अमिताभ बच्चन की सकारात्मक पहल से सीख ले समाज

अमिताभ बच्चन अपने बेटे अभिषेक बच्चन और स्वेता नंदा बच्चन में अपनी संपत्ति बराबर बाटेंगे। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा है, जब मैं मरूंगा, तो मेरी संपत्ति बेटी और बेटे के बीच बराबर-बराबर बांटी जाएगी।
हमारे देश में प्राचीन काल से ही ऐसी मान्यता थी कि औरतें कमजोर होती हैं और वो अपने निर्णय खुद नहीं ले सकतीं। उन्हें हमेशा किसी न किसी पर निर्भर रहने की परंपरा में बांध दिया गया है। हालाँकि, इसके पक्ष और विरोध में कई तर्क/ वितर्क हो सकते हैं, किन्तु सच यही है कि 21वीं सदी में बदलाव होना ही चाहिए। काफी समय से ऐसा माहौल बनाया गया है कि औरत को बचपन अपने पिता के अधीन, शादी के बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं रही है और ना ही पुरुषवादी समाज इस बात स्वीकार कर पाता है। यहाँ इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि हमें भारत की पारिवारिक व्यवस्था को तोड़ देना चाहिए, बल्कि इसके मूल में 'निर्णय लेने की शक्ति' और अधिकारों पर बराबर का हक़ महिलाओं को भी मिले, इस बात की पैरवी है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि महिलाओं ने इस बात को 'यथास्थिति' में स्वीकार भी कर लिया। हालाँकि, पहले उनकी कई मजबूरियाँ रही होंगी, पर आज के समय में उन्हें 'यथास्थितिवाद' का विरोध करना ही चाहिए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि विरोध के नाम पर तलाक और बच्चों के लालन-पालन से मुक्ति की राह ढूंढ लेनी चाहिए, वरन अपने उद्यम से यह साबित करना चाहिए कि 'गृहस्थी' की गाड़ी में वह भी बराबरी में चलने वाला पहिया है। निश्चित रूप से इस स्थिति को बदलने में समय लगेगा, पर बेहतर विकल्प यही है। समाज के बुद्धिजीवी, सफल लोगों और आम पुरुषों को भी लड़कियों के अधिकारों को लड़कों से कम कतई महत्त्व नहीं देना चाहिए। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने इस सम्बन्ध में एक नज़ीर देने की कोशिश की है, जिसकी ओर गौर फ़रमाया जाना चाहिए।
अमिताभ बच्चन की सकारात्मक शुरुआत
यूं तो हमारे देश के कानून ने मान्यता दी है कि प्रत्येक बेटी को बाप की जायदाद में बराबर का हिस्सा मिलेगा, लेकिन इसे मानता कौन है? जैसे और बहुत सारे कानून नाम मात्र के लिए बने हैं, वैसे ही ये भी महिलाओं के हक़ में बना एक नाम मात्र का कानून ही है। चूंकि कानून तभी असरदार होते हैं, जब लोग बाग़ उसका अनुसरण करते हैं, इस दिशा में सार्थक कदम उठाते हुए बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने लोगों को 'मजबूत सन्देश' देने का प्रयास किया है और वह यह कि "बेटे और बेटी में वाकई कोई फर्क नहीं है"। इसलिए उन्होंने अपनी संपत्ति में बेटी को भी उतना ही हक़ दिया है, जितना अपने बेटे को! मतलब अमिताभ बच्चन अपने बेटे अभिषेक बच्चन और स्वेता नंदा बच्चन में अपनी संपत्ति बराबर बाटेंगे। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा है, "जब मैं मरूंगा, तो मेरी संपत्ति बेटी और बेटे के बीच बराबर-बराबर बांटी जाएगी"।
समाज में अच्छी बातें करने वालों की कमी नहीं है, किन्तु एक कदम आगे बढ़कर समाज की धारा को सकारात्मक मोड़ देने का जो साहस अमिताभ बच्चन ने दिखलाया है, उसे सलाम किया जाना चाहिए। और सलाम ही क्यों, उस राह पर चलने का प्रयास हर एक को करना चाहिए। लगे हाथ महिलाओं से जुड़े कुछ और मुद्दों की बात भी कर लेते हैं, क्योंकि एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने से ही हम कुछ प्रगति कर सकते हैं।
महिलाओं के पिछड़ने की प्रमुख वजहें
