महानवमी पर मां सिद्धिदात्री की उपासना: बुराई पर अच्छाई की विजय का महापर्व

महानवमी, माँ दुर्गा के नवम स्वरूप सिद्धिदात्री को समर्पित है। सिद्धिदात्री अर्थात् वह देवी जो अपने भक्तों को सभी सिद्धियाँ और वरदान प्रदान करती हैं। पुराणों के अनुसार, इस दिन देवी दुर्गा ने असुर महिषासुर का संहार कर धर्म की स्थापना की थी।
बंगाल की धरती पर शारदीय नवरात्र मात्र एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि यह संस्कृति, श्रद्धा और समाज की समग्र चेतना का महापर्व है। दुर्गापूजा का चरम बिंदु जब आता है, तब उसका नाम होता है महानवमी— वह पवित्र तिथि जब शक्ति की आराधना अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचती है। नवरात्र के नौवें दिन मनाया जाने वाला यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी बंगाल की पहचान का जीवंत प्रतीक है।
महानवमी, माँ दुर्गा के नवम स्वरूप सिद्धिदात्री को समर्पित है। सिद्धिदात्री अर्थात् वह देवी जो अपने भक्तों को सभी सिद्धियाँ और वरदान प्रदान करती हैं। पुराणों के अनुसार, इस दिन देवी दुर्गा ने असुर महिषासुर का संहार कर धर्म की स्थापना की थी। इसलिए महानवमी को विजय की भूमिका भी कहा जाता है — यह उस क्षण का प्रतीक है जब अच्छाई बुराई पर निर्णायक विजय प्राप्त करती है।
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बंगाल में इस दिन का धार्मिक महत्व कुछ और भी बढ़ जाता है क्योंकि दुर्गापूजा के चार दिनों (षष्ठी से नवमी तक) में नवमी सबसे शुभ मानी जाती है। देवी के शस्त्रों की पूजा, महापुष्पांजलि और बलिदान की प्रतीकात्मक विधियाँ इसी दिन संपन्न होती हैं।
महानवमी की सुबह मंदिरों और घरों में विशेष अनुष्ठानों के साथ आरंभ होती है। बंगाल में इसका प्रमुख आयोजन महास्नान और महापूजा से शुरू होता है। देवी की मूर्ति को गंगा जल और पवित्र औषधियों से स्नान कराया जाता है, फिर सुगंधित वस्त्र, फूल, फल और धूप-दीप से उनका श्रृंगार किया जाता है।
महापुष्पांजलि
नवमी की पूजा का मुख्य अंग पुष्पांजलि है। भक्तगण मिलकर "यादेवी सर्वभूतेषु…" जैसे मंत्रों के साथ देवी को फूल अर्पित करते हैं।
बलिदान और नैवेद्य
पारंपरिक रूप से इस दिन बकरी या भैंसे के बलिदान का भी प्रचलन था, जो आज अधिकांश स्थानों पर प्रतीकात्मक रूप में लौकी या कद्दू के रूप में किया जाता है।
होम और हवन
नवमी के अवसर पर यज्ञ-हवन द्वारा वातावरण को पवित्र किया जाता है और देवी से शक्ति और समृद्धि की कामना की जाती है।
सांस्कृतिक उत्सव का चरम
धार्मिक विधियों के साथ-साथ महानवमी बंगाल की सांस्कृतिक चेतना का भी चरम बिंदु है। पंडालों में उमड़ती भीड़, ढाक की गूंज, धुनुची नृत्य और भक्ति गीतों का वातावरण इस दिन अपने उत्कर्ष पर होता है। परिवारों और समुदायों का मेल-मिलाप, सामाजिक एकता और सामूहिक उत्सव का यह भाव बंगाली समाज की आत्मा को उजागर करता है।
बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, हर कोई इस दिन नये वस्त्र धारण कर देवी के दर्शन के लिए निकलता है। पंडालों में कला और आस्था का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जहां पारंपरिक मूर्तियों से लेकर आधुनिक थीम तक, सब कुछ माँ दुर्गा की महिमा को समर्पित होता है।
महानवमी केवल देवी की पूजा नहीं, बल्कि एक गहरा संदेश भी देती है कि जब तक मनुष्य अपने भीतर की अज्ञानता, अहंकार और नकारात्मक शक्तियों को नहीं जीतता, तब तक सच्चा विजयदशमी संभव नहीं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि शक्ति केवल बाहरी अस्त्रों में नहीं, बल्कि भीतर की साधना और संयम में भी निहित है।
माँ सिद्धिदात्री की उपासना केवल वरदान पाने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह हमारी आंतरिक शक्ति को पहचानने और उसे सकारात्मक दिशा देने का अवसर है। यही कारण है कि महानवमी केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आत्मबल, श्रद्धा और समाज की सामूहिक आस्था का उत्सव बनकर हर वर्ष हमारे जीवन को आलोकित करती है।
-शुभा दुबे
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