प्यार की नौटंकी (व्यंग्य)
आजकल तो पुराने प्यार की स्मृतियों को याद करने का एक और तरीका है। आजकल विफल प्रेम, सोशल मीडिया का पासवर्ड बनकर प्रेमी की स्मृति में अंकित हैं। अब गए वे जमाने जब प्यार भरे पत्रों को किताबों में छुपाकर, बालाएं इठलाती थीं, संकुचाती थी और शर्माती थी।
ज़िंदगी में सब कुछ तेजी से बदल रहा है। इतनी तेजी से तो मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में मूवी भी नहीं बदल रही है। लेकिन अगर कुछ नहीं बदला है, तो वह है प्यार! जी हां, प्यार जिसे आप प्रेम, अनुराग, आसक्ति, मोह, स्नेह, रति, प्रीति, अनुरंजन, लगाव, अनुरक्त, इश्क़, मोहब्बत, स्नेहसिक्त, प्रेमभाव, राग, नेह, उल्फ़त, चाहत, वफ़ा, रफ़ाक़त और दिल्लगी जैसे साहित्यिक नामों से या हालात-ए-सूरत की असली शब्दावली से निकले शब्द जैसे प्रेम का पेंडेमिक, मोहब्बत का मीज़ल्स, प्यार का पीलिया, चाहत का चिकनगुनिया, आकर्षण का ऐंठन, रूमानी रूबेला, स्नेह का स्वाइन फ्लू, दिल का डेंगू, मोह का मलेरिया, दिल्लगी का दस्त, प्रीत की पथरी, मजनूं का मस्तिष्क ज्वर, माशूका का मतिभ्रम, लगाव का लूज मोशन, चाहत का चेचक, इश्क़ का बुखार, साजन की सर्दी-खांसी, महबूब का मस्तिष्क ज्वर आदि किसी भी नाम से पुकार सकते हैं। कुछ भी कह लो, प्यार का नाम सुनते ही अच्छे-अच्छों के दिल की धड़कनें लुहार की धौंकनी जैसी चलने लगती हैं। प्यार का नाम वैसे ही गर्मी से झुलस रही आहों को और गरम कर देता है। इस गर्मी में तो रामलीला के मंचन में हनुमान जी के पात्र को भी मुंह में केरोसिन लेकर आग फूंकने की जरूरत ही नहीं, बस प्यार का नाम सुना दो, मुंह से वैसे ही आग बरसने लगेगी।
मेरा तात्पर्य है कि प्यार का नाम नहीं बदला, लेकिन प्यार करने का तरीका बदल गया है। प्रेमी और प्रेमिका के बीच प्रेमालाप की चरणबद्ध प्रक्रियाएँ बदल गई हैं। आजकल का प्यार तो जैसे ट्वेंटी-ट्वेंटी का मैच हो गया है। एक ही दिन में 'आई लव यू' से 'आई नीड टू टॉक टू यू', और 'देखो हमारे रास्ते अलग हैं' हो जाता है।
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अब तो प्यार भी 'चट मंगनी पट ब्याह' की तरह 'चट प्यार पट ब्रेकअप' हो गया है। प्यार, जहां पहले सत्यनारायण भगवान के प्रसाद की तरह हर किसी को नहीं लुटाया जाता था, अब तो प्यार की स्कूटी को चलाने के लिए एक मुर्गा और दो-चार स्टेपनी का काम मुस्तैदी से संभाले हुए प्यार के कीड़े चाहिए, जो इस स्कूटी में पीछे लगे रहते हैं। या यूँ कहिए कि दो-चार एक्स्ट्रा प्लेयर इस प्यार की क्रिकेट में होते हैं, जो प्रेमिका द्वारा प्रेमी से भूतपूर्व प्रेमी किए हुए रिटायर्ड हर्ट खिलाड़ी की जगह खेलने लगते हैं। ये प्यार के कुलबुलाए कीड़े, जो राशन की लाइन और टिकट विंडो की लाइन में लगे रहने से अभ्यस्त हो गए हैं, यहाँ भी अपनी प्यार की खिचड़ी पकाने के लिए लाइन में लगे रहते हैं। भारत के बेरोजगार युवा वो भी प्रेमी, मतलब की मेल खाता हुआ एक घातक कॉम्बिनेशन! सरकारी नौकरियों की भर्तियाँ तो नहीं, हां, प्यार के शोना बाबू के पद की वेकेंसी की घोषणा होते ही अपना फॉर्म आगे सरका देते हैं!
