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जनरल नरवणे के नेतृत्व में सेना ने जो काम कर दिखाया है, उस पर पीढ़ियाँ गर्व करेंगी
- नीरज कुमार दुबे
- जनवरी 14, 2021 11:20
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सेनाध्यक्ष पद पर जनरल मनोज मुकुंद नरवणे आये। जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ऐसे सेनाध्यक्ष रहे जिनको पहले ही साल में तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने एक कुशल नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी छाप छोड़ी है।
दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेनाओं में शुमार भारतीय सेना आज अपना स्थापना दिवस धूमधाम से मना रही है। भारतीय सेना के शौर्य की जहाँ तक बात है तो उसे पूरी दुनिया कई बार देख ही चुकी है, लेकिन कोरोना काल में सेना ने जिस प्रकार राहत अभियानों में बढ़-चढ़कर मदद की वह अपने आप में दुनियाभर के सैन्य बलों के लिए अनुकरणीय है। कोरोना की आहट होते ही भारतीय सेना ने ऑपरेशन नमस्ते शुरू कर महामारी से लड़ने की शुरुआत की और सरकार की ओर से चलाये जा रहे राहत कार्यों में योगदान देने में जुट गयी लेकिन इस कठिन समय में भी पाकिस्तान और चीन ने जिस प्रकार मिलकर भारत की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा किया उसका भी भारतीय सेना ने दुश्मन को मुँहतोड़ ही नहीं बल्कि हर अंग तोड़ जवाब दिया। भारतीय सेना ने चीन को सिर्फ चेताया ही नहीं बल्कि चौंकाया भी है। सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक और पाकिस्तानी आतंकवादियों को भारतीय सीमा में घुसते ही मार गिराने के भारतीय सुरक्षा बलों के रुख से जैसे पाकिस्तान के सामने यह पूरी तरह स्पष्ट है कि भारत इस्लामाबाद की आतंक संबंधी नीति को कतई बर्दाश्त नहीं करेगा उसी तरह पिछले एक साल में चीन के सामने भी यह स्पष्ट हो गया है कि भारत को दबाया नहीं जा सकता, झुकाया नहीं जा सकता, डराया नहीं जा सकता और पीछे हटाया नहीं जा सकता। चीन को अच्छी तरह समझ आ गया है कि भारत आंखों में आंखें डाल कर बात भी करता है और यदि हालात बिगड़ते हैं तो दुश्मन को सिर्फ अपने बाजुओं की ताकत से ही चित कर सकता है।
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पिछले साल के शुरू में देश को पहले सीडीएस के रूप में बिपिन रावत मिले और सेनाध्यक्ष पद पर जनरल मनोज मुकुंद नरवणे आये। जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ऐसे सेनाध्यक्ष रहे जिनको पहले ही साल में तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने इस एक साल में ही कुशल नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी छाप छोड़ी है। दुनिया के सबसे बड़े बलों में शुमार भारतीय सेना का नेतृत्व आसान बात नहीं है। आइये जरा डालते हैं एक नजर पिछले एक वर्ष में सेना के समक्ष पेश आईं चुनौतियों पर और उसे मिली उपलब्धियों पर।
ऑपरेशन नमस्ते
देश में पिछले वर्ष के शुरू में जब कोरोना वायरस की आहट हुई तो सेना ने ऑपरेशन नमस्ते शुरू किया। इस अभियान के तहत जवानों को मास्क लगाने, सामाजिक दूरी बनाये रखते हुए कार्यों को अंजाम देने आदि के बारे में निर्देशित किया ही गया साथ ही सेना ने तमाम जगह क्वारांटीन सेंटर भी बनाये जोकि सभी के लिए काफी लाभकारी रहे। सेना ने इसके साथ ही केंद्र तथा विभिन्न राज्यों की सरकारों की ओर से चलाये जा रहे कोरोना रोधी अभियानों में हरसंभव मदद की।
सीमा पार आतंकवाद पर कड़ा प्रहार
पाकिस्तान को कड़ा संदेश देते हुए सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत सीमापार से प्रायोजित आतंकवाद को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा और देश के पास किसी भी आतंकी गतिविधि से निपटने के लिए अपने चुने हुए समय और स्थान पर सटीक पलटवार करने का अधिकार सुरक्षित है। अब जनरल नरवणे ऐसा कह रहे हैं तो यह सिर्फ बयान भर नहीं समझा जाना चाहिए। भारतीय सेना ने पाकिस्तान को बार-बार उसकी हिमाकतों का तगड़ा जवाब देकर दिखाया भी है। यही कारण है कि इस्लामाबाद के मन में सर्जिकल स्ट्राइक का इतना खौफ बैठ गया है कि वह दिन-रात भय से कांपा रहता है। हालांकि कोरोना वायरस महामारी के बावजूद पाकिस्तान अपनी राज्य नीति के तहत एलओसी पर बिना किसी उकसावे के संघर्षविराम का उल्लंघन करता आ रहा है और कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ कराने के लिए भी प्रयास करता रहा है। लेकिन सेना ने संघर्षविराम उल्लंघनों का जवाब पाकिस्तानी चौकियां उड़ा कर दिया और घुसपैठ करने वाले आतंकवादियों का भेजा उड़ा कर पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं का दिल दहला दिया।
