राष्ट्रवादियों को विविधता के सम्मान का पाठ पढ़ा गये प्रणब दा

pranab mukherjee at rss headquarter

यह सही है कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में से रहे हैं लेकिन जब भारत के राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए वह उम्मीदवार बने तो वह किसी एक राजनीतिक दल के नहीं रह गये थे।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की आरएसएस मुख्यालय की यात्रा को लेकर जो विवाद पैदा किया गया उसने हमारे लोकतांत्रिक और राजनीतिक विकास को पीछे धकेलने का काम किया। यही नहीं जिस तरह से कांग्रेस ने इस यात्रा को लेकर विवाद खड़ा किया उससे जाहिर हुआ कि वह संघ फोबिया से ग्रस्त है। यह सही है कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में से रहे हैं लेकिन जब भारत के राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए वह उम्मीदवार बने तभी से वह किसी एक राजनीतिक दल के नहीं रह गये थे। यही कारण था कि उनकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को अपार समर्थन मिला था। जो व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर रह चुका हो उससे अब भी यह अपेक्षा करना कि वह किसी पार्टी लाइन का अनुसरण करेगा बिलकुल अनुचित है। 

मुखर्जी ने आखिर कहा क्या ? 

'राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशप्रेम’’ के बारे में आरएसएस मुख्यालय में अपने विचार साझा करते हुए मुखर्जी ने कहा कि भारत की आत्मा ‘‘बहुलतावाद एवं सहिष्णुता’’ में बसती है। मुखर्जी ने कहा कि भारत में हम अपनी ताकत सहिष्णुता से प्राप्त करते हैं और बहुलवाद का सम्मान करते हैं। हम अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं। उन्होंने प्राचीन भारत से लेकर देश के स्वतंत्रता आंदोलत तक के इतिहास का उल्लेख करते हुए कहा कि हमारा राष्ट्रवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:..’ जैसे विचारों पर आधारित है। उन्होंने कहा कि हमारे राष्ट्रवाद में विभिन्न विचारों का सम्मिलन हुआ है। प्रणब दा ने कहा कि घृणा और असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीयता कमजोर होती है। 

मुखर्जी ने राष्ट्र की अवधारणा को लेकर सुरेन्द्र नाथ बनर्जी तथा बाल गंगाधर तिलक के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि हमारा राष्ट्रवाद किसी क्षेत्र, भाषा या धर्म विशेष के साथ बंधा हुआ नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारे लिए लोकतंत्र सबसे महत्वपूर्ण मार्गदशर्क है। उन्होंने कहा कि हमारे राष्ट्रवाद का प्रवाह संविधान से होता है। ‘‘भारत की आत्मा बहुलतावाद एवं सहिष्णुता में बसती है।’’ पूर्व राष्ट्रपति ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने ही लोगों की प्रसन्नता एवं खुशहाली को राजा की खुशहाली माना था। पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि हमें अपने सार्वजनिक विमर्श को हिंसा से मुक्त करना होगा। साथ ही उन्होंने कहा कि एक राष्ट्र के रूप में हमें शांति, सौहार्द्र और प्रसन्नता की ओर बढ़ना होगा। मुखर्जी ने कहा कि हमारे राष्ट्र को धर्म, हठधर्मिता या असहिष्णुता के माध्यम से परिभाषित करने का कोई भी प्रयास केवल हमारे अस्तित्व को ही कमजोर करेगा। 

डॉ. हेडगेवार को बताया भारत माता का महान सपूत 

अपने लगभग बीस मिनट के भाषण में प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस का सीधे एक बार भी नाम नहीं लिया लेकिन संघ मुख्यालय में प्रार्थना के समय खड़े रह कर और संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के घर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देकर संघ को खुश कर दिया। उल्लेखनीय है कि डॉ. हेडगेवार के घर जाने का निर्णय खुद प्रणब मुखर्जी ने लिया था और उन्होंने वहां विजिटर बुक में लिखा- 'मैं यहाँ भारत माता के महान सपूत को सम्मान और श्रद्धांजलि देने आया हूँ।' 

