वसुधैव कुटुम्बकम् की जीवंत प्रतिमूर्ति और समाज को सदैव सही दिशा दिखाने वाले मार्गदर्शक हैं मोहन भागवत

Mohan Bhagwat
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हम आपको याद दिला दें कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल करने में विफल रही थी। अबकी बार 400 पार का नारा देने वाली भाजपा के लिए पिछले लोकसभा चुनावों के परिणाम अप्रत्याशित थे।

भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का रिश्ता नया नहीं है। दोनों का वैचारिक स्रोत समान है, किंतु समय-समय पर दूरी और निकटता की स्थिति भी बनी रहती है। हाल की राजनीतिक घटनाओं ने एक बार फिर इस रिश्ते को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नागपुर में संघ मुख्यालय जाना, स्वतंत्रता दिवस के भाषण से लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत के 75वें जन्मदिन पर लिखे गए भावनात्मक आलेख तक, और हाल ही में मोहन भागवत का प्रधानमंत्री आवास पर जाना, ये सब घटनाएं संकेत देती हैं कि भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद संघ की छत्रछाया को पहले से कहीं अधिक महत्व देना शुरू कर दिया है।

हम आपको याद दिला दें कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल करने में विफल रही थी। अबकी बार 400 पार का नारा देने वाली भाजपा के लिए पिछले लोकसभा चुनावों के परिणाम अप्रत्याशित थे। पिछले एक दशक तक भाजपा जिस तरह मोदी के चेहरे और संगठनात्मक शक्ति के बल पर जीत दर्ज करती रही थी, उसमें 2024 का चुनाव परिणाम झटका देने वाला था। देखा जाये तो मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में तीसरा कार्यकाल गठबंधन सरकार की मजबूरी के साथ शुरू हुआ। ऐसे माहौल में संघ का सहारा भाजपा के लिए स्वाभाविक था। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में यह धारणा बनी थी कि भाजपा ने चुनावी रणनीति और प्रचार की ताकत से संघ पर निर्भरता कम कर दी है। लेकिन 2024 के चुनाव के बाद तस्वीर बदल गई। संघ के सक्रिय सहयोग और भागवत के आशीर्वाद से भाजपा ने महाराष्ट्र, दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों में जीत हासिल की। इन चुनाव परिणामों ने यह संदेश दिया कि संघ के संगठनात्मक नेटवर्क, जमीनी कार्यकर्ताओं और सामाजिक पहुंच के बिना भाजपा की जीत अधूरी है।

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मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी की हाल की नजदीकियों को इसी संदर्भ में समझना चाहिए। प्रधानमंत्री का संघ प्रमुख की खुलकर तारीफ करना और उनके मार्गदर्शन को राष्ट्रहित से जोड़ना यह बताता है कि भाजपा अब फिर से अपनी जड़ों की ओर लौट रही है। वहीं, भागवत का प्रधानमंत्री आवास पर जाना यह संकेत देता है कि संघ भी इस समय भाजपा के भीतर शक्ति संतुलन बनाने और उसे स्थिरता प्रदान करने में सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है।

राजनीतिक दृष्टि से यह घटनाक्रम कई संकेत देता है। जैसे केवल मोदी के नेतृत्व और भाजपा की चुनावी मशीनरी से जीत अब सुनिश्चित नहीं है। चुनावी राजनीति में विचारधारा, संगठनात्मक अनुशासन और सामाजिक नेटवर्क की गहराई का कोई विकल्प नहीं है। भाजपा और संघ दोनों को अब यह अहसास है कि एक-दूसरे के बिना उनकी शक्ति अधूरी है। साथ ही आने वाले विधानसभा चुनावों और 2029 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए भाजपा को संघ की जमीनी ताकत और वैचारिक छवि दोनों की आवश्यकता होगी।

देखा जाये तो भाजपा की 2024 की असफलता और उसके बाद की राजनीतिक परिस्थितियों ने साफ कर दिया है कि सत्ता की डगर पर अकेले चलने का दावा अब टिकाऊ नहीं है। संघ की शरण में लौटकर भाजपा ने एक तरह से अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने का फैसला किया है। महाराष्ट्र, दिल्ली और हरियाणा की जीतें यह संदेश देती हैं कि जब संघ-भाजपा एक साथ चलते हैं, तब उनकी राजनीतिक ताकत कई गुना बढ़ जाती है।

आने वाले समय में यह देखना रोचक होगा कि संघ इस साझेदारी को किस तरह संतुलित करता है और भाजपा किस हद तक अपनी राजनीतिक रणनीतियों में संघ की सलाह और आशीर्वाद को स्थान देती है। इतना तो निश्चित है कि आज की तारीख में भाजपा की राजनीति फिर से उसी पुराने सूत्र पर लौट आई है– संघ ही शक्ति का आधार है।

