जानिए घरेलू हिंसा का केस किसे कहते हैं और इसे दाखिल करने का उचित तरीका क्या है? इसे कहाँ दाखिल किया जा सकता है?

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कमलेश पांडे । May 8 2023 1:21PM

कानून के जानकारों का कहना है कि घरेलू हिंसा का मुकदमा अधिनियम की भिन्न-भिन्न धाराओं के अंतर्गत सक्षम अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है। वहीं, इसके अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग तरह की रिलीफ दिए जाने के भी प्रावधान निहित हैं।

मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- एक शांतिप्रिय और दूसरा झगड़ालू। वैसी दम्पति जो दोनों स्वभाव वाले होते हैं, उनके बीच प्रायः पट जाती है, क्योंकि एक सहनशील होता है और दूसरा अपना गुस्सा शांत होते ही उसकी सहनशीलता की कद्र करने लगता है। लेकिन यदि किसी दम्पति में जब दोनों झगड़ालू हों, तो आये दिन खटपट होते रहती है। इससे घर अशांत हो जाता है। पति-पत्नी के अतिरिक्त उनके परिजनों पर भी यही बात लागू होती है।

सामाजिक अनुभव बताता है कि जब पति-पत्नी के बीच विवाद अधिक बढ़ जाते हैं तो घरेलू हिंसा की बातें बढ़ जाती हैं। इसलिए ऐसे केस अत्यंत चर्चित हो जाते हैं। कानून के जानकार बताते हैं कि जब दो लोग साथ रहकर गृहस्थी बनाते हैं, लेकिन छोटी-छोटी बातों को लेकर उनके आपसी मतभेद किसी बड़े विवादों को जन्म देने लगते हैं, तब मामला न्यायालय की दहलीज तक जा पहुंचता है। ऐसे में महिलाओं के द्वारा पति और उसके रिश्तेदारों पर घरेलू हिंसा कानून के तहत कार्यवाही की जाती है। 

ऐसा माना जाता है कि स्त्री, पति के मुकाबले शारीरिक बल में प्रायः कमजोर होती है, वह किसी और घर से आती है, इसलिए पति और उसके रिश्तेदार कभी कभार उसे उत्पीड़ित कर देते हैं। कुछ मामलों में जब स्थिति बद से बदतर हो जाती है, तब महिला/पीड़िता कानून की शरण लेती है। भारतीय समाज में ऐसे बढ़ते मामलों के दृष्टिगत ही घरेलू हिंसा कानून बनाए गए हैं, ताकि पीड़ितों के हकहकूक की रक्षा सम्भव हो सके।

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# समझिए, घरेलू हिंसा कानून क्या है?

भारतवर्ष में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की रोकथाम के व्यापक उद्देश्य से बनाया गया चर्चित अधिनियम 'घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005' है। भारत की संसद के द्वारा पारित इस अधिनियम/कानून के तहत गृहस्थी में रहने वाली कोई भी महिला घर के दूसरे सदस्यों के विरुद्ध घरेलू हिंसा का मुकदमा दर्ज करवा सकती है।

इस कानून में गौर करने वाली बात यह है कि इसमें आमतौर पर केवल पत्नियों द्वारा पति और सुसराल के लोगों पर ही मुकदमा किया जाता है, लेकिन यदि गम्भीरतापूर्वक इसका आकलन किया जाए तो यह कानून इससे कही ज्यादा विस्तृत है। दो टूक शब्दों में कहूँ तो इस कानून के तहत गृहस्थी में रहने वाली कोई भी महिला अपने साथ हिंसा होने पर घर के पुरुष या महिला किसी भी सदस्य या सदस्यों पर मुकदमा दायर कर सकती है। यहां तक कि एक मां भी अपने पुत्रों पर एवं बहुओं पर घरेलू हिंसा का प्रकरण बताते हुए मुकदमा दायर करवा सकती है। इसके अलावा, लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला पार्टनर अपने पुरुष पार्टनर पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज करवा सकती है। इसी तरह एक बेटी भी अपने माता-पिता पर घरेलू हिंसा का मुकदमा दायर करवा सकती है।

# जानिए, किस-किस सदस्य पर दायर किया जा सकता है घरेलू हिंसा का मुकदमा

विधि के जानकार बताते हैं कि घरेलू हिंसा का मुकदमा घर के पुरुष और महिला दोनों तरह के सदस्यों पर लगाया जा सकता है। खास बात यह कि घर के सदस्यों के लिए केवल एक छत के नीचे रहना भी आवश्यक नहीं है, बल्कि उनके बीच नातेदारी स्थापित व सत्यापित होना आवश्यक है। इस तरह से महिला का यदि कोई नातेदार भी उसके विरुद्ध हिंसा कारित कर या करवा रहा है या कर या करवा रही है तब पीड़ित महिला उनके खिलाफ मुकदमा लगवा सकती है।