पाकिस्तान भले कितने ही प्रयास कर ले लेकिन कश्मीर घाटी में अब आतंकवाद के पाँव उखड़ने लगे हैं। पिछले वर्ष सर्वााधिक बड़ी संख्या में आतंकवादी और आतंकवादी संगठनों के आला कमांडर मारे गये। पूरा साल यह स्थिति बनी रही कि आतंकी संगठनों के चीफ का पद लगभग खाली ही रहा क्योंकि इस पर बैठने वाला कुछ समय ही जिंदा रह पाया। सेना का मानवीय चेहरा भी कश्मीर घाटी के लोगों ने विभिन्न ऑपरेशन्स के दौरान फिर देखा जब नागरिकों के जीवन के लिए जवानों ने अपनी कुर्बानी दी। सेना की ओर से चलाये जाने वाले सद्भावना मिशनों का ही कमाल है कि कश्मीरी युवा बड़ी संख्या में मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। सेना की भर्तियों में भाग लेने के लिए कश्मीरी युवाओं की भीड़ लग रही है। इसके अलावा कोरोना काल में जिस तरह सेना ने रोजगार संबंधी प्रशिक्षण कार्यक्रम स्थानीय स्तर पर चलाये उससे युवाओं में कौशल बढ़ा है। लॉकडाउन के दौरान सेना की ओर से कश्मीर में जरूरतमंदों की हरसंभव मदद की गयी, राशन बांटा गया, चिकित्सा संबंधी जरूरतें पूरी की गयीं, युवाओं को खेलों से जोड़ा गया, नशे के खिलाफ अभियान के दौरान युवाओं के बीच जागरूकता फैलायी गयी। आज स्थानीय स्तर पर ऐसे हालात हैं कि यदि कोई बहकावे में आकर आतंकी गतिविधियों में लिप्त भी हो जाता है तो सेना के आग्रह पर अमूमन वापस लौट भी आता है।
चीनी चौधराहट को चुटकी में चटकाया
जनरल एमएम नरवणे के नेतृत्व वाली भारतीय सेना ने पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जिस तरह से चीनी सेना का अत्यंत बहादुरी के साथ सामना किया और उन्हें वापस जाने को मजबूर किया, उसकी कल्पना तक चीन ने नहीं की होगी। भारतीय सेना ने इस साल जो उपलब्धि हासिल की है उस पर देश की आने वाली पीढ़ियों को गर्व होगा। विस्तारवादी चीन की मंशाओं पर पानी फेरना आसान नहीं है लेकिन भारतीय सेना ने यह कार्य करके दिखाया और हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। गलवान में हमारे बलवानों ने जो शौर्य और साहस दिखाया उसके लिए उन्हें बारम्बार सलाम। हमारे 20 जवान उस संघर्ष में शहीद हो गये लेकिन चीनी आक्रामकता का जवाब देते हुए वह जिस तरह चीनी सैनिकों को मारते-मारते मरे हैं वह हमारे शहीदों को सदा के लिए अमर कर गया। चीन ने कोरोना महामारी के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर यथास्थिति बदलने की जो भी कोशिशें की वह सभी भारतीय सेना ने विफल कर दीं। भारतीय सेना द्वारा पिछले साल अगस्त में पैंगोंग झील से लगे कुछ ऊंचाई वाले इलाकों पर कब्जा किये जाने से चीन चौंक गया और भारत को उस पोजिशन का लाभ मिला।
भारत और चीन गतिरोध खत्म करने के लिए अब तक 8 दौर की बातचीत कर चुके हैं लेकिन हल नहीं निकला है और दोनों देशों की सेनाएं भयंकर ठंड और विषम परिस्थितियों के बावजूद आमने-सामने हैं। शायद चीन ने ठंड के इस मौसम में भारतीय सेना की परीक्षा लेने की सोची होगी, यदि ऐसा है तो भारतीय सेना उस परीक्षा में पूरी तरह पास हो चुकी है। भारतीय सेना के पास अपार साहस और कुछ भी कर दिखाने की हिम्मत तो पहले से ही थी लेकिन अब उसके पास विषम परिस्थितियों में भी पूरी तैयारी के साथ रहने के लिए साजोसामान भी है। जनरल नरवणे के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अपने इतिहास का सबसे बड़ा भंडारण कार्यक्रम चलाया जोकि पूर्वी लद्दाख में ठंड के मौसम के लिए था क्योंकि भीषण ठंड के दौरान जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं उस समय के लिए जवानों की हर चीज की व्यवस्था करना जरूरी था। भीषण सर्दी से मुकाबले की तैयारी भारतीय सेना ने पिछले साल जुलाई से ही शुरू कर दी थी। सैनिकों के लिए खास कपड़े और टेंट खरीदे गए जिनमें शून्य से 40 डिग्री नीचे के तापमान में आराम से रहा जा सकता है।
40 फीट तक बर्फ पड़ने के समय किसी भी सैनिक का इन इलाकों में ज्यादा समय तक तैनात रहना शारीरिक तौर पर काफी कठिन है लेकिन मोदी सरकार सैनिकों की हर जरूरत का खास ख्याल रख रही है। इसलिए एक बड़े अभियान के तहत राशन, केरोसिन हीटर, खास कपड़े, टेंट्स और दवाइयों को पूरी सर्दी के लिए समय से ही जमा कर लिया गया था। बेहद ठंडे मौसम में सैनिकों के इस्तेमाल के लिए खास कपड़ों के 11000 सेट अमेरिका से खरीदे गये। हाई ऑल्टेट्यूड और सुपर हाई ऑल्टेट्यूड में तैनात सैनिकों के लिए गरम रहने वाले टैंटों के अलावा लद्दाख में तैनात सभी सैनिकों के लिए स्मार्ट कैंप भी समय से तैयार कर लिए गए थे जिनमें बिजली, पानी, कमरे को गर्म रखने वाले हीटर, स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी सभी जरूरतों का ख्याल रखा गया। भारतीय सेना ने अपने सबसे बड़े सैन्य भंडारण अभियान के तहत पूर्वी लद्दाख में ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगभग चार महीनों की भीषण सर्दियों के मद्देनजर बलशाली टैंकों, तोपों, सैन्य वाहनों, भारी हथियार, गोला-बारूद, ईंधन के साथ ही खाद्य और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पूरी कर चीन की चौधराहट को चौंका दिया। यही नहीं इस वर्ष ठंड संबंधी दुश्वारियों की वजह से घायल होने वाले सैनिकों की तादाद भी पहले की अपेक्षा ज्यादा नहीं है जबकि इस बार तैनाती बड़ी संख्या में है। भारतीय सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए सेनाध्यक्ष समय-समय पर पूर्वी लद्दाख का दौरा भी कर रहे हैं, तैयारियों की समीक्षा कर रहे हैं और जरूरतों को पूरा करने के निर्देश भी दे रहे हैं। इसके अलावा लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दौलत बेग ओल्डी और डेपसांग जैसे अनेक अहम इलाकों तक सैनिकों की आवाजाही के लिए अनेक सड़क परियोजनाओं पर काम तेज करवाया गया है।
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सेना प्रमुख ने देश को आश्वस्त किया है हम जब तक अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों और उद्देश्यों को नहीं प्राप्त कर लेते तब तक पकड़ बनाकर रखने के लिए तैयार हैं और भारतीय सैनिक न सिर्फ लद्दाख के क्षेत्र में बल्कि एलएसी से लगे सभी क्षेत्रों में उच्च स्तर की सतर्कता बरत रहे हैं। जनरल नरवणे ने कहा है कि भारतीय सेना की संचालनात्मक तैयारी बेहद उच्च स्तर की है। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक स्थिति के बारे में उन्होंने कहा कि यह वैसी ही है जैसी पहले थी और यथास्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। सेनाध्यक्ष के इस बयान ने उन तमाम राजनीतिक आरोपों पर विराम लगा दिया है जिसके तहत तरह-तरह की बातें कही जा रही थीं।
सेना की उड्डयन शाखा में शामिल होंगी महिला पायलट
जनरल मनोज मुकुंद नरवणे की एक बड़ी पहल के तहत भारतीय सेना ने अपनी उड्डयन शाखा में महिला पायलटों की शामिल करने का फैसला किया है और माना जा रहा है कि इसके पहले बैच का प्रशिक्षण जुलाई में शुरू हो जायेगा। इस बारे में स्वयं जनरल नरवणे ने कहा कि उन्होंने एक महीने पहले सेना की उड्डयन शाखा में महिलाओं को शामिल करने का निर्देश जारी किया था। फिलहाल सेना की उड्डयन शाखा में महिलाओं को सिर्फ एयर ट्रैफिक कंट्रोल और ग्राउंड ड्यूटी में लगाया जाता है। सेना प्रमुख की पहल पर एडजुटेंट जनरल शाखा, सैन्य सचिव शाखा और उड्डयन निदेशालय में सहमति बन गयी है कि उड़ान भरने वाली शाखा में पायलट के रूप में महिला अफसरों की भर्ती की जा सकती है। माना जा रहा है कि अगला सत्र जुलाई से शुरू होगा और महिला अफसरों को पायलट प्रशिक्षण में शामिल किया जाएगा। एक साल के प्रशिक्षण के बाद वह पायलट के तौर पर फ्रंट लाइन पर ड्यूटी कर सकेंगी।
सैन्यकर्मियों के बीच मानसिक तनाव को कम करने के भरसक प्रयास
सेना ने इस चुनौतीपूर्ण वर्ष में अपने जवानों की सेहत का भी खास ख्याल रखा। कई बार ऐसे हालात हो जाते हैं कि मानसिक तनाव से जूझ रहे जवान आत्महत्या कर लेते हैं इसको देखते हुए विभिन्न अभियान चलाये गये। सैनिकों में तनाव की समस्या को दूर करने के लिए परामर्श भेजने सहित अन्य कई कदम उठाए गए। सेनाध्यक्ष की पहल पर बल ने जवानों के बीच तनाव के कारणों का अध्ययन किया और उनकी समस्याएं दूर करने के प्रयास किये गये और किये भी जा रहे हैं। साथ ही वरिष्ठ अधिकारी इस मुद्दे पर कंपनी कमांडर और कमांडिंग स्तर के अधिकारियों के नियमित संपर्क में बने हुए हैं। देखा जाये तो सेना के बारे में बिना आधार के भी कई बार रिपोर्टें प्रकाशित कर दी जाती हैं और विवाद खड़ा कर उस रिपोर्ट को वापस ले लिया जाता है। हाल ही में प्रमुख सैन्य थिंक टैंक यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (यूएसआई) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय सेना के आधे से ज्यादा सैनिक गंभीर तनाव की स्थिति में मालूम होते हैं और दुश्मनों की गोली के मुकाबले आत्महत्या, आपसी झगड़े और अन्य अप्रिय घटनाओं में हर साल ज्यादा सैनिकों की जान जा रही है। इस रिपोर्ट पर विवाद हुआ और बाद में यूएसआई की वेबसाइट से इस रिपोर्ट को हटा लिया गया।
पूर्वोत्तर में शांति
पूर्वोत्तर में शांति व्यवस्था बनाये रखने में और उग्रवादी तत्वों पर लगाम लगाने में सेना की बड़ी भूमिका रहती है। पिछले एक वर्ष में देखें तो असम सहित पूर्वोत्तर के अन्य भागों में शांति बनाये रखने में सेना का अनुकरणीय योगदान रहा। सीमायी राज्य अरुणाचल प्रदेश में भी उच्च स्तर की सतर्कता बनाये रखने की बात हो, बुनियादी ढाँचे को मजबूत बनाने की बात हो, सभी में सेना बढ़-चढ़कर कार्य करती रही। ओडिशा, बंगाल सहित जहाँ-जहाँ चक्रवाती तूफान आये वहाँ-वहाँ जवान राहत अभियानों में भी उतरे। यही नहीं चाहे नगालैंड के जंगली क्षेत्र में आग बुझाने की बात हो या अन्य प्रकार के सामाजिक कार्य, सेना ने सभी में आगे बढ़कर कार्य किया।
