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जीवन का गणित (व्यंग्य)
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
- नवंबर 26, 2020 19:14
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अब अंकों से मृत्यु की गंध आ रही है। मात्र एक अदृश्य रूपातीत रूपिणी कब दहाई से सैकड़ा, सैकड़े से हजार और हजार से लाख, करोड़ बन गयी, पता ही नहीं चला। जिंदगी का गणित एक ऐसा विषय है जहाँ गलती होने पर हम स्वयं को न कोसकर भाग्य को कोसते हैं।
नौ के पहाड़े में जब नौ तियाँ कितना होता है, बता नहीं सका, तभी मेरे भविष्य का फैसला हो चुका था। जो नौ का पहाड़ा नहीं बता सकता वह आगे का पहाड़ा समझे न समझे खुद को पहाड़ अवश्य समझेगा। अंक गणित और बीज गणित दोनों नाम से तो मानो मुझको जुड़वा भाई लगते हैं। एक-सी शक्ल और एक-सी करतूत। स्वप्न में कई बार आर्किमिडिज़, पैथागारस की पीठ पर चढ़कर कुछ सूत्रों को छूने की कोशिश की। कोशिश क्या खुद को बेइज्जत करवाने की भरपूर चेष्टा की। दोनों स्वप्न में मुझे देखकर पिंड छुड़ाकर भागते दिखायी दिए। समय और दूरी के बीच के सूत्र में जब सिर नहीं खपा सका तो एक दिन 10 बटा 2 ने मुझे चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाने की सलाह दी। मैं मरता भी कैसे? मेरे जैसे बेशर्म इंसान बहुत कम पैदा होते हैं।
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चूँकि मैं बड़ा हो चुका हूँ तो मुझे लगा कि अब कभी गणित की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मैंने पाठशाला के समय ही गणित की तेरहवीं और श्राद्ध दोनों कर दी। मैंने उससे हाय-तौबा कर ली और उसने मुझसे। वह अपने घर खुश, मैं अपने घर। वह अपनी कठिनता का जब इतना एटिट्युड दिखाता है तो मैं क्या कुछ कम हूँ। मेरा एटिट्युड बार-बार बेशर्म करने वाले के पीछे जाने से रोकता है। लेकिन यह गुमान ज्यादा देर न टिक सका। सच तो यह है कि हम चाहकर भी गणित से पीछा नहीं छुड़ा सकते। उसने जीवन के वर्तमान को अंकों में बदलकर उसे हमारी उपलब्धियों से भाग दे दिया। जो बचा शेष उसे ही जिंदगी करार दिया। जमाना जिस दौर से गुजर रहा है वहाँ मृत्यु के मूलधन पर ब्याज चढ़ता ही जा रहा है। इसका मूलधन तो दूर ब्याज चुकाने में हमारी हालत सवा सेर गेहूँ जैसी हो गयी है। धरती के कुल योग से जंगल, पहाड़, नदियाँ, समुंदर का व्यकलन होता जा रहा है। जो शेष बचा वह ऋणात्मक बनकर रह गया है।
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अब अंकों से मृत्यु की गंध आ रही है। मात्र एक अदृश्य रूपातीत रूपिणी कब दहाई से सैकड़ा, सैकड़े से हजार और हजार से लाख, करोड़ बन गयी, पता ही नहीं चला। जिंदगी का गणित एक ऐसा विषय है जहाँ गलती होने पर हम स्वयं को न कोसकर भाग्य को कोसते हैं। इससे जीवन का गणित संतुलित बना रहता है। परीक्षा के समय दो खंभों के बीच ट्रेन की स्पीड कितनी है, जैसे प्रश्न अक्सर पूछे जाते थे। अब प्रश्न को कोई क्या बताए कि मेरी दो गिरती उम्मीदों के बीच आत्मविश्वास की स्पीड कितनी है। मैं तो बहुविकल्पीय उत्तर वाले प्रश्नों का आदी हो चुका हूँ। हर बार एक नए विकल्प के साथ जीवन प्रश्न के बहुविकल्पीय उत्तर चुन लेता हूँ। इससे कभी निराशा तो कभी प्रसन्नता हाथ लगती है। चलिए अच्छा है, कभी-कभी प्रसन्नता हाथ तो लगती है! वरना दुनिया में ऐसे कई हैं जो जीवन को रिक्त स्थान की तरह जिए जा रहे हैं और हर बार त्रुटिपूर्ण उत्तर भरकर जीवन के हाथों दुर्भाग्य का तमाचा खाते जा रहे हैं। दिन की शुरुआत में घड़ी देखने के लिए गणित जरूरी है। गणित से लाख पिंड छुड़ाना चाहता हूँ छुड़ा ही नहीं पाता हूँ। चाय पीने का मन करता है तो शक्कर, दूध, पानी का अनुपात वाला गणित आना चाहिए। बाज़ार से कुछ खरददारी करना हो तो गणित आना चाहिए। साँप-सीढ़ी, अष्टचम्मा, लूडो, चेस, क्रिकेट, कबड्डी, हॉकी खेलना हो तो गणित आना चाहिए। गोल रोटी चाहिए तो गणित, तिकोना समोसा चाहिए तो गणित! खुद का क्षेत्रफल समझना हो तो गणित, कटोरी में दाल भरना हो तो उसके घेरे का गणित आना चाहिए। बाप रे! जहाँ देखो वहाँ सिर्फ एक ही चीज़ है- गणित! गणित! गणित!
