मकर संक्रांति के साथ क्या है पानीपत के युद्ध का रिश्ता ?

What is the relationship of Makar Sankranti with Panipat''s war?
विजय कुमार । Jan 12 2018 10:17AM

मकर संक्रांति के साथ जुड़े प्रसंगों में सबसे महत्वपूर्ण है 1761 ई. में हुआ पानीपत का युद्ध। यद्यपि इसमें मराठा सेनाएं हार गयीं; पर उसके बाद पश्चिम से कोई शत्रु दिल्ली तक नहीं आ सका।

मकर संक्रांति के साथ जुड़े प्रसंगों में सबसे महत्वपूर्ण है 1761 ई. में हुआ पानीपत का युद्ध। यद्यपि इसमें मराठा सेनाएं हार गयीं; पर उसके बाद पश्चिम से कोई शत्रु दिल्ली तक नहीं आ सका। यह युद्ध महाराष्ट्र नहीं, बल्कि दिल्ली की रक्षार्थ हुआ था। युद्ध से पूर्व अब्दाली ने सदाशिव भाऊ को संदेश भेजा था कि यदि वे पंजाब को सीमा मान लें, तो वह सन्धि को तैयार है; पर भाऊ ने इसे यह कहकर ठुकरा दिया कि भारत की सीमा अटक तक है।

छत्रपति शाहूजी के पेशवा बाजीराव ने दक्षिण में अर्काट तथा फिर बंगाल, बिहार, उड़ीसा में विजय प्राप्त की। 40 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु से इस अभियान को धक्का लगा। अतः नेपाल और यमुना के मध्य क्षेत्र पर रोहिले और पठान काबिज हो गये। 1747 में नादिरशाह की हत्या के बाद उसका सहयोगी अहमदशाह अब्दाली अफगानिस्तान का अमीर बन गया। 

बाजीराव के बाद उनके 19 वर्षीय पुत्र नानासाहब पेशवा बने। उनके नेतृत्व में मराठों ने 1750 में पठानों और रोहिलों को हराया तथा मुल्तान, सिन्ध, पंजाब, राजपूताना, रुहेलखंड आदि की चैथ वसूली के अधिकार प्राप्त कर लिये। इससे चिंतित नजीबुद्दौला, बेगम मलका जमानी और मौलवी वलीउल्लाह ने ‘इस्लाम खतरे में’ कहकर नवाबों, निजाम और जमीदारों के साथ ही अहमदशाह अब्दाली को भी पत्र लिखकर भारत में ‘दारुल इस्लाम’ की स्थापना को कहा।  

अब्दाली निमन्त्रण पाकर भारत की ओर बढ़ने लगा; पर हर बार उसे पंजाब ने टक्कर दी। 1744 से 1750 तक उसने पांच बार हमला किया। ऐसे में जब मराठों ने दिल्ली के मुगल दरबार की नाक में नकेल डाली, तो सिख बहुत खुश हुए। रघुनाथराव पेशवा जब पंजाब पहुंचे, तो शालीमार बाग (लाहौर) में उनका भव्य स्वागत हुआ। 1753-54 में अब्दाली फिर दिल्ली आ गया। यह सुनकर रघुनाथराव पेशवा पुणे से चल दिये। उन्होंने दिल्ली पर कब्जा कर अपनी मर्जी से राजा, वजीर तथा सेनापति बनाये। इससे राजा सूरजमल नाराज हो गये; पर दूरदर्शी रघुनाथराव ने उनसे सन्धि कर आगरा तथा निकटवर्ती क्षेत्र पर उनके अधिकार को मान लिया।

रघुनाथराव के वापस होते ही 1756 में अब्दाली फिर आ गया। होली के दो दिन बाद (1.3.1757) उसने मथुरा में तीर्थयात्रियों के खून से होली खेली। सूरजमल के पुत्र जवाहरसिंह ने उससे टक्कर ली। 2,000 सशस्त्र नागा साधुओं सहित 10,000 हिन्दू तथा 20,000 अफगानी मारे गये। अब्दाली ने आगरा पर भी हमला किया। इसी दौरान हैजे से उसके सैनिक मरने लगे। अतः वह काबुल लौट गया। यह सुनकर रघुनाथराव फिर उत्तर की ओर आये। उन्होंने मेरठ, सहारनपुर, रोहतक और दिल्ली पर कब्जा कर अपनी पसंद के लोग सत्ता में बैठाये। फिर वे पंजाब गये और पटियाला राज्य के सेनापति आलासिंह जाट के साथ सरहिन्द को जीता। इस प्रकार अटक तक भगवा झंडा फहर गया। 

अब्दाली का प्रतिनिधि नजीबुद्दौला भयवश मराठों की जी-हुजूरी करने के साथ ही बेगम मलका जमानी तथा मौलवी वलीउल्लाह के साथ बार-बार अब्दाली को फिर भारत आने को पत्र लिख रहा था। उसने मराठों के प्रतिनिधि दत्ताजी शिन्दे को बंगाल विजय के लिए प्रेरित कर उनकी सेना को वर्षाकाल में उफनती गंगा और यमुना के बीच फंसा दिया। इधर अब्दाली भी दिल्ली की ओर चल दिया था। दत्ताजी की सेनाएं बुराड़ी-जगतपुर (वर्तमान दिल्ली) में नजीब और अब्दाली की सेनाओं के बीच घिर गयीं। 

