भगवान से डरा कर धंधा करने वाले लोगों से बचें, ईश्वर किसी का अहित नहीं करता

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संजय तिवारी । Sep 11 2019 12:04PM

तंत्र और ज्योतिषीय अनुष्ठानों पर लोग खुल कर धन खर्च कर रहे हैं और डरे हुए लोगों से इस धंधे में उतर चुके लोग खूब धन कमा रहे हैं लेकिन अपने मूल सनातन को लेकर चिंतन और विमर्श के लिए न तो किसी के पास समय है और न धन।

भारतीय सनातन दर्शन को आजकल होंडू धर्म कहा जाने लगा है। इस धर्म की आड़ में बहुत लोग ऐसे भी उग आये हैं जो सामान्य लोगों को धर्म का डर दिखा कर अपने धंधे कर रहे हैं, खास तौर पर तंत्र और ज्योतिष के बहाने से। यह चलन बहुत तेजी से बढ़ा है। इसी चलन के कारण सनातन संस्कृति को बहुत बदनामी भी झेलनी पड़ रही है। यह सनातन आस्था के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ और संकट है। इस डर के बल से धंधा करने वालों की बढ़ती संख्या और प्रभाव ने हिंदू संस्कृति को बहुत बदनामी भी दी है और आलोचना का पात्र भी बना दिया है। धर्म का डर दिखा कर आजकल ज्योतषि, तंत्र और अनेक काल्पनिक अनुष्ठानों का चलन इतना बढ़ गया है कि मूल सनातन को खुद की स्थापना में बहुत कठिनाई भी हो रही है। तंत्र और ज्योतिषीय अनुष्ठानों पर लोग खुल कर धन खर्च कर रहे हैं और डरे हुए लोगों से इस धंधे में उतर चुके लोग खूब धन कमा रहे हैं लेकिन अपने मूल सनातन को लेकर चिंतन और विमर्श के लिए न तो किसी के पास समय है और न धन। आज की चर्चा धर्म के निर्भय स्वरूप पर।

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यह सोचने की बात है कि सनातन का कोई देवी, देवता या स्वयं भगवान् ही भला किसी जीव को डराने क्यों लगे। ईश्वर क्यों अपने किसी संतान का बुरा चाहेगा ? जो परम पिता है वह क्यों चाहेगा कि उसकी  संतान कष्ट में रहे ? भला कोई संतान अपने माता-पिता से डरती है क्या ? जो देवी हमारी माता हैं उनसे कैसा डर ? जो भगवान् हमारे पिता हैं उनसे कैसा डर ? यदि यह कल्पना भी कर ली जाये कि माँ और पिता नाराज हैं तो क्या किसी मनुष्य में इतनी शक्ति हो सकती है कि वह उस नाराजगी को दूर कर सके ? लेकिन यह धंधा चल तो रहा है। एक विशुद्ध विज्ञान और गणित ज्योतिष की आड़ में और दूसरा तंत्र की आड़ में। खूब मूर्ख बन रहे हैं लोग।

यह इसलिए हो रहा है क्योंकि हमें अपने वजूद, अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा और अपने सनातन के महाज्ञान और महा विज्ञान के बारे में कोई जानकारी नहीं है। कथित लेखक, पत्रकार, विवेचक, साहित्यकार और आधुनिक विद्वान् के रूप में स्थापित लोग भी इतने जाहिल और अज्ञानी हैं कि बिना कुछ जाने, समझे ही सनातन संस्कृति पर बार-बार हथौड़े चला चला कर विकृतियों को ही स्थापित कर देते हैं। ईश्वर और मनुष्य के बीच कितना मधुर सम्बन्ध है इसका बहुत बड़ा उदाहरण भगवान् श्री राम के जीवन में केवट प्रसंग में मिलता है। उससे भी हम सीख नहीं पाते। आलेख लंबा हो सकता है लेकिन उस प्रसंग के माध्यम से इस बात को समझा जा सकता है। वनवास के आदेश के बाद राम सीता और लक्ष्मण श्रृंगवेरपुर में गंगा तट पर पहुंच चुके हैं। पूरी कथा सभी को मालूम होगी इसलिए कथा के विस्तार में नहीं जाऊंगा। जब बार-बार भगवान राम के कहने पर भी केवट नाव नहीं लाता है और प्रतीक्षा करता है कि राम उससे पाँव धोने के लिए खुद कहें तब लक्ष्मण को क्रोध आता है और वह धनुष पर बाण चढ़ा लेते हैं। वह लक्ष्मण को समझाते हैं कि जो किसी बात से डर ही नहीं रहा उसको धनुष बाण से नहीं डराया जा सकता। डराया तो उसको जाता है जिसमें किसी प्रकार का लोभ हो या डर हो। केवट को तो कोई मोह या लोभ भी नहीं है। वह तो उतराई भी नहीं लेने की घोषणा कर रहा है। लक्ष्मण इस बात को समझ जाते हैं। धनुष नीचे रख देते हैं। राम यह जानते हैं कि केवट ऐसा जीव है जो मेरे बारे में सब जानते हुए भी डर नहीं रहा है। इसलिए राम को खुद ही कहना पड़ता है कि मेरे पैर धो लो।

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यह ऐसा प्रसंग है जिसमें यह स्पष्ट सन्देश है कि धर्म में डर का कोई स्थान नहीं है। केवट की निडरता को जान कर ही राम उसको अपने पैर धोने की अनुमति देते हैं और वह सब करते हैं जो केवट कहता है। केवट उनके सामने समर्पित नहीं है बल्कि उसकी निडरता ने भगवान् को ही उसके सामने समर्पित कर दिया। अपने निडर और निश्छल संतान को भगवान् पहुत प्रेम करते हैं। केवट जनता है कि यदि भगवान् के सामने वह उनकी भक्ति करने लगेगा तो फिर उसे वह करना होगा जो भगवान् चाहेंगे। अभी पाँव धोने तक वह समर्पण के भाव में नहीं है लेकिन पाँव धोने के बाद वह जब अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाता है और फिर नाव में भगवान को सपरिवार बिठा लेता है तो उस पार पहुंचते ही वह बिलकुल समर्पण की मुद्रा में आ गया। वहां जब जानकी जी उसको अपनी मुद्रिका देती हैं तो वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला कि अभी तो आप लोग वन में जा रहे हैं, जब वापस लौटिएगा तब प्रसाद दे दीजियेगा। भगवान् ऐसा करते भी हैं। जब लंका विजय के बाद भगवान अयोध्या से निषादराज गुह्य को विदा करते हैं तो उनके हाथ केवट के लिए प्रसाद भी भेजते हैं। यह है भगवान् और हमारा सम्बन्ध। इसमें भला डर की जगह कहां है। यही है हमारी सनातनता। यही है हमारी संस्कृति। यह है हमारा धर्म। अब यदि ऐसे धर्म में कोई तंत्र या ज्योतिष का भय दिखा कर ठग ले तो उन्हें सोचना पड़ेगा जो ठगे जाने की आदत डाल चुके हैं। इस आदत को बदलिए। डरिये मत। हमारा कोई देवी देवता हममें से किसी का नुकसान पहुँचाना या अहित नहीं चाहता।

-संजय तिवारी

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