वसंत पंचमी पर अबू धाबी से हिन्दी भाषा के लिए आया सुखद संदेश

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डॉ. वंदना सेन । Feb 14 2019 2:42PM

हिन्दी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता को हम भले ही कम आंक रहे हों, लेकिन यह सत्य है कि इसका हमें गौरव होना चाहिए। भारत में हिन्दी की संवैधानिक स्वीकार्यता रही है। कई संस्थाएं हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रचारित करती हैं तो कई मातृभाषा के रूप में।

भारत की मूल भाषा हिन्दी का भले ही देश के सभी राज्यों में समान सम्मान नहीं मिल रहा हो, लेकिन हिन्दी भाषा पहले से भी और वर्तमान में भी वैश्विक सम्मान को प्रमाणित करती हुई दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं आज विश्व के कई देशों में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसी के साथ अभी हाल ही में आबू धाबी में हिन्दी को तीसरी भाषा के रुप में मान्यता मिलना निश्चित तौर पर हिन्दी की गौरव गाथा को ध्वनित करता है।

मां सरस्वती की जयंती पर आबू धाबी से हिन्दी भाषा की वैश्विक स्वीकार्यता के लिए बड़ा ही सुखद संदेश आया है। आबू धाबी के न्यायालयों में अभी तक केवल अंग्रेजी और अरबी भाषा को ही मान्यता प्राप्त थी, लेकिन यह भारत में हिन्दी के विस्तार के लिए एक पाथेय है कि अब आबू धाबी में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी है। हिन्दी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता को हम भले ही कम आंक रहे हों, लेकिन यह सत्य है कि इसका हमें गौरव होना चाहिए। भारत में हिन्दी की संवैधानिक स्वीकार्यता रही है। कई संस्थाएं हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रचारित करती हैं तो कई मातृभाषा के रूप में। दक्षिण के राज्यों में कहीं कहीं हिन्दी के विरोध में स्वर उठते हैं, लेकिन यह स्वर अब धीमे होने लगे हैं। दक्षिण के राज्यों में भी अब हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी लगातार अपना विस्तार कर रही है।

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भारतीय संविधान के अनुसार हिन्दी भारत संघ के साथ ही उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड व उत्तराखण्ड राज्यों तथा दिल्ली व संघ शासित क्षेत्र अंडमान निकोबार की भी राजभाषा है। इसी के साथ महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब राज्यों व संघ शासित क्षेत्रों- चंडीगढ़, दादरा नगर हवेली व दमन द्वीप में शासकीय कार्यों हेतु हिन्दी मान्य राजभाषा है। भारत के साथ ही सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, मारीशस, थाइलैंड व सिंगापुर इन सात देशों में भी हिन्दी वहां की राजभाषा या सह राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है और अब आबू धाबी को मिलाकर हिन्दी भारत के अतिरिक्त 8 देशों की मान्यता प्राप्त भाषा बन गई है। इसी के साथ विश्व के 44 ऐसे राष्ट्र हैं जहां की 10 प्रतिशत या उससे अधिक जनता हिंदी को बोलते एवं समझते हैं। इसके साथ ही यह बात हिन्दी भाषा की सर्वग्राह्यता को बखूबी प्रतिपादित करती हैं कि विश्व के अनेक देशों में हिन्दी भाषा के पत्र, पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।

अमेरिका में हम हिन्दुस्तानी नाम का साप्ताहिक समाचार पत्र आज विश्व ख्याति अर्जित कर रहा है। उसके पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है, इसी प्रकार चीन, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में भी हिन्दी को वैश्विक दर्जा दिलाने वाले कार्यक्रम हो रहे हैं, जो भारत के लिए गौरव की बात है।

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आबू धाबी में हिन्दी को मान्यता मिलना और भारत को यह संदेश वसंत पंचमी के दिवस पर मिलना बहुत ही सम्मान की बात है। माँ शारदे ज्ञान की देवी हैं पर साथ में विवेक और अपनी सारस्वत संस्कृति की भी देवी हैं। इसीलिए एक बड़ी आबादी के न्याय, समानता का मान रखते हुए आबूधाबी की सरकार ने अपने न्यायालयों में जब हिंदी को अधिकृत भाषा का दर्जा दिया, तो यह हमारे देश के साथ ही भाषाई गर्व का भी प्रतीक के रूप में उपस्थित हो गया, पर हम कब इसे समझेंगे। भारत की भाषा का यह सम्मान विदेश में भारतीयों के महत्व को दिखाता है। साथ ही विदेशी धरती पर हिंदी का यह महत्व अपने देश की न्याय-व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न भी खड़े करता है। जहां स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी न्याय के मंदिर में हिंदी एवं भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जा प्राप्त है। यह शर्म की बात है कि आज भी न्याय की भाषा एक औपनिवेशिक संस्कृति की प्रतीक भाषा अंग्रेजी हैं। जहां अँग्रेजी के मूल दस्तावेज को ही प्रमाण माना जाता है। वहाँ लोकतंत्र की मूल परिभाषा का ही माखौल उड़ाया जा रहा है। न्याय का मंदिर जन की भाषा में नहीं अपितु विदेशी भाषा में संवाद करें तो ऐसी व्यवस्था बेमानी हो जाती है। जिस व्यवस्था में लोक और उसकी इच्छा सर्वोपरि मानी जाती हो वहाँ उसकी इच्छा के विरुद्ध तंत्र की कोई भी व्यवस्था काम करे तो वह लोक का तंत्र कैसे होगा ? समय आ गया है कि अब हम भारतीय गुलाम मानसिकता को दूर कर अपनी भाषा को वह सम्मान दिलाए जिसकी वह अधिकारिणी हैं। न्याय-व्यवस्था में भारतीय भाषाओं की मांग को मजबूती के साथ रखा जाए। आम चुनावों में भी इसे मुद्दा बनाया जाए ताकि राजनीतिक दल चेतें और यह मांग उनके घोषणा पत्र का अंग बनें।

-डॉ. वंदना सेन

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