अगर हम समाज में महिलाओं के पिछड़ने के कुछ कारणों को ध्यान दें, तो पाएंगे कि समाज का पुरुषवादी स्ट्रक्चर मुख्य रोड़ा रहा है। हमारे समाज में ऐसी मान्यता रही है कि लड़का पैदा होगा तो घर की जिम्मेदारी उठाएगा, बुढ़ापे का सहारा बनेगा। इसके उलट बेटी को तो पराये घर जाना है और उसके शादी में खर्च भी तो होना है। ऐसी मान्यताएं लगातार महिलाओं की स्थिति को समाज में कमजोर करती गयीं। हालाँकि, अब शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं को बराबरी की निगाह से देखे जाने की कोशिश जरूर हो रही है, किन्तु अभी काफी दूरी तय की जानी बाकी है। वहीं, दूसरी तरफ गरीबी और शिक्षा की कमी भी औरतों को समाज में बराबरी का हक़ ना मिलने के लिए जिम्मेदार है। जब किसी गरीब परिवार में बेटी का जन्म होता है तो वो परिवार इतना सक्षम नहीं होता है कि सारे बच्चों को बराबर शिक्षा और बेसिक सुविधाएँ दे सके और ऐसे में लड़कियों को यह कह कर संतोष दिलाया जाता है कि तू पढ़ कर क्या करेगी आगे तो चूल्हा ही फूंकना है, तेरा भाई पढ़ेगा तो नौकरी कर घर की जिम्मेदारी उठाएगा। इस तरह एक लड़की के पिछड़ने की शुरुआत हो जाती है। वहीं अपेक्षाकृत थोड़े संपन्न परिवारों में ऐसा देखने को कम मिलता है और लड़की की भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बेसिक जरूरतों को पूरा किया जाता है।
प्रत्येक साल हाई स्कूल और इंटर मीडिएट में लड़कियों का परीक्षा परिणाम लड़कों से बेहद अच्छा होता है, और अगर माता-पिता लड़कियों की शिक्षा पर निवेश करें तो वो नौकरी प्राप्त करने के क्षेत्र में पिछड़ी नहीं रहेंगी। हालाँकि, बात हमारे एजुकेशन सिस्टम की भी है, जिसमें ऊँची से ऊँची पढ़ाई करने के बावजूद क्या लड़का और क्या लड़की, धक्के खाते नज़र आते हैं। बात यहाँ 'जॉब ओरिएंटेड' और उससे भी आगे बढ़कर कहा जाए तो 'व्यवहारिक शिक्षा' देने की होनी चाहिए। लड़कियों के मामले में यह और पेचीदा हो जाता है। ऐसे ही शादी के बाद औरतों के जॉब छोड़ने की संख्या काफी ज्यादा है और इसका एक ही स्वस्थ हल है कि 'होम बेस्ड जॉब्स' की संख्या बढ़ाने पर ज़ोर दिया जाए। इन्टरनेट की दुनिया इस बात की ओर सकारात्मक इशारा जरूर करती है, किन्तु महिलाओं को सही दिशा दिखाने की जरूरत अवश्य है, जिसे संगठित रूप से किया जाना चाहिए।
क्या कहते हैं आंकड़े
कन्या भ्रूण हत्या एक अमानवीय कार्य है और यह बेहद शर्मनाक है कि इस प्रकार की कुप्रथाएं आज भी देश में बड़े पैमाने पर प्रचलित हैं। बेटे की चाहत में लगभग 1,00,000 अवैध गर्भपात हर साल केवल इसलिये कराये जाते हैं, क्योंकि गर्भ में पल रहा भ्रूण लड़की का भ्रूण होता है। हालाँकि प्रसवपूर्व लिंग जाँच भारत में पूर्णतः अवैध है फिर भी पैसों के लालच में कुछ मेडिकल संस्थान और डॉक्टर्स इन कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इस तरह के कुकृत्य लिंगभेद को बढ़ावा देने के साथ ही लैंगिक असमानता को भी बढ़ाता है। इसके साथ ही विश्व आर्थिक फोरम ने 2016 के लिए ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट जारी की थी जो शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति और आर्थिक आधार पर दुनिया के विभिन्न देशों में महिलाओं की स्थिति बयां करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक समानता के मामले में भारत 144 देशों में 87वें पायदान पर है, वहीं चीन 99वें और पाकिस्तान 143वें स्थान पर है। हालाँकि लैंगिक समानता के मामले में पिछले साल की तुलना में सुधार जरूर हो रहा है, फिर भी स्थिति गंभीर ही कही जायेगी। सकारात्मकता की बात करें तो, जेनेवा के विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा तैयार की गयी वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सबसे ज्यादा सुधार शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है, जहां ''भारत प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में अपने अंतर को पाटने में पूरी तरह सफल रहा है। हालाँकि, सम्पूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करने में भारत को 113वां स्थान मिला। इस सन्दर्भ में डब्ल्यूईएफ का कहना है कि आर्थिक परिदृश्य में ''और अधिक काम किया जाना बाकी है''। इस क्षेत्र में 144 देशों में भारत 136वें स्थान पर है, वहीं अगर स्वास्थ्य की बात करें तो स्वास्थ्य एवं जीवित बचने के मामलों में इसे निचला, मतलब 142वां स्थान मिला। लेकिन, ख़ुशी