Interview: इलेक्टोरल बांड के खिलाफ अपनी लड़ाई को जगदीप छोकर ने अंजाम तक पहुँचाया

Jagdeep Chhokar
Prabhasakshi
डॉ. रमेश ठाकुर । Feb 24 2024 12:53PM

जगदीप छोकर ने कहा कि अदालत के फैसले को मैं ‘देर आए दुरुस्त आए’ ही कहूंगा। क्योंकि निर्णय कुछ महीनों से कोर्ट में रिजर्व था। जिसे काफी पहले सुनाया जाना चाहिए था। निर्णय को दो भागों में लिखा गया। पहले निर्णय को चार जजों ने और दूसरे निर्णय को एक अन्य जज ने लिखा।

चुनाव के ऐन वक्त पर सुप्रीम कोर्ट ने ‘चुनावी बॉन्ड योजना’ को असंवैधानिक करार देकर सियासी दलों में कोहराम मचा दिया है। सत्ताधारी दल के लिए ये चोर दरवाजे से प्राप्त करने वाली ऐसी व्यवस्था थी जिस पर कोई उंगली भी नहीं उठाता था और कुल मिलाकर उनका ही एकछत्र राज भी था। इस योजना से विपक्षी दलों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। चंदेदारों द्वारा विगत 5 वर्षों में जितने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए, वो सभी सत्ताधारी के ही नाम रहे। किसने कितना धन दिया? देने वाला कौन है, कहां का है, क्या करता है? किसी को कुछ नहीं पता? सूचना के अधिकार से भी दूर रखा। पर, अब इस व्यवस्था पर कोर्ट ने ऐसा चाबुल चलाया है जिससे सियासी दलों से कुछ बोलते नहीं बनता। ये अलख जगाई है प्रो. जगदीप एस. छोकर ने जो विश्व प्रसिद्ध ‘एडीआर’ संस्थान के संस्थापक हैं। उनसे विस्तृत बातचीत हुई पत्रकार डॉ. रमेश ठाकुर द्वारा। पढ़ें बातचीत के कुछ चुनिंदा अंश इस साक्षात्कार में।

प्रश्न- सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार चुनावी बांड को असंवैधानिक बता दिया है, कैसे देखते हैं आप इस फैसले को?

उत्तर- पेचिदगियां हैं अभी कई सारी। फैसले को मैं ‘देर आए दुरुस्त आए’ ही कहूंगा। क्योंकि निर्णय कुछ महीनों से कोर्ट में रिजर्व था। जिसे काफी पहले सुनाया जाना चाहिए था। निर्णय को दो भागों में लिखा गया। पहले निर्णय को चार जजों ने और दूसरे निर्णय को एक अन्य जज ने लिखा। बहरहाल दोनों की भाषा एक ही है। अब गेंद चुनाव आयोग के पाले में हैं। कोर्ट ने उन्हें तीन सप्ताह का वक्त दिया है जिसमें उन्हें संपूर्ण चंदे के राशि और दानदाताओं की पूरी सूचना सार्वजनिक करनी है। करीब एक सप्ताह तो बीत चुका है। मोटा-मोटा आंकड़ा तो 16000 करोड़ रुपए का है। देखते हैं, चुनाव आयोग कितना पैसा दर्शाता है और सभी के नाम उजागर करता है या नहीं?

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प्रश्नः इलेक्टोरल बॉन्ड में कमियां क्या थीं?

उत्तर- खामियां कोई एक थोड़ी थी, बहुतेरी थीं। अव्वल, तो यही कि न तो धन के स्त्रोत का पता चल पाता था और न ही देने वाले का परिचय? लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे पीछे हाथ से रिश्वत लेना कहते हैं। एक दिक्कत और थी इसमें सबसे बड़ी। रूलिंग पार्टी के हिस्से ही आता था सारा का सारा इलेक्टोरल बांड। बाकी विरोधी पार्टियां तो ठनठन गोपाल रहती थीं। 2017 से अगर देखें तो तकरीबन एक तिहाई यानी 75 फीसदी चुनावी बांड की रकम सत्ताधारी दल के खाते में गई। बाकी अन्य दलों को मात्र 25 फीसदी से संतोष करना पड़ा। ये बात सार्वजनिक हो चुकी थी कि ये व्यवस्था खुलेआम रूलिंग दल को फायदा पहुंचाती थी। पैसे और उसके स्वामी के संबंध में जानकारी पब्लिक डोमेन में रत्ती भर पहुंचने नहीं दी जाती थी।

  

प्रश्नः अगर ये व्यवस्था बंद हुई, तो आपको नहीं लगता, चुनावी चंदे का गड़बडझाला फिर से पुराने समय जैसा लौट जाएगा?

