मोदी के आने के बाद से लोग शासन में हिंदुत्व की झलक चाहते हैं

Since Modi''s arrival, people want glimpse of Hindutva in government

हिंदुओं में यह भावना बढ़ रही है, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से कि वे बहुमत में हैं इसलिए देश में ऐसी व्यवस्था हो जिसमें हिंदुत्व की झलक हो।

कश्मीर के नेता फारूख अब्दुल्ला की इस बात में थोड़ी सच्चाई है कि मोहम्मद अली जिन्ना बंटवारे के लिए जिम्मेदार नहीं थे। लेकिन फारूख गलत हैं जब वह जवाहर लाल नेहरू या सरदार पटेल को इसका दोषी बताते हैं। मैं उस काल का गवाह हूं और इस तरह घटनाओं को समझता हूं। जिन्ना हिंदु और मुसलमानों की एकता के ''राजदूत'' थे, जैसा कांग्रेस की शीर्ष नेता सरोजनी नायडू कहती हैं। लेकिन उन्हें बंटवारे की ओर धकेला गया।

यह स्पष्ट है कि चालीस के दशक की शुरूआत के आते−आते हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मतभेद इतने बढ़ गए थे कि बंटवारे जैसा कुछ जरूरी हो गया था।

बंटवारे पर अफसोस जताने वालों को मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि अंग्रेज इस उपमहाद्वीप को एक रख सकते थे, अगर वे उस समय थोड़ा और अधिकार दे देते जब 1942 में स्टैफर्ड क्रिप्स ने अपनी सीमित जिम्मेदारी के तहत भारत की जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया था। कांग्रेस पार्टी भी ऐसा कर सकती थी अगर उसने 1946 में कैबिनेट मिशन के सीमित अधिकारों वाले केंद्र के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया होता। कांग्रेस भी ऐसा कर सकती थी, अगर उसने 1946 में कैबिनेट मिशन के केंद्र को सीमित अधिकार देने के प्रस्ताव को मान लिया होता। केंद्र को दिए गए अधिकारों को छोड़ कर राज्यों को सारे अधिकार होते। जिन्ना ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया था। लेकिन अगर ज्यादा से ज्यादा काल्पनिक होता है और बुरे से बुरे रूप में अपने मन का होता है।

क्या बंटवारे ने मुसलमानों का उद्देश्य पूरा किया? मैं नहीं जानता। पकिस्तान में लोग 'बंटवारा' शब्द को टालते हैं। वे 14 अगस्त को अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के रूप में जितना नहीं, उससे ज्यादा हिंदुओं के शासन के भय से मुक्ति के रूप में मनाते हैं। मैंने अपनी यात्राओं के दौरान लोगों को कहते पाया है कि उनके लिए कम से कम ''कोई जगह'' है जहां वे ''हिंदु वर्चस्व'' और ''हिंदु आक्रामकता'' से सुरक्षित महसूस कर सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। वे तीन देशों− भारत, पकिस्तान और बांग्लादेश में बंट गए। कल्पना करें कि उनकी संख्या, उनके वोट का संयुक्त उपमहाद्वीप में कितना असर होता है। वे कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा होते।

इसका बुरा पक्ष यह है कि विभाजन की रेखा धर्म के आधार पर खींची गई। दोनों तरफ दुश्मनी तथा हथियार मौजूद ही रहने वाले हैं। दोनों देश 1965 तथा 1971 में, दो युद्ध लड़ चुके हैं और हर समय गुर्राते रहते हैं, लोगों को चैन से रहने नहीं देते।

मुझे नहीं लगता कि दोनों देश के एक होने की संभावना है। लेकिन मुझे भरोसा है कि भय और अविश्वास के कारण सीमा पर बन गई दीवारें एक दिन गिर जाएंगी और उपमहाद्वीप के लोग बिना अपनी पहचान खोए, अपने साझा हितों के लिए साथ मिल कर काम करेंगे।

मैं यह विश्वास अपने साथ उस समय से लिए हुए हूं जब 70 साल पहले मैंने अपना शहर, सियालकोट छोड़ा था। और, मैंने इसे नफरत और दुश्मनी के उस समंदर में तिनके की तरह पकड़ रखा है जिसने उपमहाद्वीप को लंबे समय से निगल रखा है।

