देश में होने वाले अपराधों का बहुत बड़ा कारण है विवाहेतर संबंध

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राकेश सैन । Oct 4 2018 11:20AM

विवाहेतर संबंधों के चलते पति, सास-ससुर की हत्या की वारदातें अब सामान्य हो चली हैं लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र में एक ऐसा केस आया जिसमें व्यभिचारिनी महिला ने अपनी बच्चियों को विष देकर मार डाला।

लंका दहन के बाद हनुमान जी माता सीता को अपनी पीठ पर बैठा कर भगवान श्रीराम के पास ले जाने की क्षमता का बखान करते हैं। उस रामदूत को पुत्र कह कर संबोधन करने वाली माँ सीता कहती हैं कि रावण द्वारा हरण किए जाने के समय वह असहाय थीं। इसी बेबसी में पर पुरुष ने उनका स्पर्श किया परंतु वह स्वेच्छा से ऐसा करने की सोच भी नहीं सकतीं। अपने प्राण प्रिय पति श्रीराम से मिलने की अत्यंत व्याकुलता के बावजूद भी सीता ने हनुमान जी के रूप में दूसरे पुरुष का स्पर्श स्वीकार नहीं किया। रामायण की दूसरी पात्र है शूर्पनखा, पंचवटी से गुजरते समय पहले वह श्रीराम पर मोहित हुई और इंकार किए जाने के बाद लक्ष्मण के सम्मुख प्रेम प्रस्ताव करती है। उसकी वासना उसे कभी राम तो कभी लक्ष्मण की ओर भटकाती है। सीता और शूर्पनखा दो महिलाएं होने के साथ-साथ दो विचारधाराएं भी कही जा सकती हैं। सीता प्रतीक हैं सतीत्व, चरित्र, त्याग की और शूर्पनखा प्रतिनिधि है व्यभिचार, लंपटगिरी और मर्यादा विच्छेद की।

एक रामराज्य की नींव है तो दूसरी की न केवल नाक ही कटती बल्कि कुलघातिनी भी साबित होती है। देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विवाहेतर संबंधों को मान्यता देने और व्यभिचार को नारी समानता व सम्मान का दर्जा देने के बाद अब संपूर्ण भारतीय समाज के सामने जरूरत महसूस होने लगी है कि वह अपने जीवन पथ के सही मार्ग का चयन करे। समाज के सम्मुख दोनों मार्ग पर चलने की स्वतंत्रता है परंतु चयन उसे करना है कि वह सीता के मार्ग का अनुसरन कर रामराज्य की ओर जाना चाहता है या शूर्पनखा के रास्ते लंकादहन और कुल के नाश की ओर। नवीनतम तकनोलोजी ने जहां आम भारतीयों के घरों में घुसपैठ करनी आसान कर दी है वहीं स्वच्छंदता की स्वतंत्रता और समानता के रूप में न्यायिक व्याख्या ने सामाजिक व परिवारिक मर्यादा रूपी झीनी डोरी पर कुठाराघात का प्रयास किया है। ऐसे में हमें न केवल परिवारों को संभालना होगा बल्कि घात सहती व विस्मृत मर्यादाओं की पुर्नस्थापना करनी होगी। अपनी मनीषा में काम वर्जित नहीं बल्कि इसे धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ जीवन के चार पुरुषार्थों में स्थान मिला है। हमारा दर्शन मानता है कि अव्यक्त ब्रह्म ने काम का सृजन कर ही अपने आप को व्यक्त किया। काम के बिना न तो सृजन हो सकता है और न ही जीवन का निर्वाह। परंतु जब तक काम अनुशासन में है वह समृद्धिकारक और सृजनात्मक है और अनुशासनहीन होते ही उन्मादित हो दुखों का कारण बनता है। सीता अनुशासन है तो शूर्पनखा स्वच्छंदता या कह लें कि अनुशासनहीनता।

