सेना के ऑपरेशन ऑलआउट से पहले ऐसे चला भाजपा का ऑपरेशन वॉकआउट

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जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की तीन साल से चली आ रही सरकार आखिरकार भाजपा के समर्थन वापस लेने से गिर गई और राज्य एक बार फिर राज्यपाल शासन के अंतर्गत चला गया। भाजपा ने समर्थन वापस क्यों लिया।

जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की तीन साल से चली आ रही सरकार आखिरकार भाजपा के समर्थन वापस लेने से गिर गई और राज्य एक बार फिर राज्यपाल शासन के अंतर्गत चला गया। भाजपा ने समर्थन वापस क्यों लिया और क्यों अपने शासन वाले एक राज्य को कम कर दिया इसके कारणों का विश्लेषण करने से पहले हमें यह बात समझने की जरूरत है कि राष्ट्रहित में यह अब अनिवार्य हो चला था कि वहां सेना को कमान सौंपी जाये क्योंकि केंद्र और राज्य की सरकार वहां के हालात को संभालने में विफल हो रही थीं। कश्मीर के हालात जिस तरह तेजी से बिगड़ रहे थे उसका खामियाजा सबसे ज्यादा भाजपा को ही भुगतना होता जोकि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों की तैयारी में जी-जान से जुटी हुई है। कश्मीर में चल रहे ढुलमुल रवैये से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सख्त छवि को सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा था।

समर्थन वापसी के वो कारण जो भाजपा ने बताये


भाजपा ने पीडीपी सरकार से समर्थन वापसी के जो बड़े कारण बताये हैं उनमें कहा है कि राज्य सरकार कानून व्यवस्था ठीक तरह से नहीं संभाल पा रही थी और राज्य में बढ़ते कट्टरपंथ और बढ़ते आतंकवाद की वजह से भाजपा का राज्य सरकार में बना रहना मुश्किल हो गया था। समर्थन वापसी के फैसले की घोषणा करते हुए भाजपा महासचिव राम माधव ने कहा कि यह ध्यान में रखते हुए कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और राज्य में मौजूदा हालात पर काबू पाना है, इसलिए हमने फैसला किया है कि राज्य में सत्ता की कमान राज्यपाल को सौंप दी जाए। भाजपा नेता ने यह भी कहा कि आतंकवाद, हिंसा और कट्टरता इतनी बढ़ गई है कि जीवन का अधिकार, स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार सहित नागरिकों के कई मौलिक अधिकार खतरे में हैं।

समर्थन वापसी के वो असल कारण जो भाजपा ने नहीं बताये

लेकिन अगर गौर करें तो कारण कुछ और ही थे। दरअसल मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती राज्य में संघर्षविराम की अवधि को बढ़ाने का केंद्र सरकार पर दबाव बना रही थीं। इसी सप्ताह केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर के दौरे पर गये थे और जब महबूबा ने उनसे इस संबंध में बात की तो उन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया था। केंद्र ने महबूबा मुफ्ती के संघर्षविराम प्रस्ताव को रमजान के दौरान इसलिए लागू किया था ताकि सभी पक्षों को शांति बरतने का मौका दिया जा सके लेकिन हुआ उसका उलटा। पाकिस्तान की ओर से लगातार सीमापार से फायरिंग होती रही, सेना के जवान अपनी ओर से सर्च ऑपरेशन नहीं चला पा रहे थे जिससे आतंकवादियों की आवाजाही बढ़ती जा रही थी, पत्थरबाजी की घटनाएं एकाएक बढ़ गयी थीं, ईद की पूर्व संध्या पर राइजिंग कश्मीर समाचार-पत्र के संपादक शुजात बुखारी की सरेआम हत्या कर दी गयी। ईद की छुट्टी पर घर लौट रहे सेना के जवान औरंगजेब को अगवा कर मार दिया गया, ईद के दिन पाकिस्तान और आईएस के झंडे सरेआम लहराये गये और इन सबके अलावा जिस तरह लगभग हर दूसरे दिन सेना के जवान शहीद हो रहे थे उससे देश में गुस्सा बढ़ता जा रहा था। भाजपा जोकि अपने को राष्ट्रवादी विचारों वाली पार्टी बताती है उसके लिए अन्य राज्यों में कश्मीर से जुड़े सवालों का जवाब देते नहीं बन रहा था।