# जानिए उस अदालत के बारे में जहां पर दायर करवाया जा सकता है ऐसा मुकदमा

कानून के जानकारों का कहना है कि घरेलू हिंसा का मुकदमा अधिनियम की भिन्न-भिन्न धाराओं के अंतर्गत सक्षम अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है। वहीं, इसके अलग-अलग धाराओं में अलग-अलग तरह की रिलीफ दिए जाने के भी प्रावधान निहित हैं। आमतौर पर यह मुकदमा सीधे सम्बन्धित व्यक्ति के क्षेत्र के मजिस्ट्रेट के पास लगाया जा सकता है जो घरेलू हिंसा के प्रकरण को सुनने के लिए जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा या फिर उच्च न्यायालय द्वारा सशक्त किया जाता है। इस मजिस्ट्रेट को न्यायिक दंडाधिकारी प्रथम श्रेणी कहा जाता है। सभी जिलों में यह मजिस्ट्रेट सरलता से जिला न्यायालय में उपलब्ध होते हैं। वहीं, किसी ग्रामीण इलाके के लोग भी अपनी संबंधित कोर्ट के मजिस्ट्रेट के पास यह आवेदन लगा सकते हैं। ऐसा कोई भी आवेदन अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत प्रस्तुत किया जाता है।

# समझिए, पीड़ित महिला को क्या मिलती है सहायता

इस अधिनियम के तहत घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला को तरह-तरह की सहायता मजिस्ट्रेट द्वारा अलग-अलग धाराओं में उपलब्ध करवाई जाती है। लेकिन पहले महिला को अपने साथ होने वाली घरेलू हिंसा को साबित करना होता है, तब जाकर मजिस्ट्रेट दी जाने वाली राहतों में से पीड़ित महिला द्वारा मांगी गई राहत उपलब्ध करवाता है।

पहला, मजिस्ट्रेट द्वारा पीड़ित महिला को दी जाने वाली राहतों में जैसे अधिनियम की धारा 17 के तहत पीड़ित महिला को सांझी गृहस्थी में रहने का अधिकार है। इसके तहत एक महिला को गृहस्थी से अलग नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो मजिस्ट्रेट आदेश देकर महिला को पुनः घर में प्रवेश दिलवाते हैं। वहीं इस अधिनियम की धारा 18 के तहत महिला को संरक्षण दिए जाने का आदेश भी पारित किया जाता है।

कानून के जानकार अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि ऐसे आदेश में मजिस्ट्रेट महिला के साथ होने वाली मानसिक एवं शारीरिक हिंसा की रोकथाम करता है एवं आरोपियों के विरुद्ध संरक्षण आदेश पारित करता है। वहीं, धारा 19 के तहत घर से निकाली गई महिला को निवास आदेश दिए जाने का भी प्रावधान है। वहीं, धारा 20 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट विशेष आदेश भी दे सकता है, जैसे- इलाज इत्यादि का खर्च। 

# जानिए, ऐसे मामलों में कितनी दी जा सकती है अंतरिम राहत 

घरेलू हिंसा के प्रकरण में किसी भी पीड़ित महिला को अपना केस साबित करना ही आवश्यक नहीं होता है, बल्कि किसी भी पीड़ित महिला को मजिस्ट्रेट धारा 23 के अंतर्गत अंतरिम राहत भी दे सकता है, जैसे- किसी भरण-पोषण की मांग करने वाली महिला को अंतरिम रूप से भरण-पोषण दिए जाने का आदेश भी जारी किया जा सकता है। कहने का तातपर्य यह कि जब तक केस पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता है, तबतक महिला को भरण-पोषण दिया जाता रहेगा।

# जानिए, घरेलू हिंसा के मुकदमों पर कितना तक हो जाता है खर्च 

अधिवक्ता बताते हैं कि घरेलू हिंसा के केस में अधिक रुपए खर्च नहीं होते हैं। क्योंकि पीड़ित महिला को किसी सिविल केस की तरह कोई कोर्ट फीस जमा नहीं करनी होती है, बल्कि नाममात्र की कोर्ट फीस पर यह प्रकरण लगाए जा सकते हैं। वहीं, यदि किसी महिला के पास अधिवक्ता नियुक्त करने के रुपये नहीं हैं तो उसे विधिक सेवा के तहत मुफ्त में अधिवक्ता भी उपलब्ध करवा दिया जाता है।

खास बात यह है कि ऐसा कोई भी मुकदमा लगाने के पूर्व महिलाओं के लिए बनाए गए वन स्टॉप सेंटर भी महिलाओं की प्राथमिक स्तर पर मदद किये जाने की कोशिश की जाती है और उन्हें परामर्श देकर अपनी रिपोर्ट भी मजिस्ट्रेट के पास प्रस्तुत करते हैं। कहने का तातपर्य यह है कि इस  वन स्टॉप सेंटर में प्राथमिक स्तर पर मामला राजीनामा के ज़रिए यानी सुलहवार्ता इत्यादि के माध्यम से निपटाने का प्रयास करते हैं और जब यह संभव नहीं होता है तो सम्बन्धित मामला मजिस्ट्रेट को सौंप देते हैं, जो आगे की कार्रवाई विधिसम्मत तरीके से करते हुए पीड़िता को न्याय देते हैं।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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