व्यभिचार, जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने लैंगिक समानता का नया नाम दिया है, के चलते अकसर बहुत से परिवार बिखरते, बड़े-बड़े अपराध होते और बच्चों को ठोकरें खाते हुए देखे जाते हैं। विवाहेतर संबंधों के चलते पति, सास-ससुर की हत्या की वारदातें अब सामान्य हो चली हैं लेकिन हाल ही में महाराष्ट्र में एक ऐसा केस आया जिसमें व्यभिचारिनी महिला ने अपनी बच्चियों को विष देकर मार डाला। समाज में फैल रही उछृंखलता और बढ़ रहे विवाहेतर संबंधों से कानून व्यवस्था के समक्ष कितनी चुनौतियां पेश आ रही हैं। यह सामाजिक विज्ञानियों के लिए अनुसंधान का विषय है और अनुमान है कि जिस दिन इस तरह कोई जांच रिपोर्ट आई तो पता चलेगा कि देश में होने वाले अपराधों का बहुत बड़ा कारण यही संबंध हैं। पत्नी को अपने पति या पति को पत्नी के विवाहेतर संबंधों का पता चलने के बाद पीड़ित पर क्या बीतती है उसका अनुमान दूसरा नहीं लगा सकता। बहुत से केसों में देखा जाता है कि पीड़ित ऐसा गलत कदम उठा लेते हैं जिसका खामियाजा उसे या परिवार को सारी उम्र भुगतना पड़ता है। पति-पत्नी के संबंध परस्पर विश्वास पर टिके हैं। पति-पत्नी की अलग-अलग दैनिक व्यस्तताओं के चलते एक दूसरे पर सारा दिन नजर रखना संभव नहीं है और न ही ऐसा होना चाहिए कि दोनों एक दूसरे पर शक करें। परस्पर विश्वास ही तो दांपत्य जीवन का आधार है और ऐसे में आत्म अनुशासन व सामाजिक वजर्नााएं ही हैं जिनका पालन कर पति-पत्नी और वो जैसी अप्रिय कथाओं से बचा जा सकता है।

रामायण में सीताहरण प्रसंग से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। पति-पत्नी के अतिरिक्त तीसरा या तीसरी जीवन में पहले स्वर्ण मृग की तरह प्रलोभन देते हैं। यह आकर्षण मृगतृष्णा ही साबित होते हैं क्योंकि जितना इसके पीछे भागो पीछा करने वाला उतना ही परिवार से दूर होता चला जाता है। यह मृग जब तक हाथ न आए स्वर्णिम ही दिखता है और पकड़े जाने के बाद पता चलता है कि यह तो मात्र छलावा था। जो पकड़ा गया है वह तो मृग के वेश में दुष्ट मारीच निकलता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जैसे सोने का हिरण संभव नहीं उसी तरह परिवार के बाहर तीसरे या तीसरी से सच्चा सुख मिलना सूरज से पानी बरसने जैसी अनहोनी है। इन संबंधों से मिला आनंद पहले तो दाद में खाज जैसा सुखदायी लगता है परंतु बाद में जलन व जख्मों का कारण बनता है। सीताहरण प्रसंग यह भी संदेश देता है कि दुनिया के हर रावण में इतना साहस नहीं है कि वह किसी परिवार की लक्ष्मणरेखा लांघ सके बशर्ते जब तक परिवार के लोग उस रेखा का सम्मान करें। किसी परिवार में तीसरा या तीसरी रावण की तरह छद्मवेश में आते हैं, अंदर से दुष्ट और बाहर से संत। वे रावण की ही तरह धर्म, नीति, उस परिवार के कल्याण की बात करते हैं परंतु लक्ष्मण रेखा के छिन्न-भिन्न होते ही उनका वास्तविक रूप प्रकट होता है। इसलिए जरूरी है कि समाज विवाहेतर संबंध रूपी स्वर्ण मृग के छलावे से बचे और सामाजिक मर्यादा, परिवारिक विश्वास की लक्ष्मण रेखा की पवित्रता बनाए रखे।

भारतीय संस्कृति पर घात-प्रतिघात की यह कोई अनोखी या पहली घटना नहीं और न ही इसे अंतिम माना जा सकता। लेकिन रामायण ने हर मोड़ पर हमारा मार्गदर्शन किया है। रामायण की प्रेरणा से समाज ने कभी परशुराम की तरह शस्त्र उठाए तो कभी स्वयं महर्षि वाल्मीकि जी से प्रेरणा पा कर समाज शास्त्रों का शरणागत हुआ। नर-नारी को केवल और केवल नर मादा समझने वाली विकृत संस्कृति का उपचार भी राम का आयन अर्थात रामायण ही है जो शूर्पनखा और सीता के रूप में हमारे सामने दो मार्गों का विकल्प प्रस्तुत कर रही है। एक मार्ग है क्षणिक आनंद, स्वच्छंदता, मनमानी का जिसकी प्रतिनिधि रावण की बहन है तो दूसरी पगडंडी है मर्यादा, आत्म अनुशासन, परस्पर विश्वास का जो माता सीता ने दिखाई है। समाज दोनों ओर जाने को स्वतंत्र है परंतु अच्छे-बुरे के विवेक के साथ जीवन यात्रा हो तो इसमें खुद व्यक्ति का कल्याण भी है और समाज का भी। जय जय।

-राकेश सैन

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