ऐसे चला भाजपा का ऑपरेशन वॉकआउट

जब भाजपा को इस बात की भनक लगी कि संघर्षविराम अवधि नहीं बढ़ने के कारण महबूबा मुफ्ती भाजपा से संबंध तोड़ने का ऐलान कर सकती हैं तब पार्टी ने एकाएक बड़ा फैसला करने का निर्णय किया और बाजी अपने पक्ष में पलट ली। यदि पीडीपी पहले संबंध तोड़ देती तो भाजपा को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाता। इस बात को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह समझ रहे थे और गत सप्ताह उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस बारे में बात की थी और उसके बाद पार्टी के जम्मू-कश्मीर प्रभारी और राज्य के नेताओं को 'काम' पर लगा दिया गया। हालांकि उन्हें 'बड़े फैसले' के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी गयी थी। राम माधव ने जम्मू-कश्मीर भाजपा नेताओं को दिल्ली आकर पार्टी अध्यक्ष से मिलने का संदेश दिया तभी साफ हो गया था कि अब 'बड़ा फैसला' होने वाला है।


19 जून, 2018 का दिन जानबूझकर चुना था

भाजपा इससे पहले भी पीडीपी का साथ छोड़ने का मन बना रही थी लेकिन इंतजार 19 जून, मंगलवार का किया जा रहा था। इस दिन का इंतजार खासतौर पर इसलिए था कि पार्टी यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनावों से पहले नहीं हों। जम्मू-कश्मीर में आज, 20 जून से राज्यपाल शासन लगा दिया गया है और संसद के मानसून सत्र में इसको सदन की मंजूरी भी दिला दी जायेगी। राज्यपाल शासन एक बार में छह माह तक रह सकता है। यानि 20 जून से 20 दिसंबर तक राज्यपाल शासन रह सकता है। 20 दिसंबर से पहले ही संसद का शीतकालीन सत्र भी लगभग खत्म हो जाता है ऐसे में यदि केंद्र सरकार राज्यपाल शासन को फिर छह महीने के लिए बढ़ाती है तो उसकी राह आसान होगी क्योंकि उसे संसद की मंजूरी फरवरी में होने वाले संसद के बजट सत्र में ही मिल पायेगी। यानि तब तक भाजपा जम्मू-कश्मीर को अपने हिसाब से चला सकती है और स्थितियां अपने अनुकूल करने के लिए उसे लंबा समय मिल जायेगा। मार्च में जब देश में लोकसभा चुनावों की तैयारियां हो रही होंगी तब सरकार के सुझाव पर चुनाव आयोग या तो लोकसभा के साथ या फिर बाद में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव करा सकता है।


भाजपा ने आगे के समीकरणों पर भी खूब माथापच्ची की

भाजपा को यह अच्छी तरह से पता है कि राज्य की 6 लोकसभा सीटों में से वह अधिकतम तीन या चार सीटें ही जीत सकती है। फिलहाल उसके पास राज्य की तीन लोकसभा सीटें- जम्मू, लद्दाख और उधमपुर हैं। इन तीन या चार सीटों को जीतने के लालच में भाजपा को देश की अन्य सीटों पर नुकसान का बड़ा खतरा तो लग ही रहा था साथ ही यह तीन सीटें भी हाथ से जाती लग रही थीं क्योंकि जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के विकास में राज्य सरकार कथित रूप से भेदभाव कर रही थी। इसके अलावा पीडीपी के आगे घुटने टेकते जाने से जम्मू के लोग भाजपा से खासे नाराज थे जिन्होंने विधानसभा की 25 सीटें भाजपा को देकर दूसरी बड़ी पार्टी बनाया था।

मोदी की सख्त प्रशासक की छवि को पहुँच रहा था नुकसान

2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद और कश्मीर को लेकर बड़े-बड़े वादे किये थे लेकिन अब संदेश यह जा रहा था कि भाजपा कश्मीर की सत्ता के लिए अपनी विचारधारा और चुनावी वादों से समझौता कर रही है। हाल ही में जब केंद्र सरकार ने एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की थी तब भाजपा की जम्मू-कश्मीर इकाई ने इसका विरोध किया था। यही नहीं कठुआ बलात्कार मामले को लेकर भी जम्मू भाजपा का पार्टी आलाकमान से मतभेद था। पार्टी के स्थानीय नेता मानते हैं कि इस मामले में कथित आरोपियों को फंसाया गया है और यह डोगरा समुदाय को बदनाम करने की साजिश है। कठुआ मामले ने भाजपा और पीडीपी के बीच मतभेद काफी बढ़ा दिए थे। प्रदेश भाजपा के नेताओं ने इस मामले की पुलिस जांच के विरोध में प्रदर्शन किए थे जबकि पीडीपी ने पुलिस जांच का पुरजोर समर्थन किया था। 