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'
सुरक्षा विभाग के उचित सुरक्षा निर्देश (व्यंग्य)
- संतोष उत्सुक
- जनवरी 21, 2021 15:35
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सुरक्षा अधिकारी ने परामर्श दिया कि सारे जेवरात साथ ले जाएं या फिर बैंक लाकर में रख दें। हां नकली गहने छोड़कर जा सकते हैं, जिन्हें चुराकर चोर दुख पाएंगे। यह बिलकुल सच बताया कि सर्दी के मौसम में चोरी व सेंध की घटनाएं बढ़ जाती हैं।
विकास और विनाश पक्के यारों की तरह मज़े ले रहे होते हैं उधर असुरक्षा ज़िंदगी के खेत में पड़ी पराली में आग लगा रही होती है। समझदार नागरिकों को अधिक जागरूक करने के लिए, शहर के ज़िम्मेदार सुरक्षा विभाग ने नागरिक सुरक्षा समिति की बैठक की, हालांकि स्थायी ट्रेफिक जाम, अनुचित समय और मास्क न होने के कारण कम लोग आए। खूबसूरत हाल में मंच बढ़िया ढंग से सजाकर फ़्लेक्स का नष्ट न होने वाला बढ़िया बैनर लगाया गया । बैनर अंग्रेज़ी में लिखवाया गया क्योंकि हिन्दी मास जा चुका था। बिना लाल बत्ती वाली उदास गाड़ी में पधारे असली वीआईपी का ताज़ा फूलों से स्वागत किया गया जो नए पालिथिन में लिपटे हुए थे। क्षेत्र में पहली बार आयोजित इस बैठक में नागरिकों को समझाया गया, यदि आप किसी बेहद ज़रूरी काम से घर से बाहर जा रहे हैं तो इस बार बढ़िया सेंसर लॉक ज़रूर लगवा कर जाएं, आपका घर बेहद सुरक्षित रहेगा। लॉक कंपनी का बैनर हाल में लगाया हुआ था, लगा सुरक्षा विभाग के कर्मचारी का बेटा सुरक्षा उपकरणों में डील करता होगा।
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सुरक्षा अधिकारी ने परामर्श दिया कि सारे जेवरात साथ ले जाएं या फिर बैंक लाकर में रख दें। हां नकली गहने छोड़कर जा सकते हैं, जिन्हें चुराकर चोर दुख पाएंगे। यह बिलकुल सच बताया कि सर्दी के मौसम में चोरी व सेंध की घटनाएं बढ़ जाती हैं। यह राज़ खोल दिया गया कि पिछले साल छोटे से क्षेत्र में ही चोरी के डेढ़ दर्जन से ज़्यादा मामले दर्ज हुए। रिकार्ड के मुताबिक पिछले साल चोरों ने अनेक घरों से पचास लाख रूपए से ज़्यादा के गहने चुराए थे। उन्होंने यह नहीं माना कि चोर भी इंसान हैं उनके पास भी परिवार और पेट दोनों हैं, उनका व्यवसाय चोरी है जिसे उन्हें ईमानदारी व मेहनत से चलाना है। यह स्वीकार किया कि वह गहने आज तक नहीं मिले हैं हालांकि सीमित स्टाफ और कम सुविधाओं के बावजूद तप्तीश ईमानदारी से जारी है। वैसे तो नकली गहने पहनना ज्यादा सुरक्षित है या फिर पुरातन काल की तरह फूल पत्तियां पहनना शुरू कर, खुद को प्राचीन भारतीय संस्कृति से जुड़ा महसूस कर सकते हैं ।