संघ प्रमुख ने कहा विविधता का सम्मान करते हैं  

संघ के इस कार्यक्रम में प्रणब मुखर्जी की उपस्थिति को लेकर ही चर्चाएं ज्यादा रहीं जिससे इस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया कि कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सरसंघचाक मोहन भागवत ने क्या कहा है। भागवत ने भी उसी राष्ट्रवाद की बात की जो प्रणब मुखर्जी सिखाने आये थे। भागवत ने जो कुछ कहा उसमें हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद में कहीं अंतर नहीं दिखता।  

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यक्रम में शामिल होने को लेकर विवाद के बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि यह ‘‘निरर्थक’’ बहस है और उनके संगठन के लिए कोई भी बाहरी नहीं है। भागवत ने कहा कि कार्यक्रम के बाद मुखर्जी वही रहेंगे जो वह हैं और संघ भी वही रहेगा जो वह है। उन्होंने कहा कि हम भारतीय नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करते। हमारे लिए कोई भी भारतीय नागरिक बाहरी नहीं है। आरएसएस विविधता में एकता में विश्वास करता है। आरएसएस प्रमुख ने संघ कार्यकर्ताओं को इसको लेकर भी आगाह किया कि विनम्रता के अभाव में सत्ता हानिकारक बन सकती है और नैतिकता के बिना सत्ता अनियंत्रित हो जाती है। 

भागवत ने कहा कि अपने कार्यक्रमों में प्रमुख व्यक्तियों को आमंत्रित करना आरएसएस की परंपरा रही है और मुखर्जी के दौरे को लेकर बहस की कोई जरूरत नहीं है। भागवत ने सही कहा कि देश की सेवा करने के लिए अलग अलग दृष्टिकोण या अलग अलग तरीके हो सकते हैं। हालांकि हम सभी भारत माता के बच्चे हैं। उन्होंने इसका भी उल्लेख किया कि आरएसएस संस्थापक ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के आंदोलनों सहित विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा लिया। भागवत ने कहा कि उनका संगठन पूरे समाज को एकजुट करना चाहता है और उसके लिए कोई भी बाहरी नहीं है। 

मुखर्जी के भाषण पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया 

मुखर्जी के भाषण पर कांग्रेस या भाजपा की प्रतिक्रिया क्या रहने वाली है इसका अंदाजा तो सभी को पहले से था लेकिन वामपंथी दलों के रुख का सभी को इंतजार था। माकपा ने कहा है कि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी यदि संघ को उसका इतिहास याद दिलाते तो अच्छा होता जबकि भाकपा ने बहुलतावादी और समग्र समाज को असल भारत के रूप में उल्लेखित करने के लिए उनके भाषण की सराहना की है। 

कांग्रेस ने संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जमकर निशाना साधा और कहा कि मुखर्जी ने संघ को 'सच का आईना' दिखाया एवं नरेंद्र मोदी सरकार को 'राजधर्म' की याद दिलाई। पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, 'पूर्व राष्ट्रपति का आरएसएस मुख्यालय का दौरा बड़ी चर्चा का विषय बन गया था। देश की विविधता और बहुलता में विश्वास करने वाले चिंता व्यक्त कर रहे थे। लेकिन मुखर्जी ने आरएसएस को सच का आईना दिखाया।' 

वहीं आरएसएस ने कहा है कि यहां संघ मुख्यालय में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में देश के गौरवशाली इतिहास की याद दिलायी और उन्होंने समावेशी, बहुलतावाद एवं विविधता में एकता को ‘भारत की आत्मा’ बताया। संघ ने कहा, 'मुखर्जी के भाषण ने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास की याद दिलायी... देश की 5,000 साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत की याद दिलायी। हमारी राज्य प्रणाली भले ही बदल सकती है लेकिन हमारे मूल्य वही रहेंगे। उन्होंने समावेशी, बहुलवाद और विविधता में एकता को भारत की आत्मा बताया।’’

