यह कला है या पशुता? पार्टियों में जोकर बनने वालों का मानवाधिकार नहीं है क्या?
कुछ ‘मूर्ति मानव’ लगातार दो-तीन घंटे तक बर्फ की सिल्लियों के बीच या उसके ऊपर खड़े होते हैं। यह मनोरंजन के नाम पर पशुता नहीं तो और क्या है ? ऐसे एक व्यक्ति ने बताया था कि उसे इसके लिए ढाई से तीन हजार तक रुपये मिलते हैं।
मूर्ति कला तो सबने देखी और सुनी है; पर मानव मूर्ति की बात सुनकर कुछ अजीब सा लगता है। यह कला है या मजबूरी और अत्याचार, पर जो भी है, सच तो है ही। ऐसे मूर्ति मानवों को विवाह या जन्मदिन जैसे भव्य आयोजनों में मनोरंजन के लिए खड़ा करने की क्रूर प्रथा इन दिनों चली है। जो भी व्यक्ति मूर्ति बनाता है, वह अपने चेहरे और हाथ पैरों को पत्थर जैसे तैलीय रंगों से पोत कर लगातार दो-तीन घंटे एक ही जगह एक ही मुद्रा में खड़ा या बैठा रहता है। बच्चे उसके आसपास झुंड बनाकर उसे तरह-तरह से हंसाने का प्रयास करते हैं। लोग उसके साथ फोटो खींचते और खिंचवाते हैं। कई बच्चे उसे आलपिन या लड़कियां अपने बालों की पिन चुभाकर देखती हैं कि वह कुछ प्रतिक्रिया करता है या नहीं। इतना होने पर भी वह मूर्तिवत बना रहता है, क्योंकि यह उसका रोजगार है।
काम के बाद उसे पारिश्रमिक तो मिल जाता है; पर इन तैलीय और रासायनिक रंगों का उसके शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जितनी देर तक वह इन्हें पोत कर खड़ा रहता है, उतनी देर तक उसे प्राकृतिक वायु नहीं मिलती और शरीर से पसीना भी नहीं निकलता। इस पूरे समय में कुछ खाना-पीना या मल-मूत्र विसर्जन भी संभव नहीं है।
कुछ ‘मूर्ति मानव’ लगातार दो-तीन घंटे तक बर्फ की सिल्लियों के बीच या उसके ऊपर खड़े होते हैं। यह मनोरंजन के नाम पर पशुता नहीं तो और क्या है ? ऐसे एक व्यक्ति ने बताया था कि उसे इसके लिए ढाई से तीन हजार तक रुपये मिलते हैं; लेकिन काम पूरा होने पर वह खड़ा होने लायक नहीं रहता। पूरे शरीर में भीषण दर्द होने लगता है। बड़ी कठिनाई से वह अपने आवास पर जाकर काफी देर तक गर्म पानी में पैर रखकर बैठता है। तब जाकर शरीर कुछ ठीक हो पाता है। उसे बुलाने वाले लोग पैसे देकर अपना कर्तव्य पूरा मान लेते हैं। वह कैसे आया और कहां ठहरा है, इससे उन्हें कुछ मतलब नहीं होता।
लेकिन इतने पर भी बस नहीं, क्योंकि शादी-विवाह और पार्टियों के सीजन में उसे हर दूसरे-चौथे दिन इस कला (?) को दिखाने के लिए यहां-वहां जाना ही पड़ता है।
ऐसे आयोजनों में लोग बच्चों के मनोरंजन के लिए जादूगर आदि को भी बुलाने लगे हैं। एक जन्मदिन पार्टी में मैंने देखा कि एक व्यक्ति अपने मुंह में बार-बार तलवार डाल रहा था। उसकी तलवार धारविहीन जरूर थी; पर वह डेढ़ फुट से कम नहीं थी। इसके बाद वह अपनी आंखों की पुतलियों में बटन फंसाकर उनके साथ बंधी मजबूत डोरियों से कई ईंटें उठा रहा था। उसके पास ऐसे ही और भी कई कमाल थे; पर बच्चे बार-बार तलवार और ईंट उठाने वाला प्रदर्शन ही देख रहे थे। उसके कष्ट से न बच्चों को कुछ मतलब था न उसे बुलाने वालों को। जिन महाशय ने यह आयोजन किया था, उनका कहना था कि यह उसका पेशा है और इसके लिए हमने उसे पूरा पैसा दिया है।
वस्तुतः यह कला नहीं, कला के नाम पर उस निर्धन व्यक्ति का शोषण है, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए यह करता है। संवाददाता के अनुसार बड़े-बड़े नेता, अभिनेता और विशिष्ट लोग इन्हें अपने व्यक्तिगत आयोजनों में बुलाते हैं। स्वाभाविक रूप से इनमें शिक्षित, सम्पन्न, बुद्धिजीवी और शासन-प्रशासन के लोग भी उपस्थित होते हैं; पर उनकी नजर कला के इस वीभत्स पक्ष की ओर नहीं जाती।
क्या पशु अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोग पेट के लिए जीवित मूर्ति बनने वाले इन मनुष्यों के लिए भी संघर्ष करेंगे; क्या कोई मानवाधिकारवादी इनके पक्ष में भी आवाज उठाएगा ?
-विजय कुमार
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