यह योजना सफल रही तो ''गोपनीयता'' को मिलेगा श्रेय

कालेधन पर वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान बहुत ऊपर रहा है। देश के भीतर भी कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था चलती रही है। इसका दुष्परिणाम अनेक क्षेत्रों में दिखाई दे रहा था। बजट का निर्माण और भविष्य की योजनाओं का निर्धारण सदैव सफेद या नम्बर एक के धन पर होता है लेकिन जब अवैध सम्पत्ति का अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव होता है तब बजट अनुमान भी गड़बड़ा जाते हैं। इसके अलावा भ्रष्ट तंत्र निवेश पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कालाधन राजकोष को भी कमजोर बनाता है। जो धन राजकोष में जमा होना चाहिए वह चुनिंदा लोगो के निजी कोष में पहुंच जाता है। इससे लोककल्याण के विभिन्न कार्यक्रमों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसा भी नहीं कि सत्ता में बैठे लोग इस तथ्य से अनजान रहे हैं। पिछली संप्रग सरकार में तो एक से बढ़कर एक अर्थशास्त्री थे। कालेधन पर खूब चर्चा होती थी। उसे रोकने की बात कही जाती थी लेकिन कालाधन रोकने की कौन कहे जब घोटालों के रिकार्ड कायम हो रहे थे। प्रदेश सरकारों ने भी भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किए।
देश में काले धन और अवैध अर्थव्यवस्था की जड़ें बेहद व्यापक हो गयी थीं। इसका समाधान सामान्य प्रयासों से संभव ही नहीं था। सामान्य कदमों की काट निकालने में माहिर लोगों की कमी नहीं थी। अवैध कमाई रोकने संबंधी कानूनों की कमी तो पहले भी नहीं थी लेकिन भ्रष्ट तंत्र के सामने ये सभी कानून जवाब देने लगे थे। ऐसे में असाधारण फैसला करने की आवश्यकता थी। किसी भी शासक के लिए असाधारण फैसले लेना जोखिम की भांति होता है। यह दोधारी तलवार पर चलने जैसा माना जाता है। यही कारण है कि कई बार ईमानदार शासक भी इस हद तक जाने का साहस नहीं जुटा पाते। वह भ्रष्टाचार व कालेधन को रोकने की बात करते हैं, दोषियों को सजा दिलाने का दावा करते हैं निष्पक्ष जांच का विश्वास दिलाते हैं किन्तु अंततः वह परिस्थितियों से समझौता करते दिखाई देते हैं। इस तरह वह अपना पद तो सुरक्षित कर लेते हैं लेकिन कालेधन पर रोक लगाने में उन्हें रंचमात्र सफलता नहीं मिलती। इसीलिए कालाधन अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। किसी शासक का स्वयं ईमानदार होना पर्याप्त नहीं होता। यह तो उसकी निजी विशेषता हो सकती है। सार्थकता तब होती है जब उसमें भ्रष्टाचार रोकने की प्रबल इच्छा शकित हो। नरेन्द्र मोदी इसी बिन्दु पर औरों से अलग दिखाई देते हैं। उनके सामने दो विकल्प थे। एक तो जैसा चल रहा था वैसा चलने देते। घोटालों के मामलों की जांच चलती रहती, यह दावा भी चलता रहता कि कानून अपना कार्य करेगा। दूसरा विकल्प था गहराई तक व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कठोर फैसला लिया जाए। ऐसे फैसले का प्रारंभिक चरण संक्रमण काल जैसा होता है। कुछ अफरातफरी दिखाई देती है। व्यक्तिगत कारणों से जिन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा उन्होंने प्रधानमंत्री को कोसा। जिनके यहां विवाह था या कोई बीमार हुआ उन सबको पांच सौ, हजार के नोट बंद होने से परेशानी का सामना करना पड़ा। ऐसे लोग नरेन्द्र मोदी के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हुए देखे गए। इनका कहना था कि फैसले को एक दम से अर्थात बिना किसी पूर्व सूचना के लागू करना गलत था। पहले पता होता तो वह उसी के अनुरूप इंतजाम कर लेते। ऐसे सभी लोगों की भावनाओं को समझा जा सकता है।