अब देखो, वो पहले जमाने का प्यार तो है नहीं, कि महीनों तक गली में धूल फांकते उसकी बस एक झलक देखने में निकल जाए। गली के कुत्तों से कटवाने और प्रेमिका के भाई से पिटवाने से अपने डील-डौल को जैसे-तैसे बचाते फिरते, छुपते-छुपाते कभी-कभार मिल भी जाते थे तो उस परम मिलन की खुमारी साल भर नहीं उतरती थी। फिल्मों में तो प्यार में मिलन को सांकेतिक रूप से दो गुलाब के फूलों का मिललाकर दिखा देते थे। आजकल तो एक फूल के दो नहीं, चार माली हैं। इसलिए फूल की जगह माली ही आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं। फूल चूमने के चक्कर में खुद माली ही फूल बन रहे हैं। आजकल तो प्यार करने का दिन भी फिक्स कर दिया गया है, 'वैलेंटाइन डे', जैसे कि प्यार में ऑन-ऑफ का बटन लगा दिया हो। बटन ऑन हुआ प्यार हुआ, बटन ऑफ प्यार खत्म, फिर साल भर इंतजार करो।
पहले प्यार सालों की नहीं, पूरी पंचवर्षीय योजना थी, हालांकि पंचवर्षीय योजना की तरह योजनाबद्ध भी नहीं थी। बस कोर्ट में चल रहे मुकदमों की तरह माशूका की तरफ से तारीखों पर तारीखें मिलती थीं। कोई एक-दो प्यार भले ही दोनों पक्षों के वकील और जज की भूमिका निभा रहे दोस्त और रिश्तेदार मिलभगत करके फेवर में फैसला कर देते थे। घरवालों की लोकलिहाज की मजबूरी भी साथ देती थी। वरना अधिकांश प्रेम कहानी शीरी-फरहाद, लैला-मजनू की तरह जिंदगी भर तकिए में मुंह छुपाए सिसकती रहती या अपने आप को माशूका के बच्चों के मामा जी कहलवाने तक सिमट जाती थी।
आजकल तो पुराने प्यार की स्मृतियों को याद करने का एक और तरीका है। आजकल विफल प्रेम, सोशल मीडिया का पासवर्ड बनकर प्रेमी की स्मृति में अंकित हैं। अब गए वे जमाने जब प्यार भरे पत्रों को किताबों में छुपाकर, बालाएं इठलाती थीं, संकुचाती थी और शर्माती थी। सहेलियों की मसखरी और चिकोटी के बीच पत्रों को छुपते-छुपाते पढ़ा जाता था।
जहां प्यार की आखिरी मंजिल पहले चने और गन्ने के खेत होते थे, वहां उनकी जगह अब ओयो होटलों के रूमों ने ले ली है। प्यार के पत्रों को वह छूने का अहसास और वह शेरो-शायरी की जगह अब व्हाट्सएप चैट के 'हम्म्म' ने ले ली है। शेरो-शायरी भी ऐसी की कालिदास की आत्मा अगर देख रही हो तो वह भी शर्मा जाए। "खत लिखती हूँ खून से स्याही ना समझना, फूल भेजा है पत्थर ना समझना" आदि साहित्यिक रचना से अलंकृत प्रेम की चरमोत्कर्ष अभिव्यक्ति!
