डिजिटल मीडिया की चुनौती का डट कर सामना कर रहे हैं समाचार-पत्र

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यह मानना गलत होगा कि इंटरनेट ने समाचारपत्रों की प्रासंगिकता समाप्त कर दी है। अपनी लोकप्रियता, आसान पँहुच, सशक्त रिपोर्टिंग और घटनाओं के सामयिक तथा सटीक विश्लेषण के कारण आज भी समाचारपत्र व्यक्ति के जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित करने में सक्षम हैं।

समाचार पत्रों का आधुनिक स्वरूप व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं, उपलब्धियों, मध्यवर्गीय संभावनाओं, लोकतांत्रिक इच्छाओं, व्यक्ति स्वातंत्रय और व्यावसायिक मानदंडों के विकास का प्रतिफल है। सामाजिक प्राणी बनने के साथ ही मनुष्य के लिए संचार ने एक आधारभूत आवश्यकता का रूप ले लिया था। आरंभ में सूचना संचार के निमित्त व्यक्ति ही ’समाचारपत्र का काम करता था, लेकिन जल्दी ही आवश्यकता ने आविष्कार को जन्म दे दिया और ईसा पूर्व 59 में रोम में 'एक्सा दिउरना’ (रोज की घटनाएं) नाम के इश्तहार का रोजाना प्रकाशन किया जाने लगा। रोम के तत्कालीन शासक जूलियस सीजर का आदेश था कि यह इश्तहार शहर के सभी हिस्सों में उपलब्ध कराया जाना चाहिए। 

          

मुद्रित समाचारपत्र का पहली बार जिक्र सन् 748 ईसवीं में मिलता है, जब चीन में लकड़ी से बने उलटे अक्षरों पर स्याही लगाकर उनसे कागज पर छापने का काम किया गया। चीन की इस उपलब्धि का कारण था कागज की खोज। चीन में होती नाम के हान वंश के सम्राट के शासन काल में कागज बनाने के प्रयोगों में सफलता मिलने लगी थी। यह ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की बात है। ये प्रयोग सम्राट होती के एक प्रमुख दरबारी त्साई लुन द्वारा किए गए थे। इसी के साथ चीन में छोटे पैमाने पर कागज के निर्माण की सफल शुरूआत हो चुकी थी। हालांकि इतिहासकारों के अनुसार इससे पहले मिस्र एवं यूनान में कागज बनाने के प्रयोग किए जा चुके थे। मिस्रवासियों ने 'सिपरस पेपीरस’ नामक पेड़ के तने को नील नदी के दलदल में नरम करके या गला कर उससे कागज बनाने के प्रयोग किए थे। पेपीरस से ही पेपर अर्थात् कागज शब्द अस्तित्व में आया। संभवतः यह वही समय था, जब भारत में लिखने के उद्देश्य से भोज तथा कुछ दूसरे वृक्षों के पत्तों को काम में लाया जाता था।

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इन आरंभिक प्रयासों और सफलताओं के बावजूद विधिवत मुद्रित समाचारपत्र तभी अस्तित्व में आए, जब 1447 में जर्मनी के स्वर्णकार जोहान गुटनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार करने में सफलता प्राप्त कर ली। गुटेनबर्ग ने धातु के अक्षरों को उलटी आकृति में ढालकर मशीन द्वारा मुद्रण का और इस प्रकार ज्ञान के प्रचार-प्रसार के एक नए युग का सूत्रपात किया। इस आविष्कार के दो वर्ष के भीतर ही 42 पंक्तियों वाली बाइबिल सफलतापूर्वक छापी गई, जिसकी संख्या बहुत थोड़े समय में कई लाख तक पहुंच गई।

जल्दी ही इस क्रांति ने मुद्रण उद्योग के द्वार खोल दिए और समाचार पत्र व पत्रिकाएं तथा पुस्तकों के एक नए संसार की रचना होने लगी। बढ़ते व्यापार और कारोबार के साथ तालमेल बैठाते हुए समाचारपत्रों में वाणिज्य और व्यवसाय से संबंधित समाचारों को अधिकाधिक स्थान दिया जाने लगा। इसी दौरान फ्रांस में डाक व्यवस्था की शुरूआत और इंग्लैंड में कागज मिल की स्थापना हुई। 1609 में जर्मनी में ‘अविसा रिलेशन आर्डर जीतुंग’ नाम से यूरोप के पहले नियमित समाचारपत्र का प्रकाशन भी आरंभ हुआ, लेकिन 1665 में प्रकाशित ‘लंदन गजट’ को ही पहला वास्तविक समाचारपत्र माना गया। इसमें पहली बार डबल कॉलम में समाचार छापने का प्रयोग किया गया। यह पत्र आज भी निकलता है।

