भोजन की बर्बादी रोकने के लिए सामाजिक चेतना लानी होगी

भारत ही नहीं, समूची दुनिया का यही हाल है। एक तरफ अरबों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं रोज लाखों टन खाना बर्बाद किया जा रहा है।

भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता का दर्जा प्राप्त है और यही कारण है कि भोजन झूठा छोड़ना या उसका अनादर करना पाप माना जाता है। मगर आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपना यह संस्कार भूल गए हैं। यही कारण है कि होटल-रेस्त्रां के साथ ही शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में सैकड़ों टन खाना रोज बर्बाद हो रहा है। भारत ही नहीं, समूची दुनिया का यही हाल है। एक तरफ अरबों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं रोज लाखों टन खाना बर्बाद किया जा रहा है। 

दुनियाभर में हर वर्ष जितना भोजन तैयार होता है उसका एक तिहाई यानी लगभग 1 अरब 30 करोड़ टन बर्बाद चला जाता है। बर्बाद जाने वाला भोजन इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों की खाने की जरूरत पूरी हो सकती है। विश्वभर में होने वाली भोजन बर्बादी को रोकने के लिए विश्व खाद्य और कृषि संगठन, अन्तरर्राष्ट्रीय कृषि विकाश कोष और विश्व खाद्य कार्यक्रम ने एकजुट होकर एक परियोजना शुरू की है। एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भारत में बढ़ती सम्पन्नता के साथ ही लोग खाने के प्रति असंवेदनशील हो रहे हैं। खर्च करने की क्षमता के साथ ही खाना फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आज भी देश में विवाह स्थलों के पास रखे कूड़ाघरों में 40 प्रतिशत से अधिक खाना फेंका हुआ मिलता है। 

विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है। अगर इस बर्बादी को रोका जा सके तो कई लोगों का पेट भरा जा सकता है। विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है। देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं।

विश्व खाद्य संगठन के प्रतिवेदन के अनुसार देश में हर साल पचास हजार करोड़ रूपये का भोजन बर्बाद चला जाता है, जो कि देश के उत्पादन का चालीस फीसदी है। इस अपव्यय का दुष्प्रभाव हमारे देश के प्राकृतिक संसाधानों पर पड़ रहा है। हमारा देश पानी की कमी से जूझ रहा है लेकिन अपव्यय किए जाने वाले इस भोजन को पैदा करने में 230 क्युसिक पानी व्यर्थ चला जाता है जिससे दस करोड़ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है। एक ऑकलन के मुताबिक अपव्यय से बर्बाद होने वाली धनराशि से पांच करोड़ बच्चों की जिदगी संवारी जा सकती है और उनका कुपोषण दूर कर उन्हें अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। चालीस लाख लोगों को गरीबी के चंगुल से मुक्त किया जा सकता है और पांच करोड़ लोगों को आहार सुरक्षा की गारण्टी तय की जा सकती है।

भूख से मौत या पलायन, वह भी उस देश में जहां खाद्य और पोषण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रुपये के अनुदान पर चल रही हैं। जहां मध्याह्न भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चों को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो। जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोषण से मरने के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र ने जारी किए हैं। देश के 51.14 प्रतिशत परिवारों की आय का जरिया महज अस्थाई मजदूरी है। 4.08 लाख परिवार कूड़ा बीन कर, तो 6.68 लाख परिवार भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं। गांव में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रुपये से भी कम है। 

हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ों वाले भारत देश के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं कि हमारे देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देश के कुल उत्पादित फल-सब्जी का 40 फीसद समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। 

औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण नष्ट हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयरहाउस बनाए जा सकते हैं। बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक क्विंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।