आत्मनिर्भर भारत
जब भारत आत्मनिर्भरता की राह पर कदम बढ़ा चला है तो सेना कहां पीछे रहने वाली है। पिछले वर्ष फरवरी माह में उत्तर प्रदेश की राजधानी में डिफेंस एक्सपो भी आयोजित किया गया जिसमें विदेशी कंपनियों ने देशी कंपनियों के रक्षा उत्पादों को देखा और सराहा। इस दौरान कई विदेशी कंपनियों से रक्षा अनुबंध भी हुए। इसके अलावा सेना ने छोटे से लेकर बड़े हथियारों तक की ऐसी सूची बनाई है जिनको घरेलू स्तर पर रक्षा साजोसामान बनाने वाली कंपनियों से ही खरीदा जायेगा। यही नहीं हाल ही में सेना की ओर से जो नये ऑर्डर दिये गये हैं उनमें 80 प्रतिशत तक भारतीय रक्षा कंपनियों को दिये गये हैं। स्वयं सीडीएस बिपिन रावत इस बारे में उद्योग संगठनों की बैठकों को संबोधित कर उनका हौसला बढ़ा चुके हैं।
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आगे की चुनौती
भारतीय सेना को पाकिस्तान और चीन की मिलिभगत को देखते हुए ‘दो मोर्चों’ पर संभावित खतरे के परिदृश्य से निपटने के लिए सदैव तैयार रहना होगा। साथ ही नये युग की जो तकनीकी संबंधी चुनौतियां हैं उनसे भी निबटने के लिए अपनी शक्ति को बढ़ाना होगा। सरकार को भी चाहिए कि सेना के आधुनिकीकरण के लिए भी जो भी बजटीय सहयोग और समर्थन चाहिए वह उसे प्रदान करती रहे। वैसे स्वयं सेनाध्यक्ष ने बताया है कि कोरोना काल में जब सभी मंत्रालयों को पैसा संभाल कर खर्च करने के निर्देश थे तब सेना के लिए कोई रोकटोक नहीं थी और उसे अपनी हर जरूरत का सामान समय पर मिलता रहा। सेनाध्यक्ष के रूप में जनरल नरवणे ने पड़ोसी देशों के अलावा उत्तर कोरिया और सऊदी अरब समेत कई अन्य देशों की यात्रा कर उन देशों के साथ भारत के रक्षा संबंध मजबूत बनाये, भारतीय सेना का अन्य देशों के साथ संयुक्त अभ्यास अभियान को आगे बढ़ाकर हमारे जवानों का कौशल और बढ़ाया, इस प्रकार के कार्यों को आगे भी किये जाते रहने की जरूरत है।
बहरहाल, हम सभी की भी यह जिम्मेदारी है कि जब हमारी सेना के वीर जवान सीमा पर और दुर्गम पहाड़ियों में डटे हुए हैं तो उनका हौसला बढ़ाने के लिए जो कुछ हो सकता है वह करते रहें। जिस विश्वास, दृढ़ता, प्रतिबद्धता और वीरता के साथ हमारे जवान डटे हुए हैं उसी दृढ़ता के साथ हमें हमारे जवानों के साथ खड़े रहने की जरूरत है।
जय हिन्द
-नीरज कुमार दुबे
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- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
- जनवरी 20, 2021 13:23
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अभी भी व्हाट्साप पर स्वास्थ्य-जांच रपटें, यात्रा और होटल के विवरण तथा व्यापारिक लेन-देन के संदेशों को भेजने की खुली व्यवस्था है। ‘फेसबुक’ चाहती है कि ‘व्हाट्साप’ की समस्त जानकारी का वह इस्तेमाल कर ले ताकि उससे वह करोड़ों रुपए कमा सकती है।
आजकल व्हाट्साप को दुनिया के करोड़ों लोग रोज इस्तेमाल करते हैं। वह भी मुफ्त! लेकिन पिछले दिनों लाखों लोगों ने उसकी बजाय ‘सिग्नल’, ‘टेलीग्राम’ और ‘बोटिम’ जैसे माध्यमों की शरण ले ली और यही क्रम कुछ महीने और चलता रहता तो करोड़ों लोग ‘व्हाट्साप’ से मुंह मोड़ लेते। ऐसी आशंका इसलिए हो रही है कि व्हाट्साप की मालिक कंपनी ‘फेसबुक’ ने नई नीति बनाई है जिसके अनुसार जो भी संदेश व्हाट्साप से भेजा जाएगा, उसे फेसबुक देख सकेगा याने जो गोपनीयता व्हाट्साप की जान थी, वह निकलने वाली थी। व्हाटसाप की सबसे बड़ी खूबी यही थी और जिसका बखान उसे खोलते ही आपको पढ़ने को मिलता है कि आपकी बात या संदेश का एक शब्द भी न कोई दूसरा व्यक्ति सुन सकता है और न पढ़ सकता है। यही वजह थी कि देश के बड़े-बड़े नेता भी आपस में या मेरे-जैसे लोगों से दिल खोलकर बात करना चाहते हैं तो वे व्हाट्साप का ही इस्तेमाल करते हैं।
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इसका दुरुपयोग भी होता है। आतंकवादी, हत्यारे, चोर-डकैत, दुराचारी और भ्रष्ट नेता व अफसरों के लिए यह गोपनीयता वरदान सिद्ध होती है। इस दुरुपयोग के विरुद्ध सरकार ‘व्यक्तिगत संवाद रक्षा कानून’ ला रही है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता की रक्षा तो करेगा ही लेकिन संविधान विरोधी बातचीत या संदेश को पकड़ सकेगा। मैं आशा करता हूं कि इस महत्वपूर्ण कानून को बनाते वक्त हमारी सरकार और संसद वैसी लापरवाही नहीं करेगी, जैसी उसने कृषि-कानूनों के साथ की है।
