जनजातियों के लिए तो जीवंत बिरसा मुंडा के समान थे जगदेव राम उरांव

Jagdev Ram Oraon
तरुण विजय । Jul 25 2020 7:13PM

जगदेव राम उरांव गत पांच दशकों से संपूर्ण भारत के जनजातीय समाज के स्कूल, कॉलेज, मेडिकल सेंटर, छात्रावास, सांस्कृतिक पुर्नजागरण केंद्र और आर्थिक सशक्तीकरण के प्रकल्प स्थापित कर रहे थे। वे स्वयं जशपुर के पास कोमोडो गांव के निवासी थे।

राजनेताओं में अक्सर यह गलतफहमी हो जाती है कि वह अपने पद व पैसे के कारण बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति है। संस्कृत में कहावत भी है- सर्वे गुणः कांचनमाश्रयंति। अर्थात् सभी गुण धन से चमकते हैं। गांव में हमारी दादी इसी बात को साधारण भाषा में सुनाती हैं- माया तेरे तीन नाम, परसा, परसु, परसराम। गरीब का नाम चाहे परसराम हो परन्तु उसे परसु ही पुकारते हैं। धन आ जाये तो परसु को भी परसराम जी कहने लग जाते हैं। पर सामाजिक जीवन में यह बात सत्य नहीं होती। देश के महानतम भाग्यविधाता वे थे जो शायद न कभी मंत्री बने, न विधायक और न ही सांसद। पंडित दीन दयाल उपाध्याय कभी सांसद तो बने नहीं लेकिन भारतीय राजनीति का स्वरूप बदलने वाला संगठन और विचारधारा गढ़ गये। श्यामा प्रसाद मुखर्जी सांसद और मंत्री तो बने लेकिन भारत की एकता के लिए जान हथेली पर रखकर कश्मीर गये और बलिदान दिया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे उनके अनुयायियों ने छह दशक से भी कम समय में उनका सपना पूरा कर दिखाया। राम मनोहर लोहिया जीवन भर विपक्ष के शेर और संसद के मेरूदंड बने रहे। 

समाज उनको नहीं पूछता जो सत्ता का अहंकार ओढ़कर टेढ़े-टेढ़े चलते हैं। ऐसे अनेक आकाशगामी व्यक्तियों को हमने अपनी आंखों के सामने कूड़ेदानगामी होते देखा है। कोई उनका नाम भी अब याद नहीं करता।

इसे भी पढ़ें: योगी राज में सबकुछ ठीक चल रहा था लेकिन अचानक जंगलराज कैसे आ गया?

समाज के शिल्पी सत्ता और पद के मोहताज नहीं होते। ऐसे ही एक समाजशिल्पी थे जगदेव राम उरांव। इस देश में जनजातियों की काफी बड़ी संख्या है जो सम्पूर्ण भारतीय जनसंख्या का 10 प्रतिशत है। लेकिन भारत में 98 प्रतिशत आतंकवाद, विद्रोह, विदेशी धन पोषित षड्यंत्र इस 10 प्रतिशत जनसंख्या के बीच विद्यमान है। इनकी सघन उपस्थिति उत्तर पूर्वांचल के आठ राज्यों- उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र, तेलंगाना, हिमाचल, लद्दाख, उत्तराखंड व राजस्थान में हैं। जगदेव राम उरांव गत पांच दशकों से संपूर्ण भारत के जनजातीय समाज के स्कूल, कॉलेज, मेडिकल सेंटर, छात्रावास, सांस्कृतिक पुर्नजागरण केंद्र और आर्थिक सशक्तीकरण के प्रकल्प स्थापित कर रहे थे। वे स्वयं जशपुर के पास कोमोडो गांव के निवासी थे। उरांव जनजाति बहुत बहादुर धर्मपरायण मानी जाती है पर जनजाति के बीच ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजों की छाया तले इतनी ताकत के साथ विस्तार हुआ कि आजादी के बाद एक बार तत्कालीन मध्यभारत प्रांत के प्रधानमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल जब इस क्षेत्र के दौरे पर आए तो ईसाई धर्मांतरित जनजातियों ने उनका विरोध कर उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया।

उन्होंने महात्मा गांधी के सहयोगी ठक्कर बांपा से चर्चा की। जो जनजातीय समाज में कार्य कर रहे थे। ठक्कर बांपा ने कुछ काम शुरू किए तब बाला साहेब देशपांडे, जो उस समय जशपुर में वकील थे तथा स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे, ने जनजातीय आस्था और संस्कृति रक्षा के लिए कल्याण आश्रम की स्थापना की जो बाद में अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम का रूप लेकर सारे देश में फैला। जगदेव राम उरांव अपने गांव में स्वयं पिछड़ापन, दारिद्रय, सरकारी उपेक्षा, शोषण और उस पर मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण का संताप देकर इस परिस्थिति से क्षुब्ध थे ही, वे 1968 में कल्याण आश्रम में आ गये। वे कल्याण आश्रम द्वारा संचालित विद्यालय में शिक्षक बन गये और उरांव जाति के विकास के लिए दिन-रात काम करने लगे। 