भोजन का फेंका जाना पहली निगाह में भले ही मामूली सी बात प्रतीत हो या फिर एक बड़े कार्यक्रम की अपरिहार्यता बता कर इससे पल्ला झाड़ लिया जाए, लेकिन यह एक गंभीर समस्या है जिसकी प्रकृति विश्वव्यापी है। इस संदर्भ में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में खाद्यान्नों के अपव्यय से जुड़ी चुनौतियों का बारीकी से विश्लेषण किया गया है। संगठन द्वारा प्रस्तुत- खाद्य अपव्यय पदचिन्ह: प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभाव वाली इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्य अपव्यय को रोके बिना खाद्य सुरक्षा सम्भव नहीं है। इस रिपोर्ट में वैश्विक खाद्य अपव्यय का अध्ययन पर्यावरणीय दृष्टिकोण से करते हुए बताया है कि भोजन के अपव्यय से जल, जमीन और जलवायु के साथ साथ जैव-विविधता पर भी बेहद नकारात्मक असर पड़ता है। 

रिपोर्ट के मुताबिक उत्पादित भोजन जिसे खाया नहीं जाता, उससे प्रत्येक वर्ष रूस की वोल्गा नदी के जल के बराबर जल की बर्बादी होती है। अपव्यय किए जाने वाले इस भोजन की वजह से तीन अरब टन से भी ज्यादा मात्रा में खतरनाक ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं। दुनिया की लगभग 28 फीसदी भूमि जिसका क्षेत्रफल 1.4 अरब हेक्टेयर है, ऐसे खाद्यान्नों को उत्पन्न करने में व्यर्थ होती है। रिपोर्ट खतरे की घंटी की तरह है जो यह बतलाती है कि हमारी लापरवाही और अनुचित गतिविधियों के कारण पैदा किए जाने वाले अनाज का एक तिहाई हिस्सा यानि करीब 1.3 अरब टन अनाज बर्बाद कर दिया जाता है वहीं 87 करोड़ लोग भूखा सोने के लिए विवश हैं। खाद्य अपव्यय से होने वाली क्षति बहुदैशिक है और इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगभग 750 अरब डालर से अधिक का नुकसान होता है जो कि स्विट्जरलैण्ड के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है।

हमारे यहां शादियों, उत्सवों या त्यौहारों में होने वाली भोजन की बर्बादी से हम सब वाकिफ हैं। इन अवसरों पर ढेर सारा खाना कचरे में चला जाता है। कई बार तो घरों के आसपास फेंके गए भोजन से उठने वाली दुर्गंध एवं सड़ांध वहां रहने वालों के लिए परेशानी खड़ी कर देती है, सड़ते भोजन से जानवरों की मौतों की खबर भी हम पढ़ते रहते हैं। शादियों में खाने की बर्बादी को लेकर भारत सरकार भी चिंतित है। 2011 में खाद्य मंत्रालय ने कहा था कि वह शादियों में मेहमानों की संख्या के साथ ही परोसे जाने वाले व्यंजनों की संख्या सीमित करने पर विचार कर रहा है। इस बारे में विवाह समारोह (दिखावटी प्रदर्शन और फिजूल खर्च का प्रतिबंध) अधिनियम, 2006 भी बनाया गया है। हालांकि यह नियम सख्ती से लागू नहीं होता है।

खाने की बर्बादी रोकने की दिशा में महिलाएं बहुत कुछ कर सकती हैं। खासकर बच्चों में शुरू से यह आदत डालनी होगी कि उतना ही थाली में परोसें, जितनी भूख हो। एक-दूसरे से बांट कर खाना भी भोजन की बर्बादी को बड़ी हद तक रोक सकता है। भोजन और खाद्यान्न की बर्बादी रोकने के लिए हमें अपने दर्शन और परम्पराओं के पुर्नचिंतन की जरूरत है। हमें अपनी आदतों को सुधारने की जरूरत है। धर्मगुरुओं एवं स्वयंसेवी संगठनों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अभियान सोचें, खाएं और बचाएं भी एक अच्छी पहल है, जिसमें शामिल होकर की भोजन की बर्बादी रोकी जा सकती है। हम सभी को मिलकर इसके लिये सामाजिक चेतना लानी होगी तभी भोजन की बर्बादी रोकी जा सकती है।

- रमेश सर्राफ धमोरा

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