अभी भी व्हाट्साप पर स्वास्थ्य-जांच रपटें, यात्रा और होटल के विवरण तथा व्यापारिक लेन-देन के संदेशों को भेजने की खुली व्यवस्था है। ‘फेसबुक’ चाहती है कि ‘व्हाट्साप’ की समस्त जानकारी का वह इस्तेमाल कर ले ताकि उससे वह करोड़ों रुपए कमा सकती है और दुनिया के बड़े-बड़े लोगों की गुप्त जानकारियों का खजाना भी बन सकती है। व्हाटसाप इस नई व्यवस्था को 8 फरवरी से शुरू करने वाला था लेकिन लोगों के विरोध और क्रोध को देखते हुए उसने अब इसे 15 मई तक आगे खिसका दिया है।
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फेसबुक को व्हाट्साप की मिल्कियत 19 अरब डालर में मिली है। वह इसे कई गुना करने पर आमादा है। उसे पीछे हटाना मुश्किल है लेकिन ‘यूरोपियन यूनियन’ की तरह भारत का कानून इतना सरल होना चाहिए कि नागरिकों की निजता पूरी तरह से सुरक्षित रह सके लेकिन मेरा अपना मानना यह है कि जिन लोगों का जीवन खुली किताब की तरह होता है, उनके यहाँ गोपनीयता नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती। वे किसी फेसबुक से क्यों डरें ?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव एक बार फिर मोदी के नाम पर लड़ सकती है भाजपा
- अजय कुमार
- जनवरी 19, 2021 14:33
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परिस्थितियां भाजपा के लिए जितनी भी अनुकूल क्यों न हों, लेकिन सियासी पिच पर कब कौन कैसा ‘बांउसर’ फेंक दे कोई नहीं जानता है। इसीलिए आलाकमान यूपी पर पूरी तवज्जो दे रहा है। आलाकमान जानता है कि जब तक यूपी सुरक्षित है तभी तक दिल्ली का ‘ताज’ बचा रह सकता है।
उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष विधान सभा चुनाव होने हैं। बीजेपी सत्ता में रिटर्न होगी या फिर हमेशा की तरह यूपी के मतदाता इस बार भी ‘बदलाव’ की बयार बहाने की परम्परा को कायम रखेंगे ? अथवा 2017 की तरह मोदी का जादू फिर चलेगा। यह सवाल सबके जहन में कौंध रहा है। बस फर्क इतना है कि पिछली बार बीजेपी, मायावती-अखिलेश सरकार की खामियां गिना और वोटरों को सब्जबाग दिखाकर सत्ता में आई थी। वहीं अबकी से उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार को पांच साल का हिसाब-किताब देना होगा। ‘बीजेपी सरकार’ की बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि 2017 का विधानसभा चुनाव बीजेपी बिना मुख्यमंत्री का चेहरा आगे किए मोदी के चेहरे पर लड़ी थी। योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला तो अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीतने के बाद लिया गया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी की भले ही चौतरफा तारीफ हो रही हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि योगी अपने बल पर बीजेपी को 2022 का विधानसभा चुनाव जिता ले जाने में पूरी तरह से सक्षम हैं।
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यह और बात है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में परिस्थितियां एकदम बदली नजर आ रही हैं, जो भाजपा के सबसे अधिक अनुकूल नजर आ रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव के समय की ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ वाली राहुल-अखिलेश की जोड़ी टूट चुकी है। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में चर्चा का विषय रही बुआ-बबुआ के रिश्तों में ‘टूट’ पैदा हो गई है। मायावती ने तो अपने 65वें जन्मदिन (15 जनवरी 2021 का) पर यहां तक ऐलान तक कर दिया कि 2022 में यूपी और उत्तराखंड के चुनाव में उनकी पार्टी अकेले लड़ते हुए 2007 की तरह 2022 में भी अपने दम पर सरकार बनाएगी। दरअसल, गठबंधन की सियासत में मायावती की समस्या कुछ अलक किस्म की ही है। बसपा जिस पार्टी के साथ गठबंधन करती है, उस पार्टी के पक्ष में बसपा के वोट तो आसानी से ट्रांसफर हो जाते हैं, लेकिन गठबंधन की अन्य पार्टी के वोटर बसपा के लिए वोटिंग करने की जगह दूसरी राह पकड़ लेते हैं
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की बात की जाए तो वह इसी बात से संतुष्ट नजर आ रहे हैं कि उप-चुनावों में उनकी ही पार्टी भाजपा को चुनौती दे रही है। यानी सपा चुनाव जीत नहीं पाती है तो दूसरे नंबर पर तो रहती ही है। इसी को अखिलेश अपनी ताकत समझते हैं, जिस तरह से एक के बाद एक बसपा नेता हाथी से उतर कर साइकिल पर सवार हो रहे हैं उससे भी अखिलेश का हौसला बढ़ा हुआ है। सपा प्रमुख को सबसे अधिक मुस्लिम वोट बैंक पर भरोसा है, लेकिन जिस तरह से मात्र दलित वोट बैंक के सहारे बसपा सुप्रीमो मायावती सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में नाकामयाब रहती हैं, उसी प्रकार से सपा सिर्फ मुसलमानों के सहारे अपनी चुनावी वैतरणी पार करने में नाकाम रहती है। बात वोट बैंक में सेंधमारी की कि जाए तो भीम सेना की नजर बसपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी की रहती है, वहीं ओवैसी, समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में हिस्सेदारी करने को आतुर हैं। कुछ सीटों पर जहां बसपा मुस्लिम प्रत्याशी उतारती है, वहां उसके (बसपा) भी पक्ष में मुसलमान लामबंद होने से गुरेज नहीं करते हैं।
