Special on the anniversary of World War II: ताकि सोच के केंद्र में रहे मानवता

दूसरे विश्व युद्ध ने दुनिया पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसके बाद दुनिया की कैसी सोच विकसित हुई, यह एक जटिल सवाल है। इसके उत्तर समझने के लिए कई पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। युद्ध के बाद की दुनिया में, लोगों ने एक और विश्व युद्ध से बचने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की।
जिस समय दूसरे विश्व युद्ध की 80वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, उस वक्त एशिया और यूरोप के कुछ देशों के बीच संघर्ष का नया दौर जारी था। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद बने संयुक्त राष्ट्र संघ से उम्मीद की जा रही थी कि वह आने वाले दिनों में दुनिया में शांति और सौहार्द स्थापित करने की कोशिश करेगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। कुछ दिनों बाद संयुक्त राष्ट्र संघ भी अपनी स्थापना की 80वीं सालगिरह मनाएगा।
दुनियाभर में इन दिनों राष्ट्रवाद की आंधी चल रही है। तकरीबन हर देश में अपने राष्ट्र से मोहब्बत और उसके लिए न्योछावर होने का दौर चल रहा है। वैचारिकी चाहे जो भी हो, हर राष्ट्र का नागरिक दुनिया में अपने देश का मान और ज्यादा ऊंचा करने और रखने की चाहत रखता है। इस राष्ट्रवादी सोच का हर देश में अपने-अपने हिसाब से स्वागत हो रहा है। लेकिन यह भी सच है कि इसके समानांतर हर राष्ट्र को अपने हिसाब से कोई न कोई कीमत चुकानी पड़ रही है। इसकी वजह बना है, खुद को आगे रखने की होड़। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद सोचा गया था कि पूरी दुनिया की सोच का आधार मानवीय होगा, दुनिया के हर इलाके का मनुष्य दूसरे इलाके के मनुष्य के प्रति मानवीय लगाव रखेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा कम ही होता है।
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कोरोना की महामारी ने दुनिया को एक मौका जरूर दिया था कि वह मानवीय मूल्यों की तरफ झांके। दुनिया ने इस ओर झांका भी। इसका असर भी दिखा कि दुनिया के कमजोर देशों की ओर ताकतवर देशों की तरफ से दवाओं और खाद्यान्न की खेप पहुंची। मनुष्य की भूख मिटाने और मानवता की सेवा करने की ललक भी दिखी। प्राकृतिक जीवन की ओर भी लौटने का संदेश मिला। लोगों ने इस संदेश को ग्रहण भी किया। जब समूचा विश्व कोलाहल से दूर था, तब प्रकृति से दूसरे जीव जंगलों से निकल कर सड़कों पर बेखौफ दौड़ रहे थे। सड़कों पर चिड़ियां थीं, सांप थे, हिरण थे, बतखें थीं, साफ हवा थी, आसमान नीला था, पानी के दरिया साफ थे। तब भी विश्व युद्ध की समाप्ति की तरह माना गया कि प्रकृति चाहती है कि हम उसकी तरफ देखें, मानवता की रक्षा के लिए उसकी ओर जाएं। तब लगा कि दुनिया उस ओर बढ़ेगी। लेकिन जैसे ही आर्थिक गतिविधियां शुरू हुईं, एक बार फिर जिंदगी की मारामारी बढ़ी और प्रकृति, पहाड़, नदियां, मानवीय मूल्य सब पीछे छूटते चले गए। एक बार फिर दुनिया के कई हिस्सों में संघर्ष दिखने लगा। पर्यावरण दूषित होने लगा, शहरों की गलियां फिर धूल और धुएं से दमघोटूं होने लगीं। यानी जहां से हम चले थे, वहीं लौटकर एक बार फिर आ गए।
दूसरे विश्व युद्ध ने दुनिया पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसके बाद दुनिया की कैसी सोच विकसित हुई, यह एक जटिल सवाल है। इसके उत्तर समझने के लिए कई पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। युद्ध के बाद की दुनिया में, लोगों ने एक और विश्व युद्ध से बचने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की। दुनिया ने एक और वैश्विक संघर्ष को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की, जो "आने वाली पीढ़ियों को युद्ध के अभिशाप से बचाने" के लिए था। युद्ध के बाद की दुनिया ने वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति की जरूरत को महसूस किया, जिसमें चिकित्सा क्षेत्र में सफलताओं और संचार में क्रांति शामिल है। युद्ध के बाद, यूरोपीय शक्तियों द्वारा उपनिवेशों को विउपनिवेशित किया गया, जिससे एशिया, ओशिनिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में नए राष्ट्रों का उदय हुआ। दूसरे विश्व युद्ध का प्रभाव राष्ट्रीय सीमाओं से परे था। इसने दुनिया भर के देशों पर गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ा। युद्ध ने भारी विनाश, जान-माल की हानि और आबादी के विस्थापन को जन्म दिया। इसने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य को नया आकार दिया, जिससे नई महाशक्तियों का उदय हुआ। दूसरे विश्व युद्ध की अस्सीवीं सालगिरह के बाद दुनिया को एक बार फिर इन पहलुओं पर सोचना चाहिए और पूरे विश्व को मानवता के हित में काम करने, सांस्कृतिक परंपराओं को बचाने, तकनीकी क्रांति को बढ़ावा देने और आर्थिक धुरी को मानवकेंद्रित बनाने का प्रयास करना चाहिए।
- उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं
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