जिनकी गोली फैसला और आवाज कानून बनी ऐसे थे बागी मोहर सिंह

mohar singh
दिनेश शुक्ल । May 6 2020 9:24PM

चंबल क्षेत्र डाकुओं और बागियों के लिए प्रसिद्ध रहा है यहां के बिहड़ों में कई नामी बागी और डाकू हुए है जिनके नाम से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लोग कांपते थे। लेकिन 5 मई को दस्यु हुए बागी मोहर सिंह के निधन से पूरे क्षेत्र में शोक की लहर फैल गई।

तिग्मांशु धुलिया निर्मित फिल्म पान सिंह तोमर का एक संवाद है कि “बिहड़ में तो बागी होते है, डकैत मिलते है पार्लिमेंट में”… चंबल क्षेत्र के लोगों का कहना है कि हमारे यहां डाकू नहीं बागी होते है और बागी वह होते है जो व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोह करता है। मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले की मेहगांव तहसील से 5 मई को ऐसे ही एक बागी की खबर आई जिन्होनें 92 साल की उम्र में अंतिम सांस ली, यह चंबल के बागी थे मोहर सिंह। मोहर सिंह पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, उन्हें मधुमेह यानि डायबटीज की बीमारी थी। बागी मोहर सिंह गरीब कन्याओं के विवाह और गरीबों की मदद के लिए क्षेत्र में एक अलग पहचान रखते थे। साठ के दशक में सबसे बडे गिरोह के मुखिया रहे मोहर सिंह तीन प्रदेशों की पुलिस के लिए सिरदर्द रहे। चंबल के बागी मोहर सिंह ने 1972 में समाजवादी जयप्रकाश नारायण के कहने पर आत्मसमर्पण कर दिया था। वह भिण्ड जिले की मेहगांव नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष भी रहे। उनके निधन के बाद पूरे क्षेत्र में शोक की लहर फैल गई।

इसे भी पढ़ें: सिंधिया समर्थकों को मंत्रिमंडल विस्तार में शामिल करने पर बढ़ सकती है भाजपा की मुश्किलें

चंबल क्षेत्र डाकुओं और बागियों के लिए प्रसिद्ध रहा है यहां के बिहड़ों में कई नामी बागी और डाकू हुए है जिनके नाम से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लोग कांपते थे। लेकिन 5 मई को दस्यु हुए बागी मोहर सिंह के निधन से पूरे क्षेत्र में शोक की लहर फैल गई। बागी मोहर सिंह का 60 के दशक में ये ऐसा नाम था जिसकी बंदूक ने तीन राज्यों की पुलिस के कान बहरे कर दिये थे। 150 बागियों की गैंग बनाकर मोहर सिंह ने तमाम हत्या, पकड़ और वसूली की वारदातों को अंजाम दिया था। 1958 में पहला अपराध करने से लेकर 1972 में समाजवादी जयप्रकाश नारायण के सामने उन्होनें आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण के पहले तक बागी मोहर सिंह के सिर पर 2 लाख का इनाम था जबकि उनकी पूरी गैंग पर 12 लाख का इनाम सरकार ने घोषित किया था। पुलिस फाइल में 315 मामले मोहर सिंह के नाम से दर्ज थे जिसमें 85 हत्या के मामले भी थे।   

समाजवादी जयप्रकाश नारायण के सामने 14 अप्रैल 1972 को मुरैना जिले के जौरा में महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। जिसके बाद उन्होंने सजा काटकर राजनीति में कदम रखा और मेहगांव नगर पालिका में पंचायत परिषद के अध्यक्ष चुने गए। अपने 5 साल के कार्यकाल में उन्होंने जनता को परेशान नहीं होने दिया। जिसकी चलते ही उनकी अंतिम सांस तक लोगों के दिलों में उनके लिए इज्जत और सम्मान रहा। 

इसे भी पढ़ें: संवेदना, सक्रियता और साहस के तीन मंत्रों से जीती जाएगी कोरोना के खिलाफ जंग