हाँ, इस बार के विधानसभा चुनाव के लिए आम आदमी पार्टी और ओवैसी के ताल ठोंकने से सियासत का रंग कुछ चटक जरूर हुआ है, लेकिन यह पार्टियां क्या गुल खिला पायेंगी, यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। जहां तक ओवैसी की पार्टी की बात है तो उसके कूदने से समाजवादी पार्टी को ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है। अपने पहले दौरे के दौरान ओवैसी ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर तीखा हमला बोलकर अपने इरादे भी स्पष्ट कर दिए हैं।
ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने वाराणसी पहुंचते ही मीडिया से बातचीत में तंज कसते हुए कहा कि प्रदेश में जब अखिलेश यादव की सरकार की थी तो हमें 12 बार प्रदेश में आने से रोका गया था। अब मैं आ गया हूं। सुभासपा के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के साथ गठबंधन किया है, मैं दोस्ती निभाने आया हूं। ज्ञातव्य हो कि सुभासपा ने 2017 में भाजपा से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया था। अजगरा विधानसभा क्षेत्र में संयुक्त रैली में गठबंधन की घोषणा के बाद विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की कई सीटों पर बंटवारा हुआ था। मगर, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह गठबंधन टूट गया। इसके बाद से ही सुभासपा नए साथियों के साथ अपनी सियासत को पूर्वांचल में मजबूत करने की कोशिश में जुटी है। इसी क्रम में राजभर ने ओवैसी से सियासी दोस्ती की है।
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भी एक ‘कोण’ बनना चाहती है। याद कीजिए जब 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी प्रियंका वाड्रा ने संभाली थी, तब राहुल गांधी ने मीडिया से कहा भी था कि हमारी नजर 2022 के विधानसभा चुनाव पर है। 2022 के विधानसभा चुनाव में अब साल भर से कुछ ही अधिक का समय बचा है, लेकिन पिछले डेढ़-दो वर्षों में कांग्रेस की दिशा-दशा में कोई खास बदलाव आया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मात्र रायबरेली संसदीय सीट जीत पाई थी, जहां से यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी स्वयं मैदान में थीं। राहुल तक अमेठी से चुनाव हार गए थे। इसके बाद तो राहुल गांधी ने यूपी की तरफ से मुंह ही फेर लिया। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव के पश्चात हुए तमाम उप-चुनावों में भी कांग्रेस की ‘लुटिया’ बार-बार डूबती रही। अपवाद को छोड़कर प्रत्येक उप-चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाए। अबकी बार भी कांग्रेस से कोई भी दल गठबंधन को तैयार नहीं है।
बहरहाल, परिस्थितियां भाजपा के लिए जितनी भी अनुकूल क्यों न हों, लेकिन सियासी पिच पर कब कौन कैसा ‘बांउसर’ फेंक दे कोई नहीं जानता है। इसीलिए भाजपा आलाकमान यूपी पर पूरी तवज्जो दे रहा है। आलाकमान जानता है कि जब तक यूपी सुरक्षित है तभी तक दिल्ली का ‘ताज’ बचा रह सकता है। चुनाव चाहे 2014 के हों या फिर 2019 के लोकसभा चुनाव, दिल्ली में मोदी सरकार इसीलिए बन पाई क्योंकि यूपी में भाजपा का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा था और इसका सारा श्रेय मोदी को जाता है। संभवतः अबकी बार भी बीजेपी आलाकमान कोई नया प्रयोग करने की बजाए मोदी को ही आगे करके चुनाव लड़ेगा। योगी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहेगी, लेकिन कितनी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है।
जिस तरह से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से साल भर पहले गुजरात कैडर के 1988 बैच के सेवानिवृत्त आईएएस रहे अरविंद कुमार शर्मा को भाजपा में शामिल करके उत्तर प्रदेश विधान परिषद चुनाव के लिए मैदान में उतारा गया है, वह काफी कुछ कहता है। मूलतः मऊ के निवासी अरविंद कुमार शर्मा 20 साल तक नरेंद्र मोदी के साथ काम कर चुके हैं। अरविंद के बारे में चर्चा जोरों पर है कि उन्हें जल्द ही योगी कैबिनेट में महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अरविंद मौजूदा डिप्टी सीएम डॉ. दिनेश शर्मा की जगह नये डिप्टी सीएम हो सकते हैं। दिनेश शर्मा के बारे में आलाकमान को अच्छी रिपोर्ट नहीं मिल रही है। दिनेश शर्मा की ईमानदारी पर तो किसी को संदेह नहीं है, लेकिन वह जनहित के काम नहीं कर पा रहे हैं। फिलहाल अरविंद मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं। वह इतना ही कह रहे हैं कि सीएम-पीएम और पार्टी जो भी दायित्व देंगे, उसे स्वीकार कर खरा उतरने का प्रयास करूंगा। अरविंद शर्मा की हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सियासत में आए हुए अरविंद को 24 घंटे भी नहीं हुए थे, लेकिन पीएम मोदी के करीबी होने के नाते यूपी के भाजपाई उनसे मिलने और संपर्क तलाशने में जुट गए। पार्टी कार्यालय से लेकर कई चौराहों पर एके शर्मा के भाजपा में स्वागत के होर्डिंग्स टंग गए। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सहित कई नेताओं ने भी ट्वीट कर पार्टी में स्वागत किया। इससे पहले गुजरात की मुख्यमंत्री रह चुकीं और मोदी की काफी करीबी नेता आनंदी बेन पटेल को यूपी का राज्यपाल बनाकर भेजा गया था।
-अजय कुमार
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- ललित गर्ग
- जनवरी 18, 2021 16:44
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इन दिनों दिल्ली में तेज हवा की वजह से पारे में तेज गिरावट तो आई और उससे ठंड की तस्वीर और बिगड़ी, मगर उससे हवा के साफ होने की भी गुंजाइश बनी थी। अब एक बार फिर दिल्ली में कोहरे या धुंध की हालत बनने के साथ वायुमंडल के घनीभूत होने की हालात पैदा हो गई है।
कहते हैं जान है तो जहान है, लेकिन दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण जान और जहान दोनों ही खतरे में हैं। दिल्ली की हवा में घुलते प्रदूषण का ‘जहर’ लगातार खतरनाक स्थिति में बना होना चिन्ता का बड़ा कारण है। प्रदूषण की अनेक बंदिशों एवं हिदायतों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की बात खोखली साबित हुई। यह कैसी शासन-व्यवस्था है? यह कैसा अदालतों की अवमानना का मामला है? यह सभ्यता की निचली सीढ़ी है, जहां तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति, शासन-प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के अपने दायित्वों से दूर होता जा रहा है। यह कैसा समाज है जहां व्यक्ति के लिए पर्यावरण, अपना स्वास्थ्य या दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई अर्थ नहीं है। जीवन-शैली ऐसी बन गयी है कि आदमी जीने के लिये सब कुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया, यही कारण है दिल्ली की जिन्दगी विषमताओं और विसंगतियों से घिरी होकर कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। क्यों आदमी मृत्यु से नहीं डर रहा है? क्यों भयभीत नहीं है? दिल्ली की जनता दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, प्रदूषण जैसी समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती हैं, भयभीत करती हैं।
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मालूम हो कि स्विस एयर क्वालिटी टेक्नोलॉजी कंपनी के मुताबिक भारत के तीन बड़े शहर- दिल्ली, कोलकाता और मुंबई दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हैं जो कि एक चिंताजनक बात है। दिल्ली में प्रदूषण जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। हर कुछ समय बाद अलग-अलग वजहों से हवा की गुणवत्ता का स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और सरकार की ओर से इस स्थिति में सुधार के लिए कई तरह के उपाय करने की घोषणा की जाती है। हो सकता है कि ऐसा होता भी हो, लेकिन सच यह है कि फिर कुछ समय बाद प्रदूषण का स्तर गहराने के साथ यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर इसकी असली जड़ क्या है और क्या सरकार की कोशिशें सही दिशा में हो पा रही हैं। इस विकट समस्या से मुक्ति के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। दिल्ली की सामाजिक संरचना में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प, पर्यावरण सब में परिवर्तन है। आदमी ने जमीं को इतनी ऊंची दीवारों से घेर कर तंगदील बना दिया कि धूप और प्रकाश तो क्या, जीवन-हवा को भी भीतर आने के लिये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। सुविधावाद हावी है तो कृत्रिम साधन नियति बन गये हैं। चारों तरफ भय एवं डर का माहौल है। यह भय केवल प्रदूषण से ही नहीं, भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से एवं अपने दायित्व एवं जिम्मेदारी से मुंह फैरने वाले अधिकारियों से भी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम अब भी ऐसे मुकाम पर हैं, जहां सड़क पर बाएं चलने या सार्वजनिक जगहों पर न थूकने जैसे कर्तव्यों की याद दिलाने के लिए भी पुलिस की जरूरत पड़ती है। जो पुलिस अपने चरित्र पर अनेक दाग ओढ़े हैं, भला कैसे अपने दायित्वों का ईमानदारी एवं जिम्मेदारी से निर्वाह करेगी?