प्रणब मुखर्जी पर सवाल उठाना ही गलत था 

प्रणब दा 70 के दशक से राजनीति में हैं और कम से कम तीन चार दशक तो ऐसे रहे हैं जब वह केंद्रीय भूमिका में रहे। उन्हें सर्वाधिक प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का अनुभव है। वह साउथ ब्लॉक और नॉर्थ ब्लॉक स्थित देश के प्रमुख मंत्रालयों में मंत्री रहे, लोकसभा में सदन के नेता रहे, राज्यसभा में वर्षों लंबा उनका कार्यकाल रहा। देश के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन्होंने नयी मिसालें कायम कीं। क्या ऐसे विद्वान और भारतीय राजनीति और उसके इतिहास की समझ रखने वाले व्यक्ति को बोलने का हक सिर्फ किसी एक पार्टी के मंच से है? क्या देश का पूर्व राष्ट्रपति किसी पार्टी से पूछ कर किसी कार्यक्रम में जायेगा? क्या देश के पूर्व राष्ट्रपति को कुछ बोलने से पहले किसी पार्टी से पूछना होगा कि वह क्या बोलें? 

कांग्रेस ने नासमझी दिखाई 

कांग्रेस को यह समझना चाहिए था कि जब व्यक्ति सक्रिय राजनीति में होता है तो उसके विचार कुछ और होते हैं लेकिन संवैधानिक पद पर रहने या उसके बाद वह दल का नहीं देश का हो जाता है और उसका प्रयास रहता है कि उसके विचार देश को एकजुट रखें। उदाहरण के लिए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम का नाम लिया जा सकता है जो राष्ट्रपति पद पर कार्यकाल पूरा करने के बाद विभिन्न शिक्षाप्रद कार्यक्रमों में और संगठनों के मंचों पर जाते रहे। वह तो डॉ. कलाम किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे वरना उनको लेकर भी विवाद पैदा किया जाता। डॉ. कलाम ने कई ऐसे कार्यक्रमों में भाग लिया था जोकि संघ या उससे जुड़े संगठनों ने आयोजित किये थे। 

कांग्रेस नेताओं के दोहरे चेहरे उजागर 

इस पूरे विवाद को खड़ा करने वाली कांग्रेस का दोहरा चेहरा सबके सामने आ गया है। प्रणब मुखर्जी के संघ मुख्यालय के दौरे से पार्टी नेता संजय झा, अभिषेक मनु सिंघवी और अहमद पटेल आदि ने ट्वीट करके कहा कि प्रणब दा से ऐसा करने की उम्मीद नहीं थी। वरिष्ठ नेता आंनद शर्मा ने तो यहां तक कह दिया कि जो तसवीरें नागपुर से आ रही हैं वह विचलित करने वाली हैं। लेकिन प्रणब मुखर्जी के भाषण के बाद इन नेताओं ने एकाएक रुख बदल लिया और प्रणब मुखर्जी की तारीफ करने लगे। 

क्या मुखर्जी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं?

कांग्रेस आरोप तो भाजपा पर लगाती है कि उसके राज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और एक ही व्यक्ति की बात सुनी जाती है। लेकिन कांग्रेस को यहां सवाल खुद से पूछना चाहिए कि क्या देश के पूर्व राष्ट्रपति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है? क्या आरएसएस ने जिस तरह दूसरे के विचारों को सुनने की उदारता दिखाई है वैसा उदार रवैया कांग्रेस भी दिखा सकती है। संघ मुख्यालय में ऐसे व्यक्ति को बुलाया गया जिसका आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान था क्या कांग्रेस भी ऐसे किसी व्यक्ति को अपने मुख्यालय में भाषण देने के लिए आमंत्रित कर सकती है जिसने कांग्रेस को किसी तरह का राजनीतिक नुकसान पहुँचाया हो? असहिष्णुता की बात करने वाली कांग्रेस और कथित बुद्धिजीवियों को यह सोचना चाहिए कि असली असहिष्णुता तो तब थी जब मुखर्जी की आलोचना की जा रही थी।  