आजकल जहां प्यार के फल की परिणति नए-नए गर्भपात सेंटरों में हो रही है, वहाँ पहले तो प्यार का इज़हार भी नहीं हो पाता था। जब तक इजहार करते तब तक तो आशिक बेचारा अपनी माशूका की शादी में बारातियों को गरम-गरम पूड़ी परोस रहा होता था। आजकल तो गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड रखना ऐसे हो गया है जैसे कुत्ता पालना। बाबू शोना रखना जैसे एक स्टेटस सिंबल बन गया है। जिसने जितने ज्यादा बंदे या बंदी पाल रखी हैं उसकी उतनी ही पूछ।
नाम भी बदल गए हैं। जहां पहले प्रेमिका, प्रेमी का नाम लेने में भी शर्माती थी, अब तो बाबू, शोना, और ना जाने क्या-क्या नाम रखा जाता है। ऐसे ही जैसे पालतू कुत्ते का निक नेम रखते हैं। आज के जमाने में जहां प्यार की पींगे कॉफी हाउस, रेस्टोरेंट में बढ़ाई जाती हैं, हमारे जमाने में तो पुराने भूत बंगले की फूटी दीवार, बरगद के पेड़ की छांव, कुएं की मेंड़ या गांव के बाहर किसी बुजुर्ग पटेल की मरनोपरांत बनी छतरी के नीचे ही ये सब होता था!
सुना है 'प्यार में दिल धक-धक करता है', किताबी बातें लगती हैं। हमारे ज़माने में तो वो धक-धक प्रेयसी के मिलन से कम, घरवालों को पता न लग जाए इस डर से ज्यादा लगता था। नहीं तो दो चप्पल की मार में इश्क का भूत उतरते देर नहीं लगती थी। स्कूल-कॉलेज में नहीं, शादी में आई मेहमान या पड़ोस के घर छुट्टियां बिताने आई लड़की, इश्क में मरने के लिए लैला और हीर का काम करती थी। दीदार गलियों में या पनघट पर होता था, जहां इशारों में मोहब्बत होती थी। अब इश्क का जैसे सैलाब आ गया, दो टूक बात नहीं, मोबाइल पर 24 घंटे बातें करने का रिकॉर्ड बनाते हैं। एक दिन में ही बातों का कोटा खत्म कर लेते हैं, दूसरे दिन कुछ कहने को रहता नहीं। फिर क्या! इसलिए तो ब्रेकअप हो रहे हैं। मोहब्बत कम, शोबाजी हो गई है। इंस्टा, व्हाट्सएप, फेसबुक में लाइक, कमेंट और एक-दूसरे की प्रोफाइल की चौंकसी, बस यही रह गया है प्यार का मतलब। हर दूसरे दिन फ्रेंडज़ोन के शिकार, 'शोना', 'बाबू' से कब 'मेरी जान छोड़', 'कहीं और मर' पर आ जाए पता ही नहीं चलता।
पुराने दौर के प्यार के अफ़साने सिर्फ और सिर्फ पुरानी फिल्मों में या पुराने रीति काल के कवियों ने अपनी लेखनी से संजो कर रखे हैं। जिस प्रकार शहर की आधुनिकता वापस अपनी जड़ों की ओर जा रही हैं, अब पांच सितारा होटलों में भी गांव के चूल्हे की मक्की की रोटी, सरसों का साग, आधुनिकता के एल्युमीनियम फॉयल में परोसे जा रहे हैं। वो दिन दूर नहीं, शायद पुराना प्यार भी लक्जरी विंटेज में शामिल हो जाए और पुरानी तरह से प्यार करने वाले आशिकों को इस विरासत को जिन्दा रखने के खिताब से नवाजा जाए।
चलते-चलते शकील बदायूंनी जी का एक शेर याद आ गया:
"ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बेकार की बातें करते हैं,
पायल के ग़मों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं।"
– डॉ. मुकेश असीमित
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