इन दिनों दिल्ली में तेज हवा की वजह से पारे में तेज गिरावट तो आई और उससे ठंड की तस्वीर और बिगड़ी, मगर उससे हवा के साफ होने की भी गुंजाइश बनी थी। अब एक बार फिर दिल्ली में कोहरे या धुंध की हालत बनने के साथ वायुमंडल के घनीभूत होने की हालात पैदा हो गई है और इसमें प्रदूषण की मात्रा बढ़ गई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत वायु गुणवत्ता और मौसम पर नजर रखने वाली संस्था ‘सफर’ ने जो ताजा आकलन जारी किया है, उसके मुताबिक दिल्ली में एक बार फिर प्रदूषण की स्थिति गंभीर होने वाली है। दरअसल, वायु की गुणवत्ता की कसौटी पर दिल्ली पहले भी अक्सर ही चिंताजनक हालत में रही है। ऐसे बहुत कम मौके आए, जब इसमें राहत महसूस की गई। पिछले साल पूर्णबंदी लागू होने के बाद जब वाहनों और औद्योगिक इकाइयों का संचालन नाममात्र का रह गया था, तब न सिर्फ वायु, बल्कि यमुना में भी प्रदूषण की समस्या में काफी सुधार देखा गया था। लेकिन उसके बाद पूर्णबंदी में क्रमशः ढिलाई के साथ-साथ जब आम जनजीवन सामान्य होने लगा है, तब धुएं और धूल के हवा में घुलने के साथ ही प्रदूषण ने फिर से अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है।
‘सफर’ के ताजा आकलन के मुताबिक दिल्ली में वायु गुणवत्ता का स्तर 431 अंकों तक पहुंच गया। गौरतलब है कि वायु गुणवत्ता का यह स्तर ‘गंभीर श्रेणी’ में माना जाता है और यह आम लोगों में सांस से संबंधित कई तरह की दिक्कतों के लिहाज से जोखिम की स्थिति है। ज्यादा चिंताजनक यह है कि इसमें अगले कुछ दिनों तक और गिरावट आने की आशंका जताई गई है। ‘सफर’ के अनुसार वायु गुणवत्ता का स्तर 469 अंक तक पहुंच सकता है। सारे कानून-कायदों, अदालती या सरकारी आदेशों और पुलिस की कवायद के बावजूद प्रदूषण दिल्ली में कम होने की बजाय बढ़ता जा रहा। वैसे भी, भारत दुनिया के चुनिंदा देशों में है जहां शायद सबसे अधिक कानून होंगे, लेकिन हम कितना कानून-पालन करने वाले समाज हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।
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यों इस मौसम में दिन की शुरूआत यानी सुबह के समय कोहरे या धुंध की चादर का घना होना कोई हैरानी की बात नहीं है। यह कड़ाके की ठंड के दिनों की एक खासियत भी है और विवशता भी। लेकिन मुश्किल यह है कि वायुमंडल के घनीभूत होने की वजह से जमीन से उठने वाली धूल और वाहनों से निकलने वाले धुएं के छंटने की गुंजाइश नहीं बन पाती है। नतीजतन, वायु में सूक्ष्म जहरीले तत्व घुलने लगते हैं और प्रदूषण के गहराने की दृष्टि से इसे खतरनाक माना जाता है। हमारा राष्ट्र एवं राजधानी नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक एवं व्यक्तिगत सभी क्षेत्रों में मनोबल के दिवालिएपन के कगार पर खड़ी है और हमारा नेतृत्व गौरवशाली परम्परा, विकास और हर प्रदूषण खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है, देश की राजधानी और उसके आसपास जिस तरह प्रदूषण नियंत्रण की छीछालेदर होती रहती है, उससे यह सहज ही जाहिर हो गया है। बात सरकार की अक्षमता की नहीं है। उन कारणों की शिनाख्त करने की है, जिनके चलते एक आम नागरिक पर्यावरण या उसके अपने स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर मंडरा रहे खतरों के बावजूद लगातार उदासीन एवं लापरवाह क्यों होता जा रहा है।
दिल्ली में प्रदूषण को कम करने के मसले पर केंद्र और राज्य सरकारें लगातार बैठकें करती रही हैं, लेकिन प्रदूषण के स्तर में कोई खास कमी नहीं आई है। इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब देखने को मिली। इस बीच लांसेट प्लैनेटरी हेल्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसके मुताबिक वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर दिल्ली पर ही पड़ा है। इसके बाद नंबर आता है हरियाणा का। प्रदूषण के चलते साल 2019 में दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय में करीब 4,578 रुपये की गिरावट दर्ज की गई। वहीं, हरियाणा को प्रति व्यक्ति आय के रूप में करीब 3,973 रुपये का नुकसान हुआ। ऐसे में प्रदूषण की रोकथाम के लिए कड़े कदम उठाए जाने कि जरूरत बताई गई, जिसके बाद सीपीसीबी ने दिल्ली-एनसीआर में हॉट मिक्स प्लांट और स्टोन क्रशर पर 2 जनवरी 2021 तक के लिए बैन लगा दिया है। हालांकि, इससे कितना प्रदूषण कम होगा, ये आने वाला वक्त ही बताएगा।
फिलहाल दिल्ली में वायु प्रदूषण की स्थिति गंभीर होने की वजह साफ दिख रही है। विडंबना यह है कि जब भी प्रदूषण की समस्या खतरनाक हालत में पहुंचती है, तब सरकारें कुछ प्रतीकात्मक उपाय करके सब कुछ ठीक हो गया मान लेती हैं, लेकिन इस जटिल एवं जानलेवा समस्या का कोई ठोस उपाय सामने नहीं आता। मसलन, कुछ समय पहले दिल्ली में सरकार की ओर से प्रदूषण की समस्या पर काबू करने के मकसद से चौराहों पर लगी लालबत्ती पर वाहनों को बंद करने का अभियान चलाया गया था। सवाल है कि ऐसे प्रतीकात्मक उपायों से प्रदूषण की समस्या का कोई दीर्घकालिक और ठोस हल निकाला जा सकेगा।
-ललित गर्ग
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