हिन्दी! तुम संविधान में हो, मंचों पर हो लेकिन आमजन से तुमको दूर किया जा रहा है

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तुम संविधान में तो हो। तुम मंचों पर भी हो। लेकिन देखना और समझना यह है कि तुम्हारा वह होना किस रूप में है? क्या तुम मजाकिया अंदाज़ में हो? क्या तुम महज कवियों की पंक्तियों में तालियों के रूप में हो आदि आदि।

कल्पना करता हूं। करनी ही चाहिए। हिन्दी ! कभी कभी तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचता हूं। सोचकर थोड़ा परेशान तो थोड़ा चिंतित भी हो उठता हूं। वैसे चिंता और निराश होने की कोई ऐसी बात नहीं। क्योंकि लगातार तुम्हारे बेहतर भविष्य के सपने और भविष्यवाणियां सुनता हूं। सुनता हूं कि तुम्हारा भविष्य बहुत उज्ज्वल है। तुम तो विश्व के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ने−पढ़ाने के विषय के तौर पर शामिल कर ली गई हो। तुम्हें बोलने बरतने वालों की संख्या लगातार बढ़त हासिल कर रही है। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि आज बाजार की भाषा के तौर भी तुम्हारी पहचान मजबूत हो रही है। क्या देश और क्या विदेश हर जगह तुम्हारी संतति पहुंच रही है।

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तुम्हारे बारे में तो यह भी घोषणा सुनने को मिलती है कि तुम करोड़ों लोगों की जबान बन चुकी हो। तुम्हें विज्ञापनों से लेकर होर्डिंगों में, बाजार से लेकर दुकानों में। और तो और चौका से लेकर चौकी तक तुम फैल चुकी हो। मगर सच बताऊं मैं तुम्हें उन हर जगहों पर तलाश करता हूं जहां जहां तुम्हारे होने की निशानी मिल सके। तुम्हारे बारे में जहां होने की खबर दी गई उन जगहों पर तुम्हें पहचानने की कोशिश कर रहा हूं। तब एक अजीब-सी बेचैनी होती है। परेशानी भी कह सकती हो। वह यह कि तुम्हें हमने आमजन से काट कर या तो मंचों तक महदूद कर दिया या फिर तुम्हें पूज्य बनाकर आसन पर बैठा दिया। क्योंकि जमीनी हक़ीकत यह है कि तुम उन तमाम जगहों पर हो ही नहीं। तुम संविधान में तो हो। तुम मंचों पर भी हो। लेकिन देखना और समझना यह है कि तुम्हारा वह होना किस रूप में है? क्या तुम मजाकिया अंदाज़ में हो? क्या तुम महज कवियों की पंक्तियों में तालियों के रूप में हो आदि आदि।

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मैं तुम्हें स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में कुछ अलग ही रूप देह धज्जे में पाता हूं। जब तुम्हें किसी दफ्तर में या फिर कॉर्पोरेट कंपनियों में देखने की कोशिश करता हूं तब तुम्हारी अलग ही छवि उभरती है। यदि कोई निजी कंपनी में तुम्हें बरतता है तो लोगों के बीच एक अलग ही जीव के रूप में पहचाना जाता है। यदि बोलने वाले ने थोड़ी ठीक ठाक हिन्दी बोल ली तो उसे प्रेमचंद और पंडि़त जी के नाम से पुकारा जाता है। यदि किसी की हिन्दी अच्छी है तो इसमें उसका क्या दोष कहीं न कहीं उस बोलने वाले ने अपनी हिन्दी को दुरूस्त करने में मेहनत तो की होगी। तब जाकर उसके पास एक सुधरी और सुघड़ी हिन्दी हो पाई है। जब भी किसी सभा, गोष्ठी में सुनता हूं कि यू नो माई हिन्दी अच्छी नहीं है। एक वाक्य में जब तुम महज क्रिया और संज्ञा के रूप में आती हो तो हंसी नहीं आती। आए भी क्यों ? क्योंकि उसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं। हम जिस समाज और परिवेश में रहते हैं वहां हिन्दी शायद वर्गों में बांट कर ही पढ़ी और समझी जाती है। हिन्दी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के बीच की दरार को बहुत कोशिश की जाती है कि इसे पाटा जाये। और स्थिति यह हो जाती है कि हिन्दी और अंग्रेजी एक दूसरे के सामने सहभाषा−भाषी के तौर पर बरतने और स्वीकार किए जाने की बजाए एक दूसरे के दुश्मन और विपरीत पक्ष के तौर पर कबूल किया जाता है। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। क्योंकि आज हिन्दी में विभिन्न भाषा−बोलियों को सहज ही सम्मिलित कर लिया गया है। वह अब विदेशज् शब्दावली नहीं रही। बल्कि हिन्दी में ढल चुकी है। बल्कि कहना यह होगा कि कई बार ताज्जुब होता है कि हिन्दी की भाषिक संपदा दिन प्रतिदिन अन्य भाषाओं के संपर्क में आने के बाद और समृद्ध ही हुई है।

