18 वीं लोकसभा के चुनावों के जनादेश के मायने

जहां तक विदेश नीति की बात है इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दस सालों में भारत अब दुनिया के देशों के सामने चौधरी की भूमिका निभाने लगा है। आज कोई भी देश चाहे वह कितना भी बड़ा, संपन्न और शक्तिशाली हो पर भारत को इग्नोर करने की गलती नहीं कर सकता।
18 वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि मतदाता के मन को समझना इतना आसान नहीं हैं। इसी तरह से एक्जिट पोल के परिणामों और धरातलीय परिणामों में अंतर से साफ हो जाता है कि मतदाता खुलता भी नहीं है तो किसके पक्ष में मतदान करके आया है उसे वह मुखर होकर बताता भी नहीं है। चुनाव परिणामों से सट्टा बाजार की भी पोल खुल कर रह गई है। ऐसे में सवाल यह हो जाता है कि मतदाता इस जनादेश के माध्यम से आखिर संदेश क्या देना चाहते हैं? लोकसभा चुनाव परिणामों से यह तो साफ हो गया है कि मतदाता ने एनडीए को तीसरी बार सरकार चलाने या यों कहें कि कंटिन्यूटी का अवसर दे दिया है क्योंकि एनडीए को स्पष्ट बहुमत दिया है। ऐसा नहीं है कि परिणाम के बाद किसी बाहरी दल के सहयोग की आवश्यकता हो। बहुमत के 272 की तुलना में एनडीए को 293 सीटें मिली हैं वहीं पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भाजपा को अकेले स्पष्ट बहुमत के आंकड़ें से दूर अवश्य रखा है पर सबसे बड़े दल के रुप में भाजपा सामने आई है। देखा जाए तो 10 साल बाद किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। इससे यह भी तो स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता विरोधी लहर उतनी नहीं रही जितनी दस साल के शासन के बाद सामान्यतः आ जाती है पर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा आदि के माध्यम से मतदाता ने अपनी नाराजगी जाहिर करने में किसी तरह का संकोच भी नहीं किया है। दरअसल जनआंकाक्षाओं और सरकार की परफारमेंस के बीच अंतर को पाटने में सरकार पूरी तरह से सफल नहीं रही। हांलाकि परफारमेंस के पेरामीटर्स या यों कहें कि मापदण्ड बदलते रहते हैं। एक बात यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह मेंडेंट केन्द्र सरकार की वर्तमान नीतियों का नकार नहीं हैं अपितु मतदाता सरकार द्वारा नेपथ्य में ड़ाले हुए विषयों को सामने लाकर आगे बढ़ने की दिषा में दिया गया संदेश है। और साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में इन विषयों को लेना ही होगा।
दरअसल जनता कहीं ना कहीं संतुलन चाहती हैं। सरकारों को जहां एग्रेसिव होना अच्छा लगता हैं वहीं जनता कहीं ना कहीं डिलीवरी सिस्टम को लेकर भी चिंतित रहती है। केवल उज्जवल और एग्रेसिव छवि, सफल विदेश नीति, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद, धर्म, आर्थिक विकास या यों कहें कि इकोनोमिक ग्रोथ के साथ ही बहुत से ऐसे कारक है जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया का सबस बड़ा और सफलतम लोकतंत्र हमारे यहां है। लोकतांत्रिक देषों में सर्वाधिक राजनीतिक दलों वाला भी हमारा ही देश है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व चुनाव व्यवस्था की सारी दुनिया कायल है। पर इसके साथ ही अब आमजन का मनोभाव यह है कि राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए ना कि मण्डी बाजार जैसी एक दूसरे पर छिंटाकशी के हालात। वास्तविकता तो यह है कि प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा तो रही ही नहीं है अपितु दिन प्रतिदिन एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना ही एकमात्र काम रह गया। मानों या ना मानों पर आज हालात यह हो गए हैं कि राजनीतिक शालिनता तो रही ही नहीं। दूसरी बात धर्म की करें तो उत्तर प्रदेष में अयोध्या की सीट पर बीजेपी उम्मीद्वार की हार और यूपी के परिणाम बीजेपी के लिए घोर निराशाजनक होने से साफ संकेत हैं कि केवल श्रीराम लला या धर्म के नाम पर ज्यादा दिन नहीं चला जा सकता। लोगों का मानना है कि अब राम मंदिर बन गया वह सबके सामने हैं तो अब उसे जनमानस की आस्था का केन्द्र रहने दो नाकि उसे राजनीतिक रुप से भुनाना। हिन्दी बेल्ट के परिणाम इसे साफ कर देते हैं। लोग आतंकवादी गतिविधियों व असामाजिक गतिविधियों के खिलाफ सख्त कदम को तो उचित मानते हैं पर अब इसमें धर्म का प्रयोग कुछ अति ही लगने लगा है।
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एक अन्य बिंदु आर्थिक एजेण्डा को लेकर है। कहीं भी मतदाता ने आर्थिक एजेण्डें को नकारा नहीं हैं। पर लोग अब महंगाई से त्रस्त हो रहे हैं तो बाजार पर सरकार के नियंत्रण कम होने से परेशान है। जनमानस जहां आर्थिक क्षेत्र में हाई ग्रोथ चाहने लगा है तो सबसे बड़ी समस्या रोजगार के अवसरों को लेकर है। पक्ष व विपक्ष सभी का प्रिय मुद्दा नौकरियां है। सरकार जहां कहती है कि लाखों की संख्या में नौकरी के अवसर विकसित किए हैं वहीं विपक्ष नौकरियां नहीं मिलने की बात करता रहा है। इन चुनावों में भी हिंदी बेल्ट में नौकरियों की कमी का अण्डर कंरट अवश्य रहा है। इसलिए नौकरियों के अवसर विकसित करने के साथ ही नौकरियां उपलब्ध कराने और उसका प्रोपेगेंडा करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही आम आदमी का जीवनयापन आसानी से हो सके, इसके लिए सरकार को विजिलेंट रहना ही होगा। इसी तरह से आधारभूत संरचनाओं के विस्तार पर जोर देना होगा। स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, सड़क आदि क्षेत्रों में सरकार को अपने एजेण्डें को आगे बढ़ाना ही काफी है। आमजन शांति, प्रेम और स्नेह का वातावरण, तेजी से समग्र विकास, विदेशों में गौरव और आधारभूत सुविधाओं का विस्तार चाहता है। रोजगार की सहज उपलब्धता और बाजार पर सरकार की नियंत्रण होने से जीवनयापन और अधिक आसान हो सकता है।
जहां तक विदेश नीति की बात है इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दस सालों में भारत अब दुनिया के देशों के सामने चौधरी की भूमिका निभाने लगा है। आज कोई भी देश चाहे वह कितना भी बड़ा, संपन्न और शक्तिशाली हो पर भारत को इग्नोर करने की गलती नहीं कर सकता। एक बात और साफ हो जानी चाहिए कि 18 वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम कहीं भी खंडित जनादेश नहीं है। इन्हें खंडित जनादेश मानने की गलती की भी नहीं जानी चाहिए। एनडीए को स्पष्ट बहुमत दिया गया है तो भाजपा को सबसे बड़ा दल बनाते हुए सबको साथ लेकर चलते स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा से आगे बढ़ने का मैसेज है। केन्द्र व राज्यों के संबंधों को विकास में सहभागी बनाने की आवश्यकता है। इसलिए निराश होने की कोई बात नहीं है अपितु एनडीए को स्पष्ट बहुमत और मजबूत विपक्ष के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था को और अधिक गतिमान बनाने का मैसेज हैं।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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