जुए पर जुआरी का ''प्वाइंट ऑफ व्यू'' (व्यंग्य)

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पीयूष पांडे । Oct 25 2019 4:05PM

छोटे-मोटे जुआरी मार्केट से उसी तरह गायब हो गए हैं, जैसे नोटबंदी के बाद 500-100 के नोट झटके में गायब हो गए थे। मतलब यह कि ज्यादा जगह जुए के पारंपरिक फड़ नहीं सजे हैं। दूसरा, मंदी के मौसम में कुछ पल के खेल में ही सच्चे जुआरियों को बड़ा दांव मारना है।

जिस तरह बरसात के मौसम में मेंढ़क खुले में आकर ‘टर्र-टर्र’ करते हैं, उसी तरह दिवाली के मौसम में जुआरी ‘जुआ-जुआ’ करते हैं। आम लोग दिवाली पर शुभकामनाएं देते हुए एक-दूसरे को हैप्पी दिवाली कहते हैं, लेकिन कर्तव्यनिष्ठ जुआरी दोस्तों को फोन करके सिर्फ एक बात पूछता है- ‘खेल कहां जमा है। फड़ कहां लगा है?’ दिवाली एक तरह से जुआरियों की सालक के समान है। कई जुआरी इस एक मौसम में साल भर का इंतजाम कर लेना चाहते हैं। भाग्य के घोड़े पर सवार होकर कुछ जुआरी अपने पवित्र उद्देश्य में कामयाब हो जाते हैं, जबकि ज्यादातर अपनी अच्छी खासी जमा पूंजी को लुटाने के बाद पत्नी की गालियां सुनकर अज्ञातवास में चले जाते हैं, अगले साल दिवाली पर धुआं करने का उद्देश्य लिए। इस साल मंदी के चलते सच्चे जुआरियों पर दोहरा दबाव है। छोटे-मोटे जुआरी मार्केट से उसी तरह गायब हो गए हैं, जैसे नोटबंदी के बाद 500-100 के नोट झटके में गायब हो गए थे। मतलब यह कि ज्यादा जगह जुए के पारंपरिक फड़ नहीं सजे हैं। दूसरा, मंदी के मौसम में कुछ पल के खेल में ही सच्चे जुआरियों को बड़ा दांव मारना है।

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इस संक्षिप्त प्रस्तावना से आप समझ सकते हैं कि अभी जुआरियों का पीक सीजन चल रहा है। बावजूद इसके मैं एक सफल निष्ठावान जुआरी के साथ कुछ पल बिताने में कामयाब रहा। मैंने उनसे जाना कि जिस जुए को समाज में सामाजिक बुराई का दर्जा मिला हुआ है, उसके प्रति उनकी निष्ठा क्यों है? आखिर जुए से क्या लाभ? और क्यों ना सरकार जुए पर हर किस्म की पाबंदी लगा दे? मेरे प्रश्नों का प्रतिउत्तर उनके संक्षिप्त भाषण के रुप में पेश है।

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''देखिए, मुझे लगता है कि जुए को सामाजिक बुराई के लफड़े में तो महाराज युधिष्ठिर फँसा गए। उन्हें चौसर खेलना आता नहीं था, और वर्ल्ड क्लास चैंपियन शकुनि के लपेटे में आ गए। आप शास्त्र-पुराण पढ़िए, जुआ भगवान शिव ने भी खेला और राजा नल ने भी। बलराम भी जुआ खेले और युधिष्ठिर भी। जुआ अगर वास्तव में बुरा होता तो इनके दौर में जुआ होता ही क्यों? आखिर सब समझदार लोग थे। जुआ बुराई कतई नहीं अलबत्ता हार्ट को मजबूत करने का शर्तिया टोटका है। वर्तमान समय में तो जुआ खेलना बहुत जरुरी है। जिस दौर में बैंक में रखा पैसा ही डूब रहा है, बिल्डर लाखों रुपए लेकर घर दे नहीं रहे और ग्राहक ईएमआई पर ईएमआई भरे जा रहा है, उस दौर में बंदे का हार्ट मजबूत होना ही चाहिए। जिस ग्राहक ने बचपन से जवानी तक जुआ खेला होगा, वो झटका झेल जाएगा। फिर प्रेम प्रसंगों के मामले में भी वही बंदे हिट होते हैं, जिनका दिल मजबूत होता है। आपने देखा होगा कि कई लड़के लड़की द्वारा प्रेम प्रस्ताव ठुकराए जाने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं, लेकिन जिन लड़कों को जुए का अनुभव होगा, वो कभी खुदकुशी जैसी ओछी हरकत नहीं कर सकते। वो जानते हैं कि मुहब्बत भी एक जुआ है। यहां आज हार है तो कल जीत भी मिलेगी। जुए का शाब्दिक अर्थ है, अपेक्षानुरूप फल पाने के लिए जोखिम लेना। सरकार को तो जुए पर पाबंदी का कोई नैतिक अधिकार ही नहीं क्योंकि वो खुद जुआ खेलती है। घोषणापत्र में किए वादे जुए के अलग अलग नाम ही तो हैं। किसी को फ्री टीवी, किसी को फ्री अनाज, किसी को फ्री घर। सिर्फ इसलिए ताकि वोटर वोट दे और अपनी सरकार बने। वैसे, जिन्हें जुए से समस्या है, उनसे मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि क्या हर वक्त हम लोग जिंदगी का जुआ नहीं खेल रहे। आप सुबह घर से निकलिए, और शाम को आप घर लौटेंगे या नहीं, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता तो क्या ये जुआ नहीं है।”

ये सारगर्भित भाषण देकर जुआरी महोदय जुआ खेलने चले गए। जुए पर अपने विचार को लेकर मैं अब कंफ्यूज हूं।

- पीयूष पांडे

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