नया कोल्ड वार क्या है? किनके बीच चल रहा है? इसमें भारत किस भूमिका में है?

बताते चलें कि नया कोल्ड वार पुराने भू-सामरिक तनाव का ही एक परिवर्तित भू-राजनीतिक तनाव है, जो मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच चल रहा है। देखने में तो यह शीत युद्ध के जैसा ही है लेकिन यह प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष के बजाय आर्थिक, तकनीकी, व्यापारिक और वैचारिक प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित है।
द्वितीय विश्व युद्ध की विजय के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच छिड़े शीत युद्ध और इसके वार-पलटवार जैसे युद्धगत प्रभावों से हमलोग वाकिफ हैं। इस दौरान यूएसए और यूएसएसआर की खेमेबाजी भी जगजाहिर रही, जिससे दुनिया के कमजोर देशों के कुछ कुछ हित भी सधे। हालांकि 1990 के दशक में सोवियत संघ के बिखराव के बाद यह खत्म हो गया। लेकिन अमेरिका की बढ़ती वैश्विक चौधराहट के बाद 2010 के दशक में अमेरिका-चीन के बीच फिर से एक 'नया शीत युद्ध' शुरू हो गया, जो अब तलक जारी है।
चूंकि यूएसएसआर के पतन में अमेरिकी भूमिका रही, इसलिए उसके अवशेष पर खड़े हुए रूस ने चीन को शह देकर अमेरिका से अपना पुराना हिसाब-किताब चुकता कर लिया। इस प्रकार दुनिया के थानेदार अमेरिका के सामने एक नई सामरिक-आर्थिक चुनौती खड़ी हो गई, लेकिन पारस्परिक होड़ का स्वरूप कुछ कुछ बदल गया। कुलमिलाकर चीन अब अमेरिका के लिए भस्मासुर साबित हो रहा है। इससे अमेरिका भारत की ओर मुड़ा, लेकिन भारतीय नेतृत्व की सतर्कता की वजह से 2025 आते आते अपने कुटिल इरादों में नाकामयाब हो गया।
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बताते चलें कि नया कोल्ड वार पुराने भू-सामरिक तनाव का ही एक परिवर्तित भू-राजनीतिक तनाव है, जो मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच चल रहा है। देखने में तो यह शीत युद्ध के जैसा ही है लेकिन यह प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष के बजाय आर्थिक, तकनीकी, व्यापारिक और वैचारिक प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित है। दोनों के बीच एशिया खासकर अरब और भारतीय उपमहाद्वीप पर वर्चस्व स्थापित करने को लेकर होड़ मची हुई है। यूरोप से अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया तक इसकी आंच पहुंच चुकी है।
मसलन, यह नया शीत युद्ध 2010 के दशक के अंत से प्रचलित हुआ, जब अमेरिका ने चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति, दक्षिण चीन सागर में विस्तारवाद, तकनीकी चोरी और मानवाधिकार उल्लंघनों पर चिंता जताई। तब व्यापार युद्ध, हुआवेई (Huawei) प्रतिबंध और टिकटॉक जैसे मुद्दे इसके उदाहरण हैं। जहां तक इस नया शीत युद्ध के मुख्य पक्ष की बात है तो इसमें अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो वाले यूरोपीय देश, दक्षिण कोरिया, क्वाड (QUAD) (अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया) और ऑकुस (AUKUS) जैसे गठबंधन के माध्यम से चीन का मुकाबला करने की रणनीति अख्तियार किये हुए हैं, लेकिन रूसी मित्रता की वजह से भारत अक्सर गुटनिरपेक्षता की आड़ लेकर तटस्थ हो जाता है।
वहीं, चीन और उसके सहयोगी देश-रूस, उत्तर कोरिया, ईरान, पाकिस्तान (दोहरी चाल चलते हुए) और कुछ अफ्रीकी देशों यथा ब्राजील के साथ ब्रिक्स (BRICS), जिसमें भारत भी शामिल है, को विस्तार देते हुए जवाबी पलटवार करते जा रहे हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि भारत-पाकिस्तान अपने अपने पुराने कैम्प के साथ प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं, जिससे चीनी पक्ष का पलड़ा भारी हुआ है।