उत्तर- निश्चित रूप से इस तरह के अंदेशों को खारिज नहीं किया जा सकता। सियासी दल बिना चंदे के चल ही नहीं सकते। चुनावों में उन्हें पैसा चाहिए ही होगा। फिर चाहे वो पैसा उन्हें काले धन के रूप में मिले, या फिर कोई छंटा हुआ अपराधी ही क्यों न दे। हम सभी देखते हैं कि चुनाव आज कितने खर्चीले हो गए हैं। गांव के प्रधानी चुनाव में भी कई लाख रुपए लोग खर्च कर देते हैं। लोकसभा-विधानसभा चुनाव में पार्टियां पानी की तरह पैसा बहाती हैं। प्रत्येक चुनाव में चुनाव आयोग की ओर से करोड़ों-अरबों रुपए पकड़े जाते हैं। वो पैसा सीधे-सीधे काला धन ही होता है। ये भविष्य में भी होगा। अगर नहीं होगा तो उसका कोई अलहदा तरीका सियासी दल खोजेंगे। तब, हमारी लड़ाई उन तरीकों का भी पीछा करेगी। बिना चंदे के गुजारा कहां, खोजेंगे नया कोई न कोई तरीका।

प्रश्नः चुनावी चंदे का धंधा बंद हो, इसके लिए कैसी व्यवस्था होनी चाहिए?

उत्तर- बहुत मुश्किल है, लेकिन आसान भी? चुनावों में उम्मीदवारों के लिए धन खर्च करने का निर्धारण तय होना चाहिए। सीमित धन में अगर कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ेगा, तो व्यवस्थाएं अपने आप सुधर जाएंगी। पर, एक सच्चाई ये भी है कि अभी तक धन खर्च करने की जितनी छूट है, उतना तो एक उम्मीदवार रैली में भाड़े के हेलीकाप्टर पर खर्च कर देता है। क्या ये सब चुनाव आयोग को नहीं दिखता। देखिए, किसी भी व्यवस्था या नियम का मकसद यही होता है कि हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार और धन, बल का हस्तक्षेप न हो और स्वच्छ चुनाव हों। इसके लिए कठोर कानून की जरूरत है और चुनाव आयोग को प्रगतिशील कदम उठाने होंगे। कागजी और दिखावटी कार्रवाई से काम नहीं चलेगा। कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड के विक्रय करने वाले ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ को 3 हफ्ते में चुनाव आयोग के साथ सभी जानकारियां साझा करने का जो निर्देश दिया, उसमें कई सारी बातें साफ हो जाएंगी।

प्रश्नः चुनावी बांड को सूचना के अधिकार से भी अलग रखा गया?

उत्तर- मैंने कहा न, ये व्यवस्था खुलेआम डाका डालने जैसी है। कई कानूनों में संशोधन करके इस व्यवस्था को जन्मा गया। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक माना। ये सीधे-सीधे सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पिछले 5 वर्षों मिले चंदे का हिसाब-किताब भी देने को कहा है। देखना, यहां भी आनाकानी होगी। विपक्षी दल भी ब्यौरा देने से कतराएंगे। कहने को तो चुनावी बॉन्ड एक वचन-पत्र या धारक बांड की प्रकृति का उपकरण है, जिसे किसी भी व्यक्ति या कंपनी द्वारा खरीदा जा सकता है, बशर्ते वह व्यक्ति या निकाय भारत का नागरिक हो या भारत में निगमित हो। लेकिन इसमें खामियां और पर्दादारी कितनी रखी गई, उसे सार्वजनिक करने से सभी की सांसें फूलती रहीं।

प्रश्नः चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करने में आखिर परहेज क्या है?

उत्तर- क्यों परहेज नहीं है? कोई किसी को खैरात में धन क्यों देगा? सामने वाले से फायदा उठाने के मकसद से ही अपना धन लुटाएगा। देने और लेने वाले के मध्य एक बकायदा गुप्त एग्रीमेंट होता है। कोई धन्नासेठ जब किसी दल को बड़ी रकम देता है, तो बाद में टेंडर या कोई बड़ा काम निकलवाता है। कुछ तो कानून में भी बदलाव करवाते हैं। सियासी दलों को गुमनामी चंदा ज्यादातर बड़े उद्योगपतियों व औद्योगिक घरानों से मिलता है। चंदा देने के बाद ये अपना हित साधते हैं। चंदा खाने के बाद सरकारों को भी तमाम नीतियां उन्हीं के मनमाफिक बनानी पड़ती हैं। तभी तो वो जमकर पानी का दोहन करती हैं, जंगलों की कटाई करने से भी बाज नहीं आती। उनके कृत्य को देखकर जनता चीखती-चिल्लाती है। लेकिन उन्हें ये नहीं पता होता उसमें दोनों की मिलीभगत होती है।

बातचीत में जैसा प्रो. जगदीप एस. छोकर ने कहा। 

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