10 जनवरी, 1760 को भीषण युद्ध हुआ। नजीब की सहायता के लिए कुतुबशाह और अहमदखान बंगश भी आ गये। दत्ताजी को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। कुतुबशाह बोला, ‘‘क्यों पटेल, मुसलमानों से फिर लड़ोगे ?’’ दत्ताजी ने कहा, ‘‘हां, बचेंगे तो और भी लड़ेंगे।’’ कुतुबशाह ने काफिर कहकर लात मारी और उनका सिर काटकर अब्दाली को भेंट करने ले गया। 

यह समाचार पुणे पहुंचने पर सदाशिवराव भाऊ तथा नानासाहब पेशवा के बड़े पुत्र विश्वासराव के नेतृत्व में सेना को भेजा गया। भाऊ ने उत्तर के हिन्दू राजे-रजवाड़ों तथा मुस्लिम सूबेदारों, नवाबों आदि को पत्र लिखकर विदेशी अब्दाली के विरुद्ध सहयोग मांगा; पर कोई साथ नहीं आया। उधर नजीबखान, लखनऊ के नवाब नासिरुद्दौला, फरुखाबाद-बरेली के अहमदखान बंगश, पीलीभीत के मीरबेग आदि ने कुरान के सामने कसम ली कि वे दिल्ली की सत्ता दक्षिण (अर्थात मराठों) के पास नहीं जाने देंगे। 

दत्ताजी के निधन से बिखरी मराठा सेना सदाशिव और विश्वासराव के आने की खबर सुनकर फिर एकत्र होने लगी। सूरजमल भी इनके साथ आ गये। उन्होंने एक अगस्त, 1760 को फिर दिल्ली जीत ली। मराठा छावनी में ‘श्रीमंत विश्वासराव पेशवा का दरबार’ आयोजित हुआ। अब्दाली उन दिनों अनूपशहर तथा शुजाउद्दौला यमुना पार छावनी डाले था। वर्षाकाल के कारण युद्ध संभव नहीं था। अतः दोनों पक्ष सर्दी की प्रतीक्षा करने लगे।

दरबार की सूचना पाकर मौलवी वलीउल्लाह तथा नजीबुद्दौला ने मुसलमानों से इस हिन्दू राज्य को मिटाने का आह्वान किया। कुछ मुस्लिम जागीरदार मराठों के साथ भी थे। इससे नाराज होकर सूरजमल वापस भरतपुर चले गये। यद्यपि युद्ध में तथा उसके बाद भी उन्होंने शस्त्र, अन्न, वस्त्र व नकद राशि से मराठों की सहायता की। 

मौसम ठीक होते ही भाऊसाहब ने हमला कर दिया। कुंजपुरा के युद्ध में कुतुबशाह, अब्दुल समदखान और किलेदार निजाबत खान पकड़े गये। भाऊसाहब ने दत्ताजी का बलिदान याद कर कुतुबशाह और समदखान के कटे सिर अब्दाली को भेज दिये। इससे क्रुद्ध अब्दाली पानीपत आ गया। भाऊसाहब भी एक नवम्बर, 1760 को वहां पहुंच गये। 22 नवम्बर को जनकोजी शिन्दे ने हमला किया। इसमें अब्दाली की भारी क्षति हुई। इसके जवाब में सात दिसम्बर (अमावस्या) की रात में अब्दाली ने हमला बोला। इसमें भी मराठों की जीत हुई; पर सेनापति बलवन्तराव मेहन्दले मारे गये। 

इन दोनों युद्धों की क्षति से अब्दाली चिंतित हो गया। उधर मराठे भी राशन और रसद के अभाव तथा ठंड से परेशान थे। भाऊसाहब ने 14 जनवरी, 1761 को प्रातः दस बजे हमला किया। तोपों की मार से विरोधियों को धकेलते हुए वे दिल्ली की ओर बढ़ने लगे। इसी बीच मराठा तोपखाने का नायक इब्राहिम खान गारदी तथा विश्वासराव मारे गये। इससे सेना में भगदड़ मच गयी। इसी समय अब्दाली ने अपने सुरक्षित 6,000 ऊंटसवार बंदूकधारी सैनिक भेज दिये। उन्होंने ढूंढ-ढूंढकर भाऊ, जनकोजी शिन्दे, तुकोजी शिन्दे आदि को मार डाला। इससे मराठे नेतृत्वविहीन हो गये और अब्दाली जीत गया।

इस युद्ध में लगभग 50,000 मराठा सैनिक तथा इतने ही अन्य लोग मारे गये। जीत के बावजूद अब्दाली की हिम्मत टूट गयी और वह काबुल लौट गया। विजेता होने पर भी उसने वहां से अनेक उपहारों के साथ अपना दूत पुणे की राजसभा में सन्धिवार्ता हेतु भेजा। किसी ने ठीक ही लिखा है कि यदि यह युद्ध न होता, तो 1947 के बाद दिल्ली भारत की बजाय पाकिस्तान की राजधानी होती।   

-विजय कुमार

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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