मनमोहन से बहुत आगे निकल गये प्रणब मुखर्जी 

यह साफ हो गया है कि कांग्रेस यही चाहती है कि उसके सभी नेता एक ही लाइन में चलें और जैसा आलाकमान चाहता है वैसा ही करें। लेकिन प्रणब मुखर्जी कांग्रेस में रहते हुए भी आलाकमान को विरोधी तेवर दिखा चुके हैं और अब संघ मुख्यालय जाकर उन्होंने साबित कर दिया है कि वह कांग्रेस में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से कहीं योग्य थे। कांग्रेस यह जानती थी कि मनमोहन हर कहना मानेंगे लेकिन प्रणब मुखर्जी हर कहना शायद ही मानें। अब प्रणब ने ऐसा काम कर दिखाया है कि वह राजनीतिक रूप से मनमोहन सिंह से बहुत आगे निकल गये हैं। उन्होंने दिखा दिया है कि स्वतंत्र सोच भी कोई चीज होती है। 

सबसे बड़ा सवाल आखिर संघ का विरोध क्यों? 

आरएसएस जिसके लिए राष्ट्र प्रथम है और जो देश के ग्रामीण अंचलों में सेवा कार्य संचालित करता है उसके साथ यह छुआछूत जैसा व्यवहार क्यों? अपने इसी सेवा कार्य की बदौलत संघ की ताकत बढ़ती जा रही है जबकि उसके विरोधी जनता की अदालत में खारिज होते जा रहे हैं। संघ कोई आतंकवादी या उग्रवादी संगठन तो है नहीं कि उसके मुख्यालय जाना कोई अपराध है। जब आप कहते हैं कि वार्ता से ही मसले हल किये जा सकते हैं तो संघ से अगर कोई विवाद है भी तो उससे बात करके देखें। वह दृश्य सभी को याद हैं कि हुर्रियत जैसे वो संगठन जो हमेशा पाकिस्तानपरस्ती करते रहते हैं उनसे बात करने को कैसे कुछ राजनीतिक दलों के नेता हुर्रियत प्रमुख के घर गये थे और इन नेताओं को घर के दरवाजे से ही लौटा दिया गया था। केंद्र में चाहे जिस भी दल की सरकारें रहीं हों उसने पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठनों और नक्सलियों से वार्ता की पेशकशें की हैं। आप उग्रवादियों से वार्ता करेंगे लेकिन राष्ट्रवादियों से नहीं, यह कैसा दोहरा चरित्र है? 

संघ के खिलाफ साजिशें होती रही हैं 

संघ को विवादों में आखिर लाया कौन इस पर भी ध्यान देना चाहिए। बिना किसी प्रमाण के संघ को गांधीजी की हत्यारा बता देना और संघ पर विभाजन के बीज बोने का आरोप लगाना, हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ना और उसके साथ संघ को जोड़ना यह सब कांग्रेस और कांग्रेसी सरकारों की साजिशें रही हैं क्योंकि संघ की जमीनी ताकत से सब वाकिफ हैं। खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी संघ की मानहानि मामले का अदालत में सामना कर रहे हैं।  

बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी से अपने पिता को पहचानने में चूक हो गयी। प्रणब से उन्होंने अब भी कांग्रेस नेता जैसा व्यवहार करने की जो अपेक्षा की थी वह गलत थी। प्रणब दा पिता नहीं पूर्व राष्ट्रपति की भूमिका में थे। अपनी बेटी के राजनीतिक हितों की परवाह नहीं करते हुए उन्होंने देश के युवाओं को संघ के मंच से भारतीय राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने का निर्णय कर नया इतिहास रच दिया है। 

-नीरज कुमार दुबे

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