पार्टी के कई बड़े नेता निजी बातचीत में इस बात को मान भी रहे हैं कि पार्टी ने जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला इसलिए किया है क्योंकि जम्मू-कश्मीर और देश के दूसरे हिस्सों में भाजपा के परंपरागत वोटरों के एक तबके में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जम्मू संभाग के भाजपा नेताओं ने बातचीत में बताया है कि उनके परंपरागत समर्थकों की नाखुशी बढ़ती जा रही थी और कार्यकर्ताओं का उत्साह कम होता जा रहा था। परंपरागत समर्थकों और कार्यकर्ताओं को ऐसा लग रहा था कि भाजपा दो प्रमुख मुद्दों- विकास और कश्मीर में आतंकवाद पर लगाम लगाने पर काम करने में नाकाम होती जा रही है। यही नहीं पूर्व सैनिकों के बीच भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ती जा रही थी।

अब राज्य में राज्यपाल शासन लागू होने की स्थिति में केंद्र सरकार आतंकवाद के खिलाफ सख्त कदम उठा सकेगी, जिससे भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में फायदा मिल सकता है। भाजपा चुनावों से पहले कश्मीर की स्थिति को सामान्य करना चाहती है ताकि वह अपने परंपरागत समर्थकों से कह सके कि सुरक्षा के मुद्दे को लेकर वह गंभीर है।

भाजपा का नया और बड़ा प्लान 

23 जून को जनसंघ के संस्थापक सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि है जिनके बारे में भाजपा का दावा है कि वह कश्मीर में शहीद हुए थे। मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के तहत मिले विशेष राज्य के दर्जे के विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। मुखर्जी कश्मीर में थे जहां उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी थी। शनिवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह श्रीनगर जा रहे हैं जहां परेड ग्राउंड में वह एक जनसभा को संबोधित करेंगे और उस दिन भाजपा का एक तरह से शक्ति प्रदर्शन भी होगा। बुधवार को रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी शहीद जवान औरंगजेब के घर जाकर उनके परिजनों को सांत्वना दी। इसी तरह अब भाजपा नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के जम्मू-कश्मीर के दौरे बढ़ने वाले हैं। लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार काफी आक्रामक रहने वाला है और भाजपा नेताओं का पता है कि जनता को जवाब देते समय आक्रामक हमलों का जवाब आक्रामकता से ही देना होगा इसलिए अब राज्य को एक तरह से सेना के हवाले कर दिया गया है और पार्टी को उम्मीद है कि सेना के ऑपरेशनों से उसकी चुनावी नैय्या पार लग जायेगी।

फ्री हैंड मिलने से सेना का काम हो गया और आसान

संघर्षविराम की अवधि के दौरान सेना सर्च ऑपरेशन नहीं चला पा रही थी जबकि उसके पास आतंकवादियों के खिलाफ कई सूचनाएं थीं। यही नहीं 28 जून से शुरू होने वाली अमरनाथ यात्रा को लेकर भी खुफिया एजेंसियों ने चेताया था कि इस पर हमला हो सकता है और आतंकवादी घात लगाये हुए हैं। गृह मंत्रालय में पिछले सप्ताह चली कई लंबी बैठकों में भी सेना और खुफिया एजेंसियों तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कश्मीर घाटी के हालात से सरकार को अवगत कराया था। यह भी महसूस किया गया था कि राज्य पुलिस से खुफिया जानकारी मिलने में परेशानी आ रही है। इससे पहले जब राज्य पुलिस और सेना के बीच अच्छा समन्वय था तब सुरक्षा बलों ने कई बड़े आतंकवादियों को ढेर कर दिया था। अब राज्यपाल शासन में सूचनाएं साझा करने को लेकर कोई राजनीतिक अड़चन नहीं रहेगी इसलिए सेना का काम और आसान हो जायेगा। दरअसल राज्य पुलिस के पास सूचनाओं का अंबार होता है क्योंकि हर छोटे से छोटे इलाके में उसकी मौजूदगी है।