समाचारपत्रों के बुनियादी विकास और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ प्रकाशन की नींव 17वीं शताब्दी में पड़ी। इस काल में जर्मनी के अलावा फ्रांस, बेल्जियम और इंग्लैड में भी नियमित पत्रों का प्रकाशन होने लगा। इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध के अखबारों की मुद्रित सामग्री में भी पाठकीय रूचि के अनुरूप परिवर्तन होने लगा। अब स्थानीय मुद्दों को और अधिक प्रमुखता दी जाने लगी। हालांकि अभी ज्यादातर अखबारों के लिए सेंसरशिप जैसी स्थितियां बरकरार थीं। स्वीडन दुनिया का पहला ऐसा देश था, जिसने 1766 में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के उद्देश्य से कानून बनाया।

इसी समय भारत में भी पत्रकारिता की नींव पड़ी। 29 जनवरी 1780 में एक धनी अंग्रेज यात्री जेम्स आगस्टस हिकी ने ‘बंगाल गजट’ के नाम से देश का पहला समाचारपत्र प्रकाशित किया। हिकी ने अंग्रेज शासकों के कारनामों की ऐसी पोल खोली कि उसे झूठे मामलों में जेल की यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन उसने पत्रकारिता की आजादी के लिए संघर्ष किया और जुर्माना भी भरा। हिकी ने ‘बंगाल गजट’ के बाद एक ‘अन्य अंग्रेज विलियम ड्यून ने ‘बंगाल जनरल’ के नाम से 1785 में एक और पत्र निकाला। 1785 में ही मद्रास से एक अन्य अंग्रेज वॉयड ने ‘मद्रास क्रूरियर’ शुरू किया। 1789 में मुंबई से ’बॉम्बे हेराल्ड’ नाम से पहला पत्र निकला। मुंबई से ही 1790 में 'बॉम्बे कूरियर’ और 'बॉम्बे गजट’ का प्रकाशन शुरू हुआ।

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वर्ष 1844 में टेलीग्राफी के आविष्कार ने समाचारपत्रों की दुनिया का नक्शा ही बदल दिया। इससे मिनटों में सूचना संप्रेषण की सुविधा हासिल हो गई और यथार्थपरक रिपोर्टिंग तथा समय रहते सूचना संप्रेषण संभव हो सका। इस मध्य औद्योगिक क्रांति ने भी समाज में अनेक परिर्वतनों के द्वारा खोले और समाचारपत्र भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे। उनकी संख्या और पाठकों की तादाद दोनों में भारी वृद्धि हुई।

इसी बीच अखबार के लिए एक अलग किस्म के कागज के आविष्कार में सफलता हाथ लगी। 1838 में हैलीफैक्स के चार्ल्स फेनरटी को न्यूज प्रिंट बनाने में कामयाबी मिली। चार्ल्स साधारण कागज बनाने के लिए रद्दी और चीथड़ों की मात्रा का सही अनुपात बैठाने की कोशिश कर रहा था कि अकस्मात लकड़ी की लुगदी से कागज की ऐसी किस्म बनाने में सफलता मिल गई, जो अखबार छापने के लिए बहुत उपयोगी था। हालांकि चार्ल्स ने इसका पेटेंट कराने की व्यावसायिक सूझबूझ नहीं दिखाई और इस खोज को कुछ दूसरे लोगों ने अपने नाम लिखा लिया।

19वीं सदी के ही तीसरे दशक में हिंदी की यशस्वी और संस्कारवान पत्रकारिता की आधारशिला रखी गई। 30 मई 1826 को युगलकिशोर शुक्ल ने साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ शुरू किया। यह पत्र समाचार चयन, भाषा और सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से परंपरा और नए आदर्शों का वाहक बना। लगभग इसी समय महान सुधारवादी नेता राजा राममोहन राय भाषाई पत्रकारिता के लिए उर्वर जमीन तैयार कर रहे थे। उन्होंने बंगला के साथ-साथ अंग्रेजी में भी पत्रों का प्रकाशन किया।