देखा जाए तो दोनों पक्षों के बीच व्यापार युद्ध, तकनीकी प्रतिस्पर्धा (जैसे-चिप्स और एआई), ताइवान मुद्दा, दक्षिण चीन सागर में विस्तारवाद और अफ्रीका-प्रशांत में प्रभाव के लिए पारस्परिक प्रतिस्पर्धा तेज हो गई है। अमेरिकी नादानी से 2025 तक यह मल्टी-पोलर हो गया है, जहां भारत जैसे देश तटस्थ भूमिका निभा रहे हैं। वहीं, ताइवान और ईरान जैसे देश क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने में भूमिका निभा रहे हैं। इस प्रकार यह द्विध्रुवीय से बहुध्रुवीय संघर्ष बन गया है।
इस प्रकार नया कोल्ड वार मुख्य रूप से अमेरिका और चीन के बीच माना जाता है, जिसमें रूस एक प्रमुख चीनी सहयोगी के रूप में उभर रहा है। जबकि नाटो देश अमेरिका के स्वाभाविक सहयोगी रहे हैं। ये देश अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, दक्षिण-पूर्व एशिया से लेकर मध्य-पश्चिम एशिया तक आर्थिक, तकनीकी और सैन्य प्रभाव के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। जबकि भारत जैसे मजबूत कई अन्य देश तटस्थ या संतुलित भूमिका निभा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक विश्लेषक भी बताते हैं कि नया कोल्ड वार में भारत तटस्थ और संतुलित भूमिका निभा रहा है, न तो पूरी तरह अमेरिका के साथ है और न ही चीन के साथ।
सरल शब्दों में कहें तो जहां एक तरफ भारत QUAD और I2U2 जैसे गठबंधनों के माध्यम से अमेरिकी पक्ष को मजबूत करता है, वहीं दूसरी ओर रूस से तेल खरीदकर और BRICS में सक्रिय रहकर संतुलन बनाए रखता है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक ओर भारत जहां प्रमुख गठबंधन QUAD सदस्य देश अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ हिंद-प्रशांत में चीन के विस्तारवाद का मुकाबला कर रहा है। वहीं दूसरी ओर BRICS और SCO मंच पर चीन-रूस के साथ आर्थिक सहयोग, वैश्विक दक्षिण की आवाज बुलंद कर रहा है।
दरअसल, ऐसा करके भारत अपनी "रणनीतिक स्वायत्तता" की नीति अपनाता है, जहां यह दोनों पक्षों से लाभ लेता है। साथ ही वह ताइवान जलडमरूमध्य और दक्षिण चीन सागर में शांति का समर्थन तो करता है, लेकिन सीधे टकराव से दूर रहता है। वैश्विक मंचों पर भारत विकासशील देशों का नेतृत्व कर रहा है। इस प्रकार भारत की भूमिका का सबसे बड़ा भू-राजनीतिक लक्ष्य रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए वैश्विक शक्ति के रूप में उभरना है। यह बहुध्रुवीय विश्व में संतुलनकारी भूमिका निभाकर आर्थिक विकास, ऊर्जा सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करना चाहता है।
देखा जाए तो अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के माध्यम से भारत, अमेरिका-चीन-रूस जैसे गुटों से बंधा नहीं रहना चाहता है, बल्कि वह क्वाड (QUAD), ब्रिक्स (BRICS) और एससीओ (SCO) जैसे मंचों पर सक्रिय रहकर वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व करता है। इसका क्षेत्रीय प्रभाव यह होता है कि भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तारवाद का मुकाबला करते हुए IMEC कॉरिडोर जैसे प्रोजेक्ट्स से व्यापारिक पहुंच बढ़ाना चाहता है। साथ ही पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश) के साथ संतुलन बनाए रखता है।
इसके पीछे भारत की दीर्घकालिक महत्वाकांक्षा यह है कि वह 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का लक्ष्य निर्धारित किये हुए है, जहां सैन्य आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भर भारत), जलवायु नेतृत्व (ISA) और डिजिटल अर्थव्यवस्था प्रमुखता पूर्वक जोर दिया जा रहा हैं।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
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