तथ्य यह है कि यदि चौबीस घंटे का भी समय दिया जाता तो इसका फायदा जरूरतमंद लोग भले ही न उठा पाते, किन्तु बोरों में नोट रखने वाले वारा−न्यारा अवश्य कर लेते। फिर यह संपूर्ण योजना पूर्ण प्रभावी नहीं हो सकती थी। ऐसा नहीं कि नरेन्द्र मोदी को अपनी आलोचना और अनेक लोगों को होने वाली तकलीफ का अंदेशा नहीं था। सरकार ने दवा की दुकानों, अस्पतालों, रेलवे, सार्वजनिक सरकारी परिवहन, डेबिट कार्ड और अन्य डिजिटल माध्यमों को दायरे से बाहर रखा। ऐसे में प्रदेश सरकारों की भी जिम्मेदारी थी कि वह इस व्यवस्था में सहयोग हेतु कदम उठातीं, तब शायद लोगों को कम कठिनाई का सामना करना पड़ता।
यह योजना यदि सफल होगी तो इसका प्रमुख कारण इसकी अंत तक कायम रही गोपनीयता मानी जाएगी। यदि बहुत कारगर न हुई तो भी प्रधानमंत्री की आलोचना होगी। इसीलिए कहा जा सकता है कि मोदी ने दोधारी तलवार पर चलने का फैसला लिया है। इस संबंध में शासक की नीयत पर भी विचार होना चाहिए। मोदी इस हलचल व संक्रमण काल से बचे रह सकते थें। वह नहीं जानते कि योजना किस हद तक सफल होगी, लेकिन यथास्थिति को बनाए रखना उन्होंने मंजूर नहीं किया। योजना की सफलता−विफलता से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि मोदी भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करना चाहते हैं। उनकी सरकार ने संघीय शासन के उच्च स्तर पर घोटाले रोकने में सफलता भी प्राप्त की है। स्पेक्ट्रम, कोयला ब्लाक आवंटन में पिछली सरकार के दौरान जितने लाख करोड़ का घोटाला होता था उससे
अधिक आज सरकारी खजाने को लाभ होने लगा।
राजनीति, चुनाव में बेशुमार कालाधन लग रहा है। कुछ वर्षों से तो कई पार्टियों में टिकट की कीमत ही करोड़ों तक पहुंच गयी। टिकट खरीदना, चुनाव लड़ना सब बेहद खर्चीला हो गया। सामान्यजन के लिए चुनाव लड़ना मुश्किल होने लगा। इतना खर्चा करके जीतने वालों से फिर ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है। सत्ता में आने के बाद ऐसे नेता भ्रष्टाचार में माहिर−शातिर अफसरों की तलाश करते हैं उन्हें मलाईदार पदों पर तैनात किया जाता है। सरकारें बदलती हैं लेकिन ऐसे चर्चित अफसर अपनी अहमियत बनाए रखते हैं। ऐसे में मोदी का फैसला चुनावी राजनीति में कालेधन को कुछ सीमा तक भी रोक सका तो उसका दूरगामी प्रभाव होगा।
क्या इस सामाजिक व्यवस्था में भी धन के प्रदर्शन का महत्व नहीं बढ़ा है। यहां भी कालेधन ने एक सामाजिक प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी है। क्या समाज को इस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। भारत आतंकवाद से भी पीड़ित है। आतंकवाद तस्करी, ड्रग, हथियारों के अवैध व्यापार से संचालित होता है। कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों को भी भुगतान किया जाता है। यदि मोदी का फैसला इस पर नकेल लगा सका तो सार्थक होगा। कालेधन का बोलबाला कम होता तो निवेश भी बढ़ेगा। महंगाई कम होने की संभावना है। कालेधन के खिलाफ माहौल बना, जागरूकता बढ़ी तभी यह बड़ी उपलब्धि होगी।
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
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