जहां तक मोहन भागवत के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लिखे गये आलेख की बात है तो आपको बता दें कि प्रधानमंत्री ने लिखा है कि 11 सितम्बर का दिन इतिहास में विशेष महत्व रखता है। यह वही तिथि है जब 1893 में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में अपने ओजस्वी शब्दों – “Sisters and Brothers of America” – से भारत की आध्यात्मिक धारा और सार्वभौमिक भाईचारे की अवधारणा को विश्वपटल पर स्थापित किया। यही दिन 2001 में आतंकवाद की विभीषिका का साक्षी भी बना, जब मानवता पर 9/11 का हमला हुआ। एक ओर यह दिन वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देता है, तो दूसरी ओर यह दिखाता है कि चरमपंथ और हिंसा किस प्रकार सभ्यता को चुनौती देते हैं। प्रधानमंत्री ने लिखा है कि इसी तिथि पर एक और प्रसंग उल्लेखनीय है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का जन्मदिन है। जब संघ अपनी शताब्दी के वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तब उनका 75वाँ जन्मदिन हमें उनके योगदान और नेतृत्व की भूमिका पर विचार करने का अवसर देता है।

प्रधानमंत्री ने लिखा है कि मधुकरराव भागवत के सुपुत्र मोहन भागवत ने अपने जीवन का आरंभ उसी वातावरण में किया, जहाँ राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की प्रेरणा सहज ही मिलती थी। 1970 के दशक में प्रचारक बने मोहनराव ने आपातकाल के कठिन समय में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हेतु संघर्ष किया। ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में कार्य करते हुए उन्होंने समाज की गहराई को समझा और उसकी पीड़ा को अनुभव किया। यही अनुभव आगे चलकर उनके नेतृत्व का आधार बने।

प्रधानमंत्री मोदी ने लिखा है कि भागवत जी का नेतृत्व केवल संघ के भीतर सीमित नहीं रहा। उन्होंने संगठनात्मक परम्पराओं को बनाए रखते हुए समय की मांग के अनुसार परिवर्तन किए। गणवेश में बदलाव हो या शिक्षा वर्गों में सुधार, उनका दृष्टिकोण हमेशा व्यावहारिक और भविष्यदृष्टा रहा। सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्होंने युवाओं के साथ जीवंत संवाद बनाए रखा, जिससे संघ आज के डिजिटल युग में भी प्रासंगिक और सक्रिय बना हुआ है।

प्रधानमंत्री ने लिखा है कि कोविड-19 महामारी के समय उनका मार्गदर्शन विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। उन्होंने तकनीक का उपयोग बढ़ाने और सेवा कार्यों को नई ऊर्जा देने की प्रेरणा दी। इसी प्रकार उनके ‘पंच परिवर्तन’ – सामाजिक समरसता, पारिवारिक मूल्य, पर्यावरण चेतना, राष्ट्रीय आत्मबोध और नागरिक कर्तव्य – समाज को नई दिशा देने वाले स्पष्ट सूत्र हैं। यही वे आधार हैं जिन पर एक भारत श्रेष्ठ भारत की कल्पना साकार हो सकती है।

प्रधानमंत्री ने लिखा है कि भागवत जी की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सरलता और श्रवणशीलता। वह विचार सुनते हैं, संवाद करते हैं और फिर निर्णय लेते हैं। यही गुण उन्हें युवाओं, बुद्धिजीवियों और समाज के विविध वर्गों से जोड़ता है। उनकी शैली आदेशात्मक नहीं, बल्कि प्रेरणादायी है। यही कारण है कि स्वयंसेवक सेवा, समरसता और राष्ट्रप्रेम के कार्यों में निरंतर सक्रिय रहते हैं।

प्रधानमंत्री ने लिखा है कि आज भारत अमृतकाल की ओर अग्रसर है। आर्थिक शक्ति, तकनीकी प्रगति और वैश्विक प्रतिष्ठा के इस दौर में हमें ऐसे नेतृत्वकर्ताओं की आवश्यकता है, जो समाज को सही दिशा दिखा सकें। मोहन भागवत का योगदान इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण है। वह परम्परा और आधुनिकता, आदर्श और व्यावहारिकता, संगठन और समाज– इन सबके बीच संतुलन साधते हैं।

बहरहाल, 11 सितम्बर का दिन हमें स्वामी विवेकानन्द की सार्वभौमिक दृष्टि और मोहन भागवत के राष्ट्रनिष्ठ नेतृत्व– दोनों की याद दिलाता है। एक ने विश्व को भारत की आत्मा से परिचित कराया, दूसरे आज उस आत्मा को संगठन और समाज में सशक्त कर रहे हैं। मोहन भागवत न केवल संघ के सरसंघचालक हैं, बल्कि भारतीय समाज को सही दिशा देने वाले प्रेरक भी हैं। भारत की सांस्कृतिक जड़ों को संभालते हुए और भविष्य की चुनौतियों के अनुरूप समाज को तैयार करना, यही उनका सबसे बड़ा योगदान है। इसीलिए कहा जा सकता है कि 75 वर्ष के मोहन भागवत आज वसुधैव कुटुम्बकम् की जीवंत प्रतिमूर्ति हैं, और राष्ट्र की सामूहिक चेतना को नई ऊर्जा देने वाले मार्गदर्शक भी।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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