दीनदयाल उपाध्याय के विचार और दर्शन आज भी प्रासंगिक

Thoughts and philosophy of Deendayal Upadhyay are relevant

दीनदयाल उपाध्याय राजनेता मात्र नहीं थे, वह उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। इस रूप में उन्होंने श्रेष्ठ शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी।

दीनदयाल उपाध्याय राजनेता मात्र नहीं थे, वह उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। इस रूप में उन्होंने श्रेष्ठ शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी। उन्होंने निजी हित व सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया था। व्यक्तिगत जीवन में उनकी कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। उन्होंने अपना जीवन समाज और राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। यही बात उन्हें महान बनाती है। राजनीति में लगातार सक्रियता के बाद भी वह अध्ययन व लेखन के लिये समय निकालते थे। इसके लिये वह अपने विश्राम से समय कटौती करते थे। इसी में लोगों से मिलने जुलने और अनवरत यात्राओं का क्रम भी चलता था। आमजन के बीच रहना उन्हें अच्छा लगता था। शायद यही कारण था कि वह देश के आम व्यक्ति की समस्याओं को भलीभांति समझ चुके थे। यह विषय उनके चिंतन व अध्ययन में समाहित था। इनका वह कारगर समाधान भी प्रस्तुत करते थे।

उनका व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी है। विभिन्न रूप में उनसे प्ररेणा ली जा सकती है। समाजसेवियों व राजनीति में लगे लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं। सादगी, ईमानदारी और अध्ययनशीलता उनमें निखार ला सकती है। युवा पीढ़ी उनके जज्बे से प्रेरणा ले सकती है। लेखक उनके विचारों से प्रेरणा ले सकते हैं। लेखन वही अच्छा है, जिससे समाज का हित हो। भावी पीढ़ी को सकारात्मक दिशा मिले। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर तात्कालिक घटनाओं व विचारों का प्रभाव पड़ता है। चिंतक, मनीषी उन्हें गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। वह इस पर विचार करते हैं कि अपने देश व समाज के लिये कौन-सा मार्ग कल्याणकारी होगा। पं. दीनदयाल ने यही किया। वह भविष्य द्रष्टा थे। भविष्य की समस्याओं को भी वह देख रहे थे। उनके प्रति वे सावधान करते हैं। उन्होंने उस समय चर्चित विचारधाराओं या वाद पर गहनता से विचार किया था। संयोग से वह विश्व में शीतयुद्ध का दौर था। एक तरफ पश्चिम का उपभोगवाद था, दूसरी तरफ मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद था। समाजवाद का विचार भी अस्तित्व में था। सोशलिस्ट पार्टियां भी सक्रिय थीं। दीनदयाल उपाध्याय ने इन सब पर विचार किया।

पाश्चात चिंतन उपभोगवाद पर आधारित था। इसके केंद्र में व्यक्ति था। व्यक्ति को अपनी सुख सुविधाओं के लिये संलग्न रहने व प्रयास करते रहने का अधिकार है। इस विचार से प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब व बेरहमी से दोहन किया। भौतिक विकास हुआ। लेकिन प्रकृति खतरनाक स्तर पर जा रही है। तरह−तरह के वैश्विक सम्मेलन हो रहे हैं। खूब चर्चा होती है, विशेषज्ञ समस्याओं की चर्चा करते हैं। लेकिन हर बार ढाक के तीन पात। कोई समाधान नजर नहीं आता। उपभोगवाद की दौड़ ने उन्हें जहां पहुंचा दिया है, वहां से लौटना संभव ही नहीं है। उपभोगवाद ने उनके समाज को भी अराजकता की स्थिति में पहुंचा दिया है। समाज बिखर रहा है, परिवार टूट रहे हैं, वृद्धावस्था आश्रम बन रहे हैं। अब वहां विशेषज्ञ रिसर्च पेपरों में विश्लेषण कर रहे हैं। उनका समाजवाद उपभोगवाद में उलझ कर रह गया है। इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।

दीनदयाल उपाध्याय ने इस दृश्य की कल्पना छह दशक पहले कर ली थी। वह इसके प्रति सावधान करते थे ऐसा नहीं कि उनका विचार संकुचित था। विदेश नीति व विदेशों से संबंधों पर भी उन्होंने विचार रखे थे। विदेशों के साथ सहयोग बढ़ाना चाहिये। लेकिन हमको यह देखना होगा कि दूसरे देशों की कौन सी बात हमारे हित में होगी। उनके वाद को यथावत स्वीकार नहीं किया जा सकता। हमको अपने देश की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिये। विदेशी पूंजी अपने साथ वहां की संस्कृत भी लाती है। इसके प्रति सावधान भी रहना चाहिये।

