी थीं। ऐसे में गिरते जनाधार को रोकने में नाकाम रही कांग्रेस में व्याप्त आंतरिक संकट पार्टी को और अधिक कमजोर करेगा।
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कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने गुलाम नबी आजाद के अध्यक्षता में जी 23 नाम से एक मोर्चे का गठन किया है जिसमें शामिल नेता कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की कार्यप्रणाली से सहमत नहीं हैं। ये सभी नेता खुलकर कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करने की मांग कर रहे हैं। जी-23 के नेताओं का कहना है कि कांग्रेस पार्टी में संगठन के चुनाव होने चाहिए जिससे पार्टी में व्याप्त मनोनयन करने की प्रवृत्ति समाप्त हो ताकि आंतरिक पारदर्शिता बहाल हो सके। जी-23 में देश के विभिन्न प्रदेशों के वो वरिष्ठ नेता हैं जो कभी कांग्रेस पार्टी के कर्ताधर्ता होते थे। मगर अब पार्टी में अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
इस ग्रुप में गुलाम नबी आजाद के साथ पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पृथ्वीराज चौहान, एम. वीरप्पा मोइली, राजिंदर कौर भट्ठल, केंद्र सरकार में मंत्री रहे कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, पीजे कुरियन, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, सांसद विवेक तंखा, अखिलेश प्रसाद सिंह, पूर्व सांसद संदीप दीक्षित, राज बब्बर, अखिलेश प्रसाद सिंह, कुलदीप शर्मा, योगानंद शास्त्री, अरविंदर सिंह लवली और अजय सिंह शामिल हैं। इनमें शशि थरूर व मनीष तिवारी लोकसभा तथा आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, अखिलेश प्रसाद सिंह, विवेक तंखा राज्यसभा सदस्य हैं। भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। मुकुल वासनिक कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हैं। बाकी सभी नेता कांग्रेस में साइड लाइन किए जा चुके हैं।
गुलाब नबी आजाद का हाल ही में राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने के कारण उनको राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से भी हटना पड़ा, जिसका उन्हें गहरा मलाल है। उनका मानना है कि कांग्रेस पार्टी को उनकी सेवाओं के बदले समय रहते किसी दूसरे प्रांत से उन्हें राज्यसभा में भेजा जाना चाहिए था। मगर पार्टी नेतृत्व ने पहले तो उनको उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के प्रभारी महासचिव पद से हटाकर हरियाणा जैसे छोटे प्रदेश का प्रभारी बनाया था। उसके बाद पिछले दिनों कांग्रेस संगठन में किए गए पुनर्गठन में उन्हें पार्टी महासचिव पद से भी हटा दिया गया था। आज वह कांग्रेस में किसी बड़े पद पर नहीं हैं।
कांग्रेस में बनाये गये जी-23 ग्रुप में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के अलावा कोई जनाधार वाला नेता नहीं है। इसमें शामिल अधिकांश पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व सांसद व अन्य वरिष्ठ नेताओं की मतदाताओं पर पकड़ नहीं रही है। स्वयं गुलाम नबी आजाद 1980 व 1984 में महाराष्ट्र के वाशिम के अलावा कहीं से भी चुनाव नहीं जीत सके। ऐसे में उनको पार्टी लगातार लंबे समय तक राज्यसभा के जरिए संसद में भेजती रही। जब भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी तो उनको मंत्री बनाया। इसके अलावा पार्टी ने उनको जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री भी बनाया। मगर उन सब बातों को भुलाकर आजाद आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुलकर तारीफ कर अपनी पार्टी लाईन का उल्लंघन कर रहे हैं।
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कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल वासनिक को भी चुनाव जीते बरसों बीत चुके हैं। रेणुका चौधरी का तो अपना कोई जनाधार ही नहीं है। वह पहले तेलुगू देशम में फिर कांग्रेस में आकर सांसद व मंत्री बनती रहीं। अब लगातार चुनाव हार जाने के बाद उनको पार्टी की चिंता सताने लगी है। जबकि उनके कार्यक्षेत्र तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस समाप्त-सी हो गई है। एम. वीरप्पा मोइली कभी कर्नाटक में मुख्यमंत्री व केंद्र में मंत्री हुआ करते थे मगर अब वो प्रभावहीन हो गए हैं। राजेंद्र कौर भट्ठल का पंजाब व पृथ्वीराज चौहान का महाराष्ट्र के मतदाताओं पर प्रभाव नहीं रहा है।