धीरे-धीरे वे संगठन में आगे बढ़े और देशभर की जनजातियों के बीच उन्हें काम बढ़ाने की जिम्मेदारी मिली। उनका सरल, सहज स्वभाव, उच्च शिक्षा और बिना कटुता पैदा किये हिम्मत के साथ जनजातियों को हिम्मत के साथ एक करने की क्षमता ने उन्हें लद्दाख से लेकर पोर्ट ब्लेयर और तवांग से लेकर गुजरात के डांग और धर्मपुर जैसे क्षेत्रों में लोकप्रिय बना दिया। वे जहां जाते अपने समाज के लोगों को नशे ओर कुरीतियों से दूर हटने की सलाह का उपदेश देते। बच्चों को पढ़ाओ, आगे बढ़ाओ खासकर जनजातियों की लड़कियों को, यही संदेश देते थे। उन्होंने शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन के क्षेत्र में विशेष प्रोत्साहित किया। वनवासी कल्याण आश्रम ने नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम से लेकर केरल की नीलगिरी पहाड़ियों और नक्सलवाद प्रभावित दंतेवाड़ा जैसे क्षेत्रों से अनेक जनजातीय युवतियों को डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक जैसे स्थानों तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की। अक्सर उत्तर पूर्वांचल के बच्चे दिल्ली, मुंबई या महानगरों में जाते हैं तो उनके साथ नस्लीय भेदभाव की शिकायतें मिलती हैं। जगदेव राव उरांव के नेतृत्व में वनवासी कल्याण आश्रम देश का ऐसा अकेला संगठन बना जिसनें जनजातीय युवाओं के साथ भेदभाव खत्म करने की लड़ाई लड़ी और हजारों उत्तर पूर्वांचलीय युवक-युवतियां वनवासी कल्याण आश्रम की पहल के कारण आत्माभिमान के साथ समानता के व्यवहार ही नहीं पाते बल्कि देश के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अन्य शहरियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर योगदान दे रहे हैं। 1995 में वे वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष बन गये थे और उनके नेतृत्व में पूरे देश के 14 हजार गांवों में पांच सौ जनजातियों के मध्य बीस हजार से ज्यादा सेवा कार्य प्रकल्प चलने प्रारंभ हुए। जहां तक सम्पर्क की बात है तो वनवासी कल्याण आश्रम श्री जगदेव राम के नेतृत्व में पचास हजार गांव तक पहुंच चुका है जो अपने आप में एक विश्व कीर्तिमान है। चौदह हजार गांव तथा नगरीय क्षेत्रों में जनजातीय समाज के विकास के लिए बीस हजार प्रकल्प चल रहे हैं उनमें कुल संख्या मिलायें तो लगभग तीन लाख से अधिक लोग सेवा, समर्पण और जनजातीय बंधुओं की सेवा के लिए सहभागी हो रहे हैं। यह कल्पना करना भी कठिन है कि विदेशों से आने वाले अरबों डॉलर लेने वालों के सामने सरकार से एक पैसे की सहायता लिए बिना केवल समाज से एकत्र किये जाने वाले धन के बल पर उन जनजातीय के लिए दुनिया का सबसे बड़ा संगठन भारत में खड़ा हो गया जो उनकी काया और मन की चिंता करता है तथा देशभक्ति के मार्ग से विकास के लक्ष्य तक ले जाता है।

इसे भी पढ़ें: तमाम उतार-चढ़ाव के बाद फिर से पटरी पर लौट रही है भारतीय अर्थव्यवस्था

ऐसे थे जगदेव राम उरांव जिनका 72 वर्ष की आयु में गत 15 जुलाई को देहांत हो गया। यह ठीक है कि देश में फिल्म अभिनेताओं को कदाचित राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार का अवसर मिल जाता है लेकिन जगदेव राम उरांव सामाजिक सम्मान के साथ इहलोक की यात्रा पूर्ण कर बैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान कर गये। समाज को गढ़ने वाली यह हस्ती वास्तव में सैंकड़ों मंत्रियों, सांसदों से बड़े कहे जायेंगे। उनकी स्मृति को इसीलिए सबसे पहले श्रद्धांजलि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही दी। शायद इस देश का शिक्षा विभाग किसी पाठ्यक्रम में जगदेव राम की संघर्ष यात्रा का पाठ न पढ़ाये लेकिन जनजातियों के लिए तो वे जीवंत बिरसा मुंडा और ठक्कर बांपा थे। 

-तरुण विजय

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़