सदी के इसी दशक में ऐसे भारी-भरकम प्रिंटिंग प्रेस बनाए जा सके, जो एक घण्टे में 10 हजार मुकम्मल अखबार छापने की क्षमता रखते थे। इन्हीं दिनों फोटोग्राफी की तकनीक भी ईजाद की गई। उसका इस्तेमाल करते हुए पहली बार कई स्थानों से सचित्र साप्ताहिक समाचारपत्र निकाले जाने लगे। 19वीं शताब्दी के मध्य तक समाचार पत्रों ने समाज में अपना विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। वे सूचनाओं को ग्रहण करने और उनका प्रसारित करने का मुख्य माध्यम बन गए।

1890 से 1920 के बीच के तीन दशकों के समाचारपत्र उद्योग का स्वर्णिम काल कहा जा सकता हैं। इस दौरान विलियम रेनडॉल्फ हर्स्ट, जोसेफ पुलित्जर और लॉर्ड नॉर्थक्लिफ के प्रकाशन साम्राज्य स्थापित हुए। इतना महत्व और विश्वसनीयता हासिल करने के बाद आंदोलन और क्रांति के संवाहक की भूमिका भी समाचारपत्र निभाने लगे। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण 1900 में लेनिन द्वारा प्रकाशित ‘इस्क्रा’ (चिनगारी) हैं। इसी प्रकार 21 जून 1925 को वियतनाम में ‘थान नियन’ मार्क्सवाद के प्रचार के उद्देश से निकाला गया। भारत में भी हिंदी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं के समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ तेजी से प्रकाशित होने लगे और यह क्रम 21वीं सदी में निरंतर जारी है। भारत में आज समाचारपत्र उद्योग का रूप ले चुका है।

वर्ष 1920 में रेडियो के प्रादुर्भाव ने समाचारपत्रों को समाज में सूचना के प्रमुख वाहक की अपनी भूमिका पर गंभीरता से पुनर्विचार करने के लिए विवश कर दिया। रेडियो के रूप में सूचना के रास्ते और सर्वसुलभ साधन के बाद इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि यह नई सुविधा समाचारपत्र उद्योग को धराशायी कर देगी। इस चुनौती का सामना करने के लिए अखबारों ने अपने रूप-रंग और सामग्री में परिवर्तन लाते हुए स्वयं को अधिक पठनीय, ज्यादा विचारपूर्ण और ज्यादा खोजपूर्ण सामग्री के साथ प्रस्तुत किया। समाचारपत्र अभी इस चुनौती से निपट ही पाए थे कि उससे भी ज्यादा ताकतवर और प्रभावशाली माध्यम के रूप में टेलीविजन ने और अधिक गंभीर चुनौती पेश कर दी।

तकनीक के विस्तार और विकास के साथ-साथ समाचारपत्रों ने भी अपने रूप-रंग को सुंदर, आकर्षक और दर्शनीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन अब फिर एक नई चुनौती मुद्रित मीडिया के सामने आ खड़ी हुई है- पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में यह चुनौती इंटरनेट ने पेश की है। इससे पहले कभी भी सूचनाओं का ऐसा महासागर एक साथ इतने लोगों को उपलब्ध नहीं था। फिर भी यह मानना गलत होगा कि इंटरनेट ने समाचारपत्रों की प्रासंगिकता समाप्त कर दी है। अपनी लोकप्रियता, आसान पँहुच, सशक्त रिपोर्टिंग और घटनाओं के सामयिक तथा सटीक विश्लेषण के कारण आज भी समाचारपत्र व्यक्ति के जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित करने में सक्षम हैं। एक अनुमान के अनुसार हर दिन करोड़ों व्यक्ति कम से कम एक अखबार अवश्य पढ़ते हैं। वर्तमान में प्रिंट मीडिया इंटरनेट की निरंतर प्रखर होती चुनौती का सामना डट कर कर रहा है।

-डॉ. प्रभात सिंघल

लेखक एवं पत्रकार, कोटा

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