क्या सचमुच इंटरनेट इतना जरूरी है कि इसे मौलिक अधिकार माना जाये ?

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संविधान के हर मौलिक अधिकार उसके नागरिकों के सर्वांगीण विकास के कारक के रूप में अधिमान्य किये गए हैं लेकिन इंटरनेट की सामाजिक उपयोगिता के विश्लेषणात्मक आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट की निर्बाध उपयोगिता को मौलिक अधिकार के समकक्ष दर्जा देते हुए जम्मू-कश्मीर में इसकी बहाली के लिये सरकार को निर्देशित किया है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है और कोर्ट ने इंटरनेट की निर्बाध उपयोगिता को इसी आलोक में रेखांकित किया है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि इंटरनेट की आजादी पर कोई युक्तियुक्त पाबंदी मुल्क की सुरक्षा या सामाजिक सरोकारों की जमीन पर संभव है या नहीं ? क्या नागरिक आजादी का नागरिक व्यवस्था के साथ किसी तरह का जवाबदेह युग्म होना चाहिये अथवा नहीं ? इंटरनेट की जिस आजादी को मौलिक अधिकार के साथ जोड़ने की कोशिश सुप्रीम कोर्ट ने की है उसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी बहुत दूरगामी महत्व के हैं। भारत का संविधान उन्मुक्त और स्वच्छन्दता के साथ नागरिक आजादी की व्यवस्था नहीं देता है वह इस पर युक्तियुक्त निर्बन्धन का पक्षधर है। लेकिन हकीकत की जमीन पर पिछले 72 सालों में अनुच्छेद 19 की व्याख्या बगैर जवाबदेही के ही की गई है। इसके राष्ट्रीय तत्व को सुनियोजित तरीके से तिरोहित किया गया है। भारत तेरे टुकड़े होंगे या अफजल हम शर्मिंदा हैं जैसे अभिव्यक्ति के नारे असल में अनुच्छेद 19 की उसी व्याख्या और संरक्षण पर खड़े हैं जो राष्ट्र राज्य की अवधारणा के विरुद्ध हैं। दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में इस तरह की आजादी का उदाहरण हमें देखने को नहीं मिलता है। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को इस आधार पर भी विश्लेषित किया जाएगा।

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इस निर्णय का सामाजिक पहलू भी गौर करने वाला है। संविधान के हर मौलिक अधिकार उसके नागरिकों के सर्वांगीण विकास के कारक के रूप में अधिमान्य किये गए हैं लेकिन इंटरनेट की सामाजिक उपयोगिता के विश्लेषणात्मक आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। हाल ही में जारी एक वैश्विक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में सबसे ज्यादा पोर्न देखने वालों में भारत नम्बर एक पर है। भारत में इस समय 450 मिलियन स्मार्ट फोन यूजर हैं। 2019 में भारत के 89 फीसदी यूजर अपने स्मार्ट फ़ोन पर पोर्न मूवी देखते हैं। 2017 में यह आंकड़ा 86 फीसदी था। मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली कम्पनी एरिक्सन के अनुसार भारत में औसत 9.8 जीबी मासिक खपत स्मार्टफोन पर है और 2024 में यह बढ़कर 18 जीबी प्रति महीने होगी। अब सवाल यह है कि जब हमारा इंटरनेट उपयोग का संजाल इस बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है तब इसकी सामाजिक उत्पादकीय क्षमताओं का मूल्यांकन होना चाहिये या नहीं। बेशक इंटरनेट ने लोकजीवन को सरलता और सुविधाओं के धरातल पर एक अकल्पनीय आयाम दिया है लेकिन इसके देय उपयोग को मूलाधिकारों के साथ जोड़ा जाना कुछ अतिशय आजादी की ओर इशारा करता है। हमारा लोकजीवन सदैव संयमित यौनाचार का हामी रहा है और एक आत्मकेंद्रित अनुशासन ने हजारों सालों से हमारे सामाजिक और पारिवारिक ताने बाने को मर्यादित रखा है।