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तुम मुझे दो रूपों में दिखाई देती हो। पहला अकादमिक और दूसरा गैर अकादमिक। अकादमिक में तुम मुझे पाठ्यपुस्तकों में पीरों दी गई नज़र आती हो। जो कई बार बोझ के तौर पर महसूस होती है। वहीं दूसरी ओर गैर अकादमिक के रूप में तुम मुझे ज़्यादा आज़ाद और खुले रूप में मिलती हो। हम तुम्हें इन्हीं दो बरतनों में बांट कर देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं। जहां तक अकादमिक हिन्दी की बात करें तो पाठ्यपुस्तकों में जिस रूप में तुम बच्चों से मिलती हो वह शायद उनकी दुनिया की नहीं हो पाती। शायद तुम्हें बच्चे किताबों से निकल कर मिलना−जुलना ज़्यादा पसंद किया करते हैं। क्योंकि जैसे ही किताबों में पाठ के तौर पर बच्चों से रू ब रू होती हो तो पाठ के अंत में बच्चों को सवालों का भी सामना करना पड़ता है। कई बार वही सवाल रटे रटाए अंदाज़ में परीक्षा में उगल दिए जाते हैं। वहां तुम नहीं होती हो। बल्कि वह हिन्दी होती हो जिन्हें हम बच्चे बहुत मुश्किल से समझने और अपनाने की कोशिश करते हैं। अब तुम ही देखो कोई कविता या कहानी पढ़ी। पढ़ी तक तो ठीक है लेकिन यह भी बताना पड़ता है कि बताओ कवि या कहानीकार इन पंक्तियों से क्या कहना चाहता है ? कवि का आशय क्या है ? आदि आदि। हमने तो आशय जैसे शब्द कक्षाओं में ही सुने हैं। आम जीवन में ऐसी हिन्दी न तो घर में और न दोस्तों के बीच या फिर दफ्तर में ही सुनने को मिलती है। ऐसे में हिन्दी तुम बच्चों के लिए अजूबा-सी लगती हो। क्योंकि आम हिन्दी से हट कर हो।

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आकदमिक तौर पर जब तुम्हें पढ़ते हैं तो तुम हमें कविता, कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा वृतांत डायरी के तौर पर तो बंटी नज़र आती हो। कई बार सोचता हूं क्यों हम इन्हें पढ़ते हैं? लेकिन मास्टर जी से सुना था भाषा इन्हीं गलियों से होती हुई हममें शामिल होती है। शायद यही वज़ह है जो जीवन में आगे चल कविता, कहानी पीछे रह जाती है ? इस तरह के कई सवाल मन में उठते हैं जिनका उत्तर हिन्दी तुम से चाहता था। खैर छोड़ो तुम्हारे पास भी बहुत काम होंगे। कई मंचों पर तुम्हें माला पहननी होगी। कई गोष्ठियों में तुम्हारी शान में हज़ारों हज़ार अल्फाज़ कहे जाने होंगे। जो मंच और माईक पर बोले जाने के लिए अभ्यास और सायास कहे गए होंगे।

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हिन्दी अकादमिक और गैर अकादमिक दो हिस्सों में फैली हो। तुम्हें गैर अकादमिक हिस्से में समझने की कोशिश करता हूं तो पाता हूं कि गैर अकादमिक क्षेत्र में तुम्हें बड़ी ही सहजता में लिया जाता है। तुम्हें कैसे कैसे इस्तमाल करते हैं यह यदि तुम जान लो तो तुम्हारे पांव के नीचे से जमीन खिसकती नज़र आएगी। स्कूल कॉलेज से बाहर झांको तो तुम्हें बोलने वाले आम वो लोग होते हैं जिन्हें किसी और भाषा−बोली की यारी नहीं मिली। दूसरे शब्दों में ऐसे समझ सकती हो कि अन्य जगहों पर महज संवाद और संप्रेषण के तौर पर ही प्रयोग में लाई जाती हो। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि हिन्दी ही क्यों? हिन्दी को तो पिछले सत्तर सालों में राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा तक मयस्सर नहीं हुआ। क्यों न अन्य भाषा को अपनाया जाए। कहीं तुम भाषायी सत्ता और अहम् के चक्कर में तो नहीं पड़ गई। क्योंकि यहि दंभ कई बार तुम्हारे लिए ख़तरा साबित हो सकता है।

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मंचों, गोष्ठियों, सेमिनारों, कक्षों से बाहर तुम्हें निकलने की आवश्यकता है। आखिर इन गोष्ठियों में होता क्या है? यह तुम्हें भी मालूम है और हमें भी। कुछ गरमा गरम बहसें, कुछ वायदे और कुछ दिखावा और कुछ होता हो तो बताना हिन्दी!!!। तुम्हें इन सेमिनारों से बाहर निकल कर स्कूलों की खिड़कियों से झांकना होगा। जहां रोज़दिन शिक्षकों द्वारा पढ़ी−पढ़ाई जाती हो। वहां तुम्हारे साथ कैसा बरताव होता है यह भी जानना दिलचस्प होगा। क्या तुम वर्णमालाओं की पहचान और दुहराव भर तो नहीं सीमित कर दी गई हो। यदि ऐसा है तो तुम बच्चों की प्यारी भाषा नहीं बन पाओगी। तुम्हें तो बच्चों के साथ स्कूल से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक का सफ़र तय करना है। बल्कि यह कहने की हिमाकत करूं तो कहना चाहूंगा कि जिंदगी में शामिल हो जाओ हिन्दी। तुम्हें किसी बड़े बड़े सम्मेलनों, हिन्दी दिवस की ज़रूरत ही न पड़े। अपना ख़्याल रखना हिन्दी। यह साल भी गया। फिर अगले साल मिलेंगे। किसी और सेमिनार, गोष्ठी या फिर सम्मेलनों में। तब तक अपनी अस्मिता और पहचान बरकरार रखना। 

कौशलेंद्र प्रपन्न

(भाषा एवं शिक्षा पॉडागोजी विशेषज्ञ)

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