मोहर सिंह ने एक साक्षात्कार में बताया था कि जब वे चंबल के बीहड़ों में कूदे, तब वे नाबालिग थे। इसी वजह से किसी भी गैंग ने उन्हें शामिल नहीं किया। लोग उन्हें नौसिखिया कहते थे। इसे उन्होंने एक चुनौती माना और फिर 150 बागियों की खुद की गैंग खड़ी कर दी। बागी मोहर सिंह के बताया था कि बागी रहते चंबल के जंगलों में उनकी गैंग की बंदूक से निकली गोलियों का शिकार ज्यादातर पुलिस वाले और पुलिस-मुखबिर हुए थे। जिन्हें उन्होंने और उनकी गैंग ने गोलियों से भून डाला था। वह कहते थे कि अब उन्हें कत्लों की सही संख्या तो याद नहीं, मगर 15-20 हत्याओं की याद है। जबकि पुलिस रिकॉर्ड में मोहर सिंह और उनके गैंग के नाम 80 से ज्यादा हत्याएं और 350 से ज्यादा लूट, अपहरण, डकैतियां और हत्या की कोशिशों के मामले दर्ज रहे।

बागी मोहर सिंह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताते थे कि, ‘जब मैं चंबल में कूदा उस वक्त उम्र बहुत कम थी। उम्र के हिसाब से समझ भी कम रही। अगर यह कहूं कि ‘दिमाग’ से जीरो और दिलेरी में हीरो था तो गलत नहीं होगा। सोचा कि घाटी में किसी बड़े गैंग में पहले शामिल होकर महारत हासिल कर लूं, मगर किसी गैंग ने नौसिखिया और छुट भैय्या होने के कारण सीधे मुंह बात नहीं की। बाद में उस जमाने में 150 आदमी का अपना खुद का गैंग खड़ा कर दिया। चंबल में पचास के दशक में जैसे बागियों की एक पूरी बाढ़ आई थी। मानसिंह, रूपा, लाखन, गब्बर, सुल्ताना जैसे डाकूओं से चंबल थर-थर कांप रहा था। वहीं साठ के दशक की शुरूआत में इनमें से ज्यादातर डाकू पुलिस की गोलियों का निशाना बन चुके थे या फिर उनके गैंग छोटे हो चुके थे। लेकिन तभी मोहर सिंह ने चंबल के बिहड़ों में अपनी दस्तक दी। जिसे बाद में चंबल का राजा भी कहा जाने लगा। उन दिनों चंबल घाटी में बागी मानसिंह के बाद सबसे बड़ा नाम मोहर सिंह का था। मोहर सिंह के पास डेढ़ सौ से ज्यादा दस्यु थे। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की पुलिस फाइलों में बागी मोहर सिंह का नाम चंबल के दस्यु गिरोह में E-1 यानि दुश्मन नंबर एक के तौर पर दर्ज था। ऐसा कहा जाता है कि साठ के दशक में चंबल में मोहर सिंह की बंदूक ही फैसला थी और मोहर सिंह की आवाज ही चंबल का कानून। 

चंबल में पुलिस रिकॉर्ड को खंगाला जाए तो 1960 में अपराध की शुरूआत करने वाले दस्यु बागी मोहर सिंह ने इतना आतंक मचा दिया था कि पुलिस चंबल में घुसने तक से खौंफ खाने लगी थी। एनकाउंटर में मोहर सिंह के डाकू आसानी से पुलिस को चकमा देकर निकल जाते थे। मोहर सिंह का नेटवर्क इतना तंगडा था कि पुलिस के चंबल में पांव रखते ही उसको खबर हो जाती थी। जिसके बाद मोहर सिंह अपनी रणनीति बदल देते थे। सन 1958 में पहला अपराध कर पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होने वाले बागी मोहर सिंह ने जब अपने कंधें से बंदूक उतारी तब तक आधिकारिक रिकॉर्ड में वह दो लाख रूपए के इनामी और उसका गैंग 12 लाख रूपए का इनामी गैंग बन चुका था। 1972 में इस रकम को आज के हिसाब से देंखे तो ये राशि करोड़ों का हिसाब पार कर सकती है। 14 अप्रैल 1972 को समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर डाकू मोहर सिंह ने आत्मसमर्पण किया था। करीब 13 साल तक मोहर सिंह और उनके गिरोह के दूसरे डकैत चंबल के बीहड़ों में हथियार लिए घूमते रहे। समर्पण के बाद एक साक्षात्कार में मोहर सिंह ने बताया था कि पुलिस के अत्याचार के कारण वह बागी बन गए थे। जटपुरे गांव में ताकतवर लोगों ने उनकी जमीन छीन ली थी। जब वह पुलिस से मदद मांगने गए तो पुलिस ने उन्हें ही लॉकअप में बंद करके बेरहमी से पीटा। 