सवाल यह है कि क्या सर्व सुलभ इंटरनेट की यह आजादी हमारी मर्यादित जीवन पद्धति को निगल नहीं रही है। निर्भया केस के अपराधी हों या हैदराबाद के दरिंदे इस यौन हिंसा के बीज कहीं न कहीं इंटरनेट पर निर्बाध रूप से उपलब्ध पोर्नोग्राफी साइटों में ही नजर आते हैं। इंदौर के बाल सम्प्रेक्षण गृह में रह रहे दो नाबालिगों ने स्वीकार किया कि 14 वर्षीय बालिका के बलात्कार से पहले उन्होंने पोर्न मूवी अपने मोबाइल पर देखी थी। जाहिर है इंटरनेट की यह आजादी हमारे लोकाचार की मर्यादा को निगल रही है। फ़ोर्ब्स पत्रिका के ताजा 100 भारतीय आइकॉन्स की लिस्ट में सनी लियॉन भी शामिल है क्योंकि उन्हें इस नेट ट्रैफिक में हमने सर्वाधिक खोजा है। 2019 में अमेरिका, इंग्लैंड, ब्राजील, फ्रांस जैसे देशों से भी हम भारतीय पोर्न देखने के मामले में आगे रहे हैं। सवाल यह भी है कि क्या 2013 की 40 फीसदी की पोर्न लत के 2019 में 86 फीसदी तक पहुँचने के साथ ही हमारी चेतना का स्वरूप समेकित रूप से विकृत तो नहीं हो रहा है। क्या हम एक कामांध समाज की चेतना का निर्माण कर रहे हैं। 2017 में जियो के आने के बाद स्मार्टफोन पर जिस तरह से पोर्नहब हमने अपने मन में विकसित कर लिये है वह इस बात की चेतावनी भी है कि हमारे इंटरनेट उपभोग पर तार्किक बंधन भी आवश्यक है।

केंद्र सरकार ने पिछले सालों में करीब 400 पोर्नसाइट्स पर प्रतिबंध लगाया है इसके बावजूद जियो कम्पनी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि इससे महज 200 एमबी डाटा की खपत स्मार्टफोन से घटी है। समझा जा सकता है कि हमारी सामूहिक चेतना किस तरफ उन्मुख है। इसलिये इंटरनेट की मौलिक आजादी का नियमन और नियंत्रण अत्यावश्यक है। केवल एक नागरिक की आजादी भर से यह जुड़ा हुआ सीमित महत्व का मामला नहीं है ये समाज की सेहत का आधार भी है। जाहिर है इसे बोलने, घूमने, फिरने, रहने जैसी जीवनोपयोगी स्वतंत्रता के समानांतर नहीं रखा जा सकता है। एक सभ्य और सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र के अपने अंतर्निहित हित होते हैं जो सर्वोपरि हैं अगर इंटरनेट की मौलिक स्वतंत्रता राष्ट्रीय राज्य की अवसरंचना या सुरक्षा में खलल पैदा करती है तो कोई भी सम्प्रभु राज इसे स्वीकार नहीं करेगा।

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इंटरनेट के मौलिक अधिकार पर जश्न मनाने वाले बड़े वर्ग को इस तथ्य को समझना ही होगा कि इस आजादी की बुनियाद पर न तो राष्ट्रीय सुरक्षा और न ही सामाजिक विद्रूपता को खड़ा किया जा सकता है। असल में भारत के चुनावी लोकतंत्र ने आजादी के मायनों को अपनी अपनी सुविधा की व्याख्या पर खड़ा कर रखा है। सोशल मीडिया के असीमित प्रभाव ने इसमें करोड़ों लोगों को एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध करा दिया है और आज कथित तौर पर जनमत को प्रभावित करने का यह सशक्त हथियार भी बन गया है। स्वाभाविक ही है कि भारत जैसे देश में जहां नेशन फर्स्ट का कोई विचार नागरिकों के जेहन में नहीं रहता है वहां इस नेट की तार्किक आजादी का विचार ही राष्ट्रीय हित में है।

-डॉ. अजय खेमरिया

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