आनंद शर्मा अभी राज्यसभा में पार्टी के उपनेता हैं। वह मनमोहन सिंह की दोनों सरकारों में प्रभावशाली मंत्री रह चुके हैं। पार्टी ने उनको कई बार राज्यसभा में भेजा। कांग्रेस ने पिछली बार तो उनका राजस्थान से राज्यसभा का 6 महीने का कार्यकाल बाकी रहने के बावजूद भी उनको राजस्थान की सीट से इस्तीफा दिलवा कर हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा सदस्य बनवाया गया था। क्योंकि उनके राजस्थान से पुनः निर्वाचित होने की संभावना नहीं थी। आनंद शर्मा ने अपने जीवन में कभी कहीं से वार्ड मेंबर का भी चुनाव नहीं लड़ा है। इसके बावजूद भी वह कांग्रेस में राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं।
लगातार विवादों में घिरे रहने के बावजूद भी शशि थरूर को पार्टी लोकसभा का टिकट भी देती है और सरकार बनने पर मंत्री भी बनाती है। इसके बावजूद भी वह पार्टी से असंतुष्ट हो रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रयासों से मनीष तिवारी लोकसभा का चुनाव जीत पाए थे। मनमोहन सिंह की सरकार में उनको सूचना प्रसारण मंत्री भी बनाया बनाया गया था। कपिल सिब्बल के लोकसभा चुनाव हार जाने के बावजूद उनको उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में भेजा गया था। माना कि वह देश के एक बड़े वकील हैं मगर उनके बयानों से पार्टी को खासा नुकसान भी उठाना पड़ता है। मध्य प्रदेश के विवेक तंखा को भी पार्टी ने पिछले दिनों राज्यसभा में भेजा था। आज वही पार्टी से असंतुष्ट हो रहे हैं।
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शीला दीक्षित के पुत्र होने के कारण संदीप दीक्षित दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। अब उनका कोई राजनीतिक वजूद नहीं बचा है। अरविंदर सिंह लवली दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार में मंत्री व दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। दल बदल कर वो भाजपा में शामिल हो गए थे। मगर वहां तवज्जो नहीं मिलने के कारण फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। मगर यहां आकर असंतुष्ट गुट के साथ जुड़े हुए हैं। जितिन प्रसाद के पिता जितेंद्र प्रसाद कांग्रेस के बड़े नेता थे। पिता के नाम के सहारे ही कांग्रेस में उनको आगे बढ़ने का मौका मिला था। मगर दो बार लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद उनका जनाधार खत्म हो गया है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के बाद वह खुद को कांग्रेस की राजनीति में अनफिट महसूस कर रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव से पूर्व उनके पार्टी छोड़ने की चर्चा भी चली थी। मगर अभी तक वह पार्टी में बने हुए हैं।
मिलिंद देवड़ा महाराष्ट्र से एकमात्र राज्य सभा सीट से सांसद बनना चाहते थे। मगर राहुल गांधी ने अपने निकटस्थ राजीव सातव को राज्यसभा में भेज दिया। उसके बाद मिलिंद देवड़ा पार्टी से नाराज चल रहे हैं। ग्रुप-23 के सभी नेताओं ने हाल ही में जम्मू में एक दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया था। जिसमें ग्रुप के सभी 23 नेता शामिल हुए थे। वहां उन्होंने मीडिया के सामने खुलकर कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि हम चाहते हैं कि कांग्रेस पार्टी में मौजूदा कार्यप्रणाली में बदलाव किया जाये ताकि पार्टी फिर से मजबूत हो और जनता में खोया अपना जनाधार हासिल कर सकें। कुल मिलाकर कांग्रेस के बागी नेता कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर दबाव बना कर अपना प्रभाव बनाये रखना चाहते हैं।
-रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं।)
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