इसे भी पढ़ें: गाँधीजी देश के लिए सिर्फ राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं, भारत की मानसिक आजादी भी चाहते थे

मोहर की जिंदगी में भी अपनी छोटी सी जमीन को बचाने की जंग थी। आज जब मोहर सिंह के उस गांव की तरफ रूख करते है तो देखते है कि झाड़ियां ही झाड़ियां और बीच में एक सफेद रंग से पुता हुआ एक मंदिर दिखाई देता है। यहां 60 के दशक में एक भरा-पूरा गांव था। लेकिन अब सिर्फ बीहड़ ही बीहड़ है। गांव अब इससे लगभग एक किलोमीटर दूर जाकर बस गया है और पुराना गांव बिसुली नदी के कछार में समा गया है। इसी गांव से दस्यु बने बागी मोहर सिंह की कहानी शुरू हुई थी। स्थानीय लोगों की मानें तो मोहर सिंह इसी गांव का रहने वाला एक छोटा सा किसान था। गांव में छोटी सी जमीन थी। जिंदगी मजे से कट रही थी। लेकिन चंबल के इलाके का इतिहास बताता है कि किसानों की जमीनों में फसल के साथ-साथ दुश्मनियां भी उगती है। जमीन के कब्जे को लेकर मोहर के कुनबे में एक झगड़ा शुरू हुआ। और इसी झगड़े में मोहर सिंह की जमीन का कुछ हिस्सा दूसरे परिवार ने दबा लिया। गांव में झगड़ा हुआ। पुलिस के पास मामला गया। और पुलिस ने उस समय की चंबल में चल रही रवायत के मुताबिक पैसे वाले का साथ दिया। केस चलता रहा। इस मामले में मोहर सिंह गवाह था। गांव में मुकदमें में गवाही देना दुश्मनी पालना होता है। जटपुरा में एक दिन मोहर सिंह को उसके मुखालिफों ने पकड़ कर गवाही न देने का दवाब डाला। कसरत और पहलवानी करने के शौंकीन मोहर सिंह ने ये बात ठुकरा दी तो फिर उसके दुश्मनों ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। घायल मोहर सिंह ने पुलिस की गुहार लगाई लेकिन थाने में उसकी आवाज सुनने की बजाय उस पर ही केस थोप दिया गया। बुरी तरह से अपमानित मोहर सिंह को कोई और रास्ता नहीं सूझा और उसने चंबल की राह पकड़ ली। वर्ष 1958 में गांव में अपने इसी मंदिर पर मोहर सिंह ने अपने दुश्मनों को धूल में मिला देने की कसम खाई और चंबल में कूद पड़ा। मोहर सिंह ने पहला शिकार अपने गांव के दुश्मन का ही किया। जमीन से शुरू हुई चंबल के इस बागी की कहानी मंगलवार 05 मई 2020 को समाप्त हो गई। जिसने जेपी यानि जयप्रकाश नारायण के कहने पर महात्मा गांधी के विचारों को अपनाते हुए 48 साल पहले बंदूक रखकर समाजवाद की राह पकड़ ली और उसी के लिए अपना जीवन दे दिया।

- दिनेश शुक्ल

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़