जम्मू-कश्मीर के पुलिस प्रमुख एसपी वैद्य ने कहा भी है कि आगामी दिनों में राज्य में आतंकवादियों के खिलाफ अभियान तेज होगा क्योंकि रमजान के दौरान जब आतंकवाद रोधी अभियान बंद थे तब आतंकी गतिविधियों में तेजी आई थी। वैद्य ने कहा है कि हम आगामी दिनों में इन अभियानों को तेज करेंगे और उन्हें लगता है कि अब काम करना बहुत आसान होगा। वैद्य ने कहा कि रमजान में संघर्षविराम के समय आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोत्तरी हुई। डीजीपी ने कहा कि उन्हें भरोसा है कि राज्यपाल शासन का घाटी की सुरक्षा स्थिति पर असर होगा और चीजें बहुत असरदार तरीके से काम करनी चाहिए। उन्होंने माना है कि संघर्षविराम के कारण आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई पर असर पड़ा है क्योंकि इससे आतंकवादियों को लाभ पहुंचा। 

पीडीपी कहीं की नहीं रही

अब तब जम्मू-कश्मीर में सरकार का नेतृत्व कर रही पीडीपी को हालिया राजनीतिक घटनाक्रम से सर्वाधिक नुकसान पहुँचा है। सरकार तो गयी ही साथ ही पीडीपी की विश्वसनीयता भी उसके कार्यकर्ताओं के बीच घट गयी है। स्थानीय लोगों की सोच है कि बुरहान वानी के मारे जाने के बाद पीडीपी को भाजपा से गठबंधन तोड़ देना चाहिए था लेकिन उसने सत्ता में बने रहने की खातिर ऐसा नहीं किया। इसी के साथ ही जब भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिमों की कथित रूप से पीट पीटकर हत्या हुई तो महबूबा मुफ्ती खामोश रहीं इससे भी लोग नाराज बताये जाते हैं। महबूबा दावा तो करती हैं कि उन्होंने नरम नीति अपनाने के लिए भाजपा को बाध्य किया और 11 हजार युवकों पर से पत्थरबाजी के मामले वापस लिये लेकिन यह साफ है कि उनके खिलाफ नाराजगी है।

महबूबा के कार्यकाल में भ्रष्टाचार तो बढ़ा ही साथ ही यह भी संभवतः पहली बार हुआ कि एक लोकसभा सीट अनंतनाग पर उपचुनाव के लायक हालात ही नहीं बन पाये और छह माह से ज्यादा समय से वह सीट खाली ही है और श्रीनगर की जिस सीट से फारुक अब्दुल्ला सांसद हैं वहां वह मात्र सात प्रतिशत वोटिंग से ही चुनाव जीत गये थे। इससे जाहिर होता है कि महबूबा सरकार अपने संवैधानिक कर्तव्यों का भी ठीक तरह से निर्वहन नहीं कर पा रही थी। महबूबा की मुश्किल यह है कि उनके पिता और राज्य के प्रभावशाली नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद अब रहे नहीं। महबूबा के भाई भी पार्टी में बड़ी भूमिका चाहते हैं और संभव है आने वाले दिनों में पार्टी की कमान को लेकर आंतरिक संघर्ष भी हो।

महबूबा को अन्य दलों का भी शायद ही साथ मिले क्योंकि कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने उनके साथ किसी भी तरह के गठबंधन से साफ इंकार कर दिया है। उमर और कांग्रेस दोनों ने कहा कि वे राज्य में सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। भाजपा ने भी कहा कि वह राज्यपाल शासन के पक्ष में है और अब राज्यपाल शासन लागू हो ही गया है। 

बहरहाल, जम्मू-कश्मीर में शांति के लिए सभी पक्षों से बातचीत होनी ही चाहिए लेकिन बातचीत के लिए शांति का माहौल बनाना भी सभी पक्षों की जिम्मेदारी है। केंद्र सरकार ने राजनीतिक जोखिम लेते हुए बार-बार अपनी तरफ से पहल की लेकिन जब उसका सकारात्मक जवाब ही नहीं मिल रहा तो सख्ती तो दिखानी ही होगी। पीडीपी के साथ जहां तक सरकार बनाने की बात है तो आरोप चाहे जो लगें लेकिन सत्य यही है कि जो चुनाव परिणाम आये थे उसमें यही विकल्प स्थिर सरकार दे सकता था। लेकिन स्थिर सरकार और अस्थिर प्रदेश देश के लिए ठीक नहीं रहता इसलिए भाजपा को सरकार से बाहर आना ही पड़ा। 

-नीरज कुमार दुबे

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