आम जन के बीच भूमिका तलाशे राजभाषा विभाग

संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के तौर पर भले ही स्वीकार कर लिया था, लेकिन राजभाषा के प्रतिष्ठापन और कार्यान्वयन को लेकर अलग से विभाग की स्थापना आजादी के फौरन बाद नहीं हो पाई। राजभाषा विभाग की स्थापना आजादी के 28 वर्ष बाद 26 जून 1975 को हुई थी।
इसे संयोग कहें या कुछ और, राजभाषा हिंदी को प्रतिष्ठापित करने के लिए गठित भारत सरकार का राजभाषा विभाग जिस समय अपनी पचासवीं सालगिरह मना रहा है, ठीक उसी वक्त महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत कई राज्यों में राजभाषा को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सवाल तो उस महाराष्ट्र में भी उठ रहा है, जहां के लोकमान्य तिलक, काका कालेलकर और विनोबा भावे जैसी विभूतियों ने हिंदी में राष्ट्रीय एकता के सूत्र दिखे थे। सदा की तरह तमिलनाडु ने हिंदी विरोध में राजनीतिक मोर्चा खोल ही रखा है।
संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के तौर पर भले ही स्वीकार कर लिया था, लेकिन राजभाषा के प्रतिष्ठापन और कार्यान्वयन को लेकर अलग से विभाग की स्थापना आजादी के फौरन बाद नहीं हो पाई। राजभाषा विभाग की स्थापना आजादी के 28 वर्ष बाद 26 जून 1975 को हुई थी। इसे संयोग ही कहेंगे कि जिस दिन स्वाधीन भारत के इतिहास के काले अध्याय यानी आपातकाल की घोषणा हुई, ठीक उसके अगले दिन राजभाषा विभाग अस्तित्व में आया। वैसे यह भी ध्यान देने की बात है कि संभवत: भारत अकेला देश है, जहां राजभाषा के लिए अलग से विभाग है। राजभाषा के कार्यान्वयन के लिए अधिकारी हैं। दुनिया में ऐसा उदाहरण किसी दूसरे देश में नहीं मिलता। पचास साल की यात्रा पूरी कर चुके राजभाषा विभाग की स्थापना का बुनियादी उद्देश्य राजभाषा संबंधी संवैधानिक और कानूनी नियमों का पालन सुनिश्चित कराना और संघ के सरकारी काम-काज में हिंदी का प्रयोग बढ़ाना रहा।
इसे भी पढ़ें: लाल आतंक के गढ़ में लहरा रहा तिरंगा
किसी विभाग की पचास साल की यात्रा कोई कम नहीं होती। यह ठीक है कि इस दौरान हिंदी ने लंबा सफर तय किया है। संचार के माध्यमों, बाजार और सिनेमा ने हिंदी को दुनिया के उस कोने तक पहुंचा दिया है, जहां सरकारी सहयोग से उसके पहुंचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसके बावजूद हाल के दिनों में देखा जा रहा है कि नए सिरे से हिंदी के विरोध में आवाजें उठ रही हैं। हिंदी विरोधी सुर उन राज्यों में भी दिख रहे हैं, जहां कभी हिंदी के समर्थन में आंदोलन हुए, हिंदी ने जहां रचनात्मक उपलब्धियां हासिल कीं। महाराष्ट्र ऐसा ही राज्य है। लेकिन नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत हिंदी को रखने के चलते इस राज्य में विरोध तेज हो गया। इस विरोध की आंच बैंकों और केंद्र सरकार के दूसरे दफ्तरों तक पहुंची, जहां हिंदीभाषी कर्मचारी और अधिकारी कार्यरत हैं। स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने उन पर मराठी बोलने का दबाव बढ़ाया। सोशल मीडिया के जरिए दुनिया ने देखा कि मराठी नहीं बोल पाने के कारण बैंकों और दूसरे संस्थानों के कर्मचारियों से किस तरह बदसलूकी हुई। महाराष्ट्र से सटे कर्नाटक राज्य में भी ऐसा नजर आया। कन्नड़ ना बोल पाने के कारण एक बैंक अधिकारी के साथ स्थानीय समूह बदतमीजी करते नजर आए। सॉफ्टवेयर क्रांति का केंद्र बेंगलुरू में हिंदी बोलने के कारण उत्तर भारतीयों को ऑटो और बाइक चालकों की बदसलूकी का शिकार होना पड़ा है।
आजादी के सतहत्तर साल बीतने और राजभाषा विभाग के गठन के पचास साल होने के बावजूद किसी गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदीभाषियों के साथ बदसलूकी होने के पीछे कहीं न कहीं राजभाषा विभाग की नाकामी भी है। राजभाषा विभाग ने बेशक सरकारी कार्यालयों में हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किया है, लेकिन हिंदी के प्रति सकारात्मक माहौल बनाने में उसकी भूमिका कम ही दिखती है। बेशक राजभाषा विभाग के लिखित उद्देश्य में इसका जिक्र नहीं है। लेकिन राजभाषा विभाग को इस दिशा में भी काम करना होना। उसे सोचना होगा कि गैर हिंदीभाषी राज्यों के मन में हिंदी को लेकर जो गांठ बन रही है, उसे किस तरह दूर किया जा सकता है। राजभाषा विभाग को देखना होगा कि हिंदी के नजदीक दूसरे राज्यों के लोग कैसे आ सकते हैं।
अपनी प्रमुख पुस्तिका हिंद स्वराज में गांधीजी ने हिंदी को ही स्वाधीन भारत की भाषा माना था। उन्हें पता था कि तमिलनाडु जैसे गैर हिंदीभाषी राज्य इसका विरोध कर सकते हैं। इसलिए 1918 के इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन के दफ्तर में हिंदी के पांच सेवकों को दक्षिणी राज्य में प्रचार के लिए भेजा था, जिनमें एक उनके बेटे देवदास गांधी भी थे। उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की। इसके बाद केरल हिदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार परिषद जैसी कई संस्थाएं बनी और हिदी को सहज स्वीकार्य बनाने की दिशा में काम करने लगीं। यह बिडंबना ही कहा जाएगा कि राष्ट्रभाषा प्रचार परिषद का मुख्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में है और महाराष्ट्र में ही हिंदी को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है।
राजभाषा विभाग के कई उद्देश्य हैं, जिनमें राज्य विशेष के उच्च न्यायालय की कार्यवाही में अंग्रेजी भाषा से भिन्न किसी अन्य भाषा का सीमित प्रयोग शुरू कराने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी पाना, केंद्रीय कर्मचारियों के लिए हिंदी शिक्षण योजना चलाना, जरूरी पत्र-पत्रिकाओं और संबंधित साहित्य का प्रकाशन आदि है। राजभाषा विभाग ने इन मोर्चों पर काम किया भी है। लेकिन राजभाषा विभाग को इससे इतर भी भूमिका तलाशनी होगी। केंद्रीय कर्मचारियों को सरकारी कामकाज में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के साथ ही आम लोगों की हिंदी के प्रति बनी नकारात्मक धारणा को तोड़ने की दिशा में भी राजभाषा विभाग से प्रयास की उम्मीद की जाती है। चूंकि हिंदीप्रेमी अमित शाह गृहमंत्री हैं, लिहाजा राजभाषा विभाग को अपनी इस भूमिका के लिए शासन से जरूरी सहयोग मिल सकता है। अपनी पचासवीं सालगिरह पर राजभाषा विभाग को इस दिशा में सोचना होगा।
-उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं
अन्य न्यूज़