की बात ये है कि राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में भारत का स्थान शीर्ष 10 देशों में रहा। साल 2015 में दुनिया की 20 बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों ने डब्ल्यू20 नाम का एक कार्यक्रम लांच किया था, जिसमें जी20 देशों की 20 महिला नेता होंगी। महिला नेताओं की भागीदारी वाले इस समूह का मुख्य उद्देश्य लैंगिक समानता वाले वैश्विक आर्थिक विकास को बल देना है और आर्थिक विकास प्रक्रिया में महिलाओं को सशक्त बनाना है। वहीँ डब्ल्यू20 की नवनियुक्त अध्यक्ष गुल्देन तुर्कतान ने कहा कि यह लीक से हटकर काम करेगा और महिलाओं के सशक्तिकरण के जरिए आर्थिक विकास प्रक्रिया में लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करेगा।
राजस्थान ने पेश की मिसाल
वैसे तो पूरे भारत में बेटियों की संख्या बेटों की अपेक्षा कम है, अर्थात पूरा भारत लिंगानुपात की समस्या से जूझ रहा है, किन्तु हरियाणा और राजस्थान में स्थिति और भयावह है। इन राज्यों में आलम ये है कि हज़ारों लड़के कुंवारे रहे हैं, क्योंकि वहां लड़कियों की भारी कमी है। कई बार तो शादी के लिए यहाँ के लोग दूसरे राज्यों पर निर्भर रहते हैं। इन सब के बीच राजस्थान ने अपने ऊपर लगे इस धब्बे को धोते हुए साल दर साल बाल लिंगानुपात पर काम किया है। राजस्थान में लोगों का बेटियों के प्रति नजरिया बदल रहा है और इसी का नतीजा है कि पहली बार राजस्थान में लड़कियों की किलकारियां लड़कों से ज्यादा सुनाई दी हैं। जी हाँ, राजस्थान के टोंक में 1000 लड़कों पर 1002 लड़कियों के जन्म का रिकॉर्ड वो तस्वीर है, जिस पर हर राजस्थानी को नाज है। इसके साथ ही अन्य राज्यों को भी इससे सीख लेते हुए बेटियों की स्थिति में सुधार की कोशिश करनी चाहिए।
सशक्त नारी की संकल्पना
प्रकृति का नियम है कि जो “ताकतवर है उसे ही समाज में अधिकार प्राप्त है” और धीरे-धीरे इसी सिद्धांत को अपनाकर पुरुष जाति ने अपने शारीरिक बनावट और शक्ति के बल पर समाज में अपना प्रभुत्व कायम किया। हालाँकि, सिर्फ शारीरिक ताकत ही 'प्रभुत्व' का पैमाना रहता तो हाथी और व्हेल जैसे बड़े जानवरों का शासन इस पृथ्वी पर रहता, इसलिए औरतों को अपनी शारीरिक कमजोरी को अपना नसीब व नियति समझकर बैठ नहीं जाना चाहिए। किसी महान ऋषि का कथन है कि अगर पुरुष में नारी के गुण आ जाएँ तो वह ऋषि बन जाता है, वहीं अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएँ तो कई बार 'कुलटा' हो जाती है। इस बात को सकारात्मकता के साथ लेकर नारी जाति को अपने मूल गुणों विनम्रता, ममता इत्यादि को कायम रखते हुए अपनी ताकत साबित करनी होगी। इस कथन का अभिप्राय यह भी नहीं है कि दुष्टों के साथ विनम्रता का चोला ओढ़े रहा जाए, बल्कि उसे ताकत और सामर्थ्य के साथ सही रास्ते पर लाया जाए। ऐसे में अब हालात बदल भी रहे हैं और महिलाएं हर उस क्षेत्र में जहाँ पुरुष का बोल बाला रहा है, वहां भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। आप बॉडी बिल्डिंग से लेकर कुश्ती, फिर चाहे वेट लिफ्टिंग ही क्यों न हो महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वो किसी पुरुष से कम नहीं हैं, बल्कि कई बार तो उनसे आगे हैं। अगर महिलाएं ठान लें तो वे कोई भी मुश्किल काम कर सकती हैं। अगर हमें भावी पीढ़ी को समाज के प्रति संवेदनशील, सहिष्णु बनाना है तो हमें भी बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की मुहिम में भागीदार बनना होगा। सशक्त महिलाएं ही समाज को सही राह दिखाने व सामाजिक मूल्यों को बरकरार रखने में सहायक हो सकती हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग अमिताभ बच्चन के कदम (बेटा-बेटी एक समान) से प्रेरणा लेंगे और बेटियों के प्रति अपने नजरिये को बदलेंगे। लड़कियों को इतना सक्षम बनाएंगे कि वो आत्मनिर्भर हों, तब जा कर कहीं समाज में हो रहे लिंग पर आधारित भेद-भाव को कम किया जा सकता है।
- मिथिलेश कुमार सिंह
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