दीनदयाल उपाध्याय द्वारा व्यक्त विचार व चिंता आज दिखने लगी है। हमारे यहां भी ओल्डएज होम बनने लगे हैं। सरकार को माता पिता की देखभाल हेतु कानून बनाना पड़ता है। युवा पीढ़ी व बच्चों का खानपान बदल रहा है। फास्ट फूड के नुकसान बताये जाते हैं, उनका चलन बढ़ रहा है। चना−चबेना सत्तू, दुर्लभ हो रहे हैं। दीनदयाल उपाध्याय के विचार इस संदर्भ में प्रासंगिक हैं। वह इस समस्या से बाहर निकलने का रास्ता दिखा सकते हैं।

इसी प्रकार मार्क्सवादी व वामपंथी विचारधारा ने समाज व देश का अहित किया है। दीनदयाल उपाध्याय ने इसके प्रति भी सावधान किया था। इसमें उपभोगवाद को सशर्त बनाया गया था। व्यक्ति के जगह सत्ता को केंद्र में रखा गया। यह मान लिया गया कि व्यक्ति भी व्यवस्था का यंत्र मात्र है। सत्ता ही समाज को सही दिशा में संचालित करती रहेगी। इस वाद के नुकसान हुए। बचाव करने वाले चाहे जो दावा करें, लेकिन जिन देशों के लोगों ने दशकों तक जिस मार्क्सवादी व्यवस्था को भोग कर उसको अस्वीकार कर दिया, चीन में वही कम्यूनिस्ट व्यवस्था केवल राजनीति व सत्ता पर नियंत्रण और एकाधिकार के लिये बची है। आर्थिक क्षेत्र में वहां उपभोगवाद चरम पर है।

कम्यूनिस्टों ने भारत को भी विदेशी चश्मे से देखा। इसलिये उन्हें अपने देश में कोई अच्छाई नजर नहीं आती। इन्होंने आत्मगौरवविहीन समाज बनाने का प्रयास किया। जो कुछ अच्छा है वह विदेशों से मिला है। हमारा कुछ नहीं, यह विचार उन्होंने प्रसारित किया। केवल सरकार के भरोसे सुधार का विचार भी विफल रहा। विश्व में सोशलिस्ट विचार भी अब केवल सिद्धांतों में बचा है। व्यवहार में कहीं नजर नहीं आता। आज कौन हो जो राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि के विचारों पर अमल करता दिखाई देता है।

दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। समस्याओं पर विचार करते हैं। उनका समाधान निकालते हैं। यह तथ्य ही  भारत के अनुकूल प्रमाणित होता है। ऐसे में पहली बात यह समझनी होगी कि अन्य विचारों के भांति दीनदयाल उपाध्याय ने कोई वाद नहीं बनाया। एकात्म मानव, अन्त्योदय जैसे विचार वाद की श्रेणी में नहीं आते। यह दर्शन है। जो हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है। यह एकात्म दर्शन है। इसमें समरसता का विचार है। इसमें भेदभाव नहीं है। व्यक्ति का अपना हित स्वभाविक है। लेकिन यही सब कुछ नहीं है। उपभोगवाद से लोक कल्याण संभव नहीं है। इसमें व्यक्ति का भी कल्याण नहीं है। यदि ऐसा होता तो भौतिकवाद की दौड़ में कभी तो व्यक्ति को संतोष मिलता। लेकिन ऐसा नहीं होता। मन कभी संतुष्ट नहीं होता। व्यक्ति प्रारंभिक इकाई मात्र है। लेकिन वह परिवार का हिस्सा मात्र है। परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है। समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है। जीवन यापन के साधन अवश्य होने चाहिए। ये साधन हैं। साध्य नहीं है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो, लेकिन का शुभ होना अनिवार्य है।

एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता सदैव रहेगी, क्योंकि यह शाश्वत विचारों पर आधारित है। दीनदयाल जी ने संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि पर विचार किया। उन्होंने विदेशी विचारों को सार्वलौकिक नहीं माना। यह तथ्य सामने भी दिखाई दे रहे हैं। भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों−टुकड़ों में विचार नहीं हो सकता। संसार में एकता का दर्शन, उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचानना, उनमें परस्पर अनुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है। प्रकृति को ध्येय की सिद्धि हेतु अनुकूल बनाना संस्कृति और उसके प्रतिकूल बनाना विकृति है। संस्कृति प्रकृति की अवहेलना नहीं करती। भारतीय संस्कृति में एकात्म मानव दर्शन है। मानव केवल एक व्यक्ति मात्र नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय व्यक्ति केवल एकवचन मैं तक सीमित नहीं है। समाज व समष्टि तक उसकी भूमिका होती है। राष्ट्र भी आत्मा होती है। समाज और व्यक्ति में संघर्ष का विचार अनुचित है। राज्य ही सब कुछ नहीं होता। यह राष्ट्र का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं होता। राज्य समाप्त होने के बाद भी राष्ट्र का अस्तित्व रहता है।

दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र की आत्मा से लेकर जैविक खाद व व्यापार तक पर चिंतन करते हैं। उनके अध्ययन व मनन का दायरा कितना व्यापक था, इसकी कल्पना की जा सकती है। वह लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है, उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है। इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है। लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये। प्रकृति के साथ उच्छृंखलता का व्यवहार नहीं होना चाहिये। खाद्य सुरक्षा की बात अब सामने आई। दीनदयाल जी ने इस पर बहुत पहले ही विचार कर लिया था। उनके अनुसार हमारा नारा यह होना चाहिये कि कमाने वाला खिलायेगा तथा जो जन्मा सो खायेगा। अर्थात खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है। बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं कर पाता। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम स्तर है।

आज शिक्षा की व्यवस्था भी चिंता उत्पन्न करती है। एक तरफ महंगी शिक्षा है। इसका लाभ सीमित वर्ग उठा सकता है। दूसरी ओर जहां शिक्षा सस्ती है, उनकी दशा खराब है। वहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं। शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जिनका शिक्षा से कोई मतलब नहीं वह शिक्षण संस्थान के संचालक बन गये। दीनदयाल उपाध्याय को इसका भान था इसलिये उन्होंने लिखा था कि शिक्षा समाज का दायित्व है। बच्चों को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। आज शिक्षा की भांति चिकित्सा की दशा है। यह भी व्यवसाय का रूप धारण कर रही है। दीनदयाल जी निःशुल्क चिकित्सा का सुझाव देते हैं। वह मानते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मानव का विकास करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। इसके विरोध में समाजवादी अर्थव्यवस्था आई। यह भी विफल हुई। इसने पूंजी का स्वामित्व राज्य के हाथों में देकर संतोष कर लिया। दीनदयाल जी का अंत्योदय विचार आज भी प्रासंगिक है। भारत में अनेकवाद अपनाये गये। अब तो वैश्विकरण और उदारीकरण को भी लंबा समय हो गया। लेकिन अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ी है। यह व्यक्तिवादी व उपभोगवादी चिंतन का भी परिणाम है। विकास हुआ, मगर असंतुलित है। सत्ता व समाज दोनों को जिम्मेदारी से काम करने की दीनदयाल उपाध्याय प्रेरणा देते हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर जो व्यक्ति है, उसके उत्थान का प्रयास प्राथमिकता से होनी चाहिये। भवन निर्माण में पहले छत नहीं बनायी जा सकती। निर्माण नींव से शुरू होता है। इसी प्रकार जब भवन की सफाई करनी होती है तो यह कार्य ऊपर से प्रारंभ होता है। फर्श का नंबर सबसे बाद में आता है। यह समाज और सत्ता दोनों पर लागू होने वाला विचार है।

इसी प्रकार दीनदयाल उपाध्याय ने हर खेत को पानी हर हाथ को काम का विचार दिया था। विडंबना देखिए आज छह दशक बाद भी यह समस्या बनी हुई है। यहां खेत में पानी का व्यापक अर्थ है। भारत कृषि प्रधान देश है। उन्नत खेती के लिए गंभीरता से प्रयास करने की आवश्यकता थी। खेती लाभप्रद होती, भंडारण बाजार की उचित व्यवस्था होती, तो गांव से शहर की ओर इतना पलायन नहीं होता। तब बड़ी संख्या में हमारे युवा कृषि कार्य में लगे होते। किसान तेजी से मजदूर बनते गए। उन्हें रोकने का कारगर प्रयास नहीं हुआ। शहर व गांव दोनों के बीच संतुलन स्थापित हो गया। विकास चाहे जितना हो जाए मगर हर हाथ को काम नहीं मिलेगा, तो भविष्य में सामाजिक स्तर पर गंभीर समस्याओं का सामना करना होगा। कृषि व उद्योग व्यापार का भी टकराव नहीं होना चाहिये। संतुलित विकास में दोनों का योगदान है। दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इन्हीं के माध्यम से देश की वर्तमान समस्याओं का समाधान हो सकेगा।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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