कायदे−आजम मोहम्मद अली जिन्ना लॉ कालेज आए थे जहां मैं अंतिम वर्ष का छात्र था। उन्होंने अपनी हर बार की थीम को छुआ कि हिंदु और मुसलमान अलग राष्ट्र हैं और अलग देशों में रह कर दोनों खुशहाल तथा सुरक्षित रहेंगे। एक देश में हिंदु और दूसरे में मुसलमान बहुमत में होंगे।

मुझे नहीं मालूम कि उन्हें क्यों लगा कि धर्म के आधार पर बने दो राज्य खुशी से रहेंगे। मैंने सवाल भी किया था कि उन्हें कैसे यह विश्वास है कि जब अंग्रेज चले जाएंगे तो दो समुदाय एक−दूसरे से नहीं लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि जर्मनी और फ्रांस ने कई लड़ाइयां लड़ीं, लेकिन आज वे दोनों अच्छे दोस्त हैं।

यही भारत और पाकिस्तान के साथ होगा। लेकिन वह गलत साबित हुए।

दो समुदायों के बीच अविश्वास के कारण हुए जबरिया विस्थापन ने लोगों को घर−बार और चूल्हा−चक्की छोड़ने को मजबूर किया। लेकिन उन्होंने इस संकल्प के साथ अपना घर छोड़ा था कि बंटवारे के बाद के नतीजों के स्थिर होने के बाद वे वापस आएंगे।

हिंदुओं और सिखों ने पश्चिम पंजाब छोड़ा और मुसलमानों ने पूर्वी पंजाब। इस प्रक्रिया में दस लाख लोगों ने अपनी जानें गंवाई। मैंने लंदन में लार्ड रेडक्लिफ, जिन्होंने सीमा रेखा खींची, से इस बारे में जानने की कोशिश की थी। वह विभाजन के बारे में बात नहीं करना चाहते थे। मुझे बताया गया कि उन्होंने इस काम के लिए तय की हुई फीस, चालीस हजार रुपया लेने से मना कर दिया था। उन्होंने सोचा कि जो कुछ हुआ वह उनकी आत्मा पर बोझ था और हत्याओं के लिए वह खुद को माफ नहीं कर सकते।

सदियों से साथ रहने के बावजूद लोगों ने एक−दूसरे को क्यों मारा? इससे निरर्थक कुछ हो नहीं सकता कि यह निश्चित किया जाए कि बंटवारे के लिए कौन जिम्मेदार है। सत्तर साल पहले हुए घटनाक्रम को लेकर ऐसा करना महज एक कठिन अकादमिक कार्य होगा। पाकिस्तान के संस्थापक लगातार दोहराते रहे कि हिंदु और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और यह दोनों को दूर करता गया।

महात्मा गांधी ने इसका जवाब जरूर दिया कि वह इस्लाम को अपना लेते हैं तो उनका अलग राष्ट्र हो जाएगा और वह हिंदु धर्म में वापस आ जाएं तो फिर क्या होगा।

सबसे खराब बात यह हुई कि पाकिस्तान को मुस्लिम देश के रूप में जाना जाने लगा। भारत ने सेकुलरिज्म अपना लिया, लेकिन हिंदुत्व को काबू में नहीं किया गया। दुर्भाग्य से, हिंदुओं में यह भावना बढ़ रही है, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से कि वे बहुमत में हैं इसलिए देश में ऐसी व्यवस्था हो जिसमें हिंदुत्व की झलक हो। लोग आजादी के आंदोलन के सेकुलर चरित्र और आजादी के बाद के पांच दशकों के शासन को याद कर सकते हैं। लेकिन आज आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत चीजें तय करते हैं।

यह सेकुलर संविधान और इसके तहत बने कानूनों के बाद भी हो रहा है। फारूख अब्दुल्ला को नेहरू और पटेल को दोष नहीं देना चाहिए जिन्होंने देश चलाने का काम नई पीढी को सौंप दिया जो वे और हम, मुसलमान और हिंदु के माहौल में बड़े हो रहे हैं।

-कुलदीप नायर

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