वातावरण का पर्यावरण (व्यंग्य)

हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा है, भाषण देने वाले पूरे आत्मविशवास और निश्चय के साथ समाज को सभ्य मानते हुए कहते हैं कि वातावरण में जागरूकता लाकर ही जंगल बचाकर पर्यावरण और ज़मीन को सुरक्षित रख सकते हैं।
बारिशों ने खूब पानी बरपाया। कई जगह तो पानी कहर बन कर पसरा रहा। इस बहाने कईयों ने तैरना सीख लिया। प्रशासन परम्परागत शैली में ध्वस्त, ड्रेनेज सिस्टम अस्त व्यस्त और आम आदमी मजबूरन पस्त रहा। लापरवाही हमेशा की तरह डूबती रही। आपदा में अवसर खोजने की परम्परा बहती रही। स्थितिवश शासन और प्रशासन ज़िम्मेदार लोगों से बार बार आग्रह करता रहा, असामाजिक होते जा रहे सामाजिक मीडिया और समाचार पत्रों में अपील करता रहा लेकिन ‘सामाजिक जानवर’ यानी इंसान, वातावरण और पर्यावरण के प्रति रुख बदलता नहीं दिखा।
हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा है, भाषण देने वाले पूरे आत्मविशवास और निश्चय के साथ समाज को सभ्य मानते हुए कहते हैं कि वातावरण में जागरूकता लाकर ही जंगल बचाकर पर्यावरण और ज़मीन को सुरक्षित रख सकते हैं। उन्हें ध्यान नहीं रहता कि समाज अब पहले जैसा कम सभ्य नहीं रहा। पर्यावरण बचाने के लिए वृक्ष लगाने, पानी देने और रक्षा करने से ज्यादा आसान और लाभदायक होता है, आरामदायक जगह बैठक, बैनर रैली और लंबा जुलूस निकालना। इस माध्यम से मिलना जुलना भी हो जाता है ।
व्यावहारिक कर्म में विशवास रखने वाले परिषद के अध्यक्ष, रैली को हरी झंडी दिखाकर रवाना करते हैं।
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रैली में भाग लेने वाले, नारे लगाने से पहले बोतल में पानी, खाना, सेब और केले आदि मौसमी फलों का भोग लगाते हैं। काफी पैसे तो टी शर्ट्स और उन पर ‘वी लव अवर ग्रीन एनवायरनमेंट’ छपवाने, दस्ताने और हरी टोपियां खरीदने में ही खर्च हो जाते हैं। ऐसी रैलियों में कुछ विशिष्ट लोग भी शामिल रहते हैं जिन्होंने पेड़ कटवाकर अवैध कालोनी का निर्माण और अपने मकानों का पुनर्निर्माण किया हो। ऐसे शानदार और दिखावटी वातावरण में बेचारा पर्यावरण अपने संरक्षण के ख़्वाब देखता रह जाता है।
सूचनाओं के अंबार में डूबे अधिकांश नागरिक भली भांति जानते, मानते और समझते हैं कि पर्यावरण बचाना संवारना, संरक्षित और सुरक्षित करना बहुत ज़रूरी है। इस सन्दर्भ में यह मज़ेदार सच हैरान करने वाला है कि लोग वातावरण को ही पर्यावरण समझ लेते हैं। हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि पर्यावरण को बचाने के लिए ज़रूरी उपाय करें लेकिन अपना मानवीय कर्तव्य याद नहीं रहता। दूसरों के सहयोग की चिंता छोड़कर जो हम कर सकते हैं वह करना मुश्किल होता है। महिलाएं इस क्षेत्र में ज्यादा सक्रिय भूमिका अदा कर सकती हैं। घर में प्लास्टिक का आना, चाहें तो वे निश्चित ही कम कर सकती है। पारिवारिक स्तर पर पानी का उचित प्रयोग कर कुछ पानी तो बचा ही सकती हैं। वैसे, मुश्किल काम करना आसान नहीं होता।
जितने भी पौधे घर में लगाने हों प्लास्टिक की जगह मिटटी के गमलों में लगा सकते हैं। प्लास्टिक के फूल न रखकर इनडोर पौधे रख सकते हैं। सामान लाने के लिए कपडे आदि का थैला प्रयोग करना ज़रा भी मुश्किल नहीं।
दुकानदार से पैक्ड वस्तुएं अलग थैले में न लेकर सीधे उसमें डाल सकते हैं। ‘रियूज़, रिडयूस, रिपेयर, रिसाइकिल और रिकवर’ जैसे पांच नुस्खे अपनाकर जीवन के पांच तत्वों ‘आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी’ को अपने हिस्से का फायदा तो पहुंचा ही सकते हैं।
आसान काम करना भी, आसान कहां होता है जी। पर्यावरण को वातावरण समझना आसान होता है जी।
- संतोष उत्सुक
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