उन्होंने आग्रह किया कि चोरी की घटनाएं न हों तो सुरक्षा विभाग भी फालतू में परेशान न होगा। सूचित किया कि ऑन लाइन सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाने बारे शीघ्र निर्णय लिया जाएगा। यह भी सुझाया कि आम लोग अगर उनके सुझावों पर अमल करेंगे तो पछताना नहीं पड़ेगा, बात तो ठीक है, मगर चोरी होने के बाद तो पछताना ही पड़ेगा। सुरक्षा विभाग की सलाह के अनुसार घर से बाहर जाते समय पड़ोसी को सुरक्षित तरीके से ज़रूर बताकर जाएं। अगर उन्हें आपके बाहर होने की सूचना नहीं होगी तो घर में चोर के घुसने की स्थिति में पड़ोसी सोचेंगे कि घर में आप ही होंगे। कभी कभार पड़ोसी को चाय, बिस्किट और नमकीन की सादा दावत देने में बहुत फायदा है। आजकल तो वैसे भी कोई नहीं आएगा। इस विशेष सलाह पर अमल करने से पड़ोसी से अच्छे रिश्तों का विकास होगा, कभी आपको भी पड़ोसियों के काम आने का मौका मिलेगा, जो उन्हें भी अच्छा लगेगा।
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व्यक्तिगत सुरक्षा, गलत पार्किंग, सड़क के दोनों तरफ फुटपाथ न होने, दोपहिया वाहनों की दहशत भरी ड्राइविंग बारे गलती से पूछा तो मार्गदर्शन किया, कृपया इस बारे ऑनलाइन चैक कर लें, यह विशेष बैठक, सर्दियों के मौसम में होने वाली सिर्फ संभावित चोरियों के मामले में आयोजित की गई है। हमारे विभाग में अलग अलग सेक्शन है जो आवश्यकतानुसार, उचित समय पर ज़रूरी बैठक कर प्रेस विज्ञप्ति देते हैं। वैसे काम करने का यही सही तरीका है। यह बैठक बेहद सफल रही ऐसा अगले दिन समाचार पत्रों में छपी रिपोर्ट विद फोटो से पता चला। लोकतान्त्रिक सत्य जमा रहा कि सुरक्षा विभाग के पास आम नागरिकों की सुरक्षा के अतिरिक्त और भी बहुत से ज़रूरी राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक काम हैं, क्यूंकि अब यही उनकी असली ड्यूटी है।
- संतोष उत्सुक
यूँ बुलबुलाते और फट जाते हैं (व्यंग्य)
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
- जनवरी 19, 2021 20:09
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रात को अलार्म ऐसे लगा रखा था जैसे सुबह होते ही विश्वविजेता बनने के लिए सिकंदर की तरह कूच करना है। अब भला आपको क्या बताएँ कि घर का कुत्ता मौके-बेमौके भौंक देता है तो मैं उसको चुप नहीं करा पाता और चला था नए प्रण निभाने।
मैंने प्रण किया कि कल से अक्खी जिंदगी की लाइफ स्टाइल बदलकर रख दूँगा। देखने वाले देखते और सुनने वाले सुनते रह जायेंगे। वैसे भी मैं दिखाने और सुनाने के अलावा कर ही क्या सकता हूँ। सरकार ने रोजगार के नाम पर ज्यादा कुछ करने का मौका दिया नहीं, और हमने खुद से कुछ सीखा नहीं। हिसाब बराबर। कहने को तो डिग्री तक पढ़ा-लिखा हूँ लेकिन जमीनी सच्चाई बयान करने की बारी आती है तो इधर-उधर ताकने लगता हूँ। सो मैंने मन ही मन ठान लिया। अब कुछ भी होगा लेकिन पहले जैसा नहीं होगा। कल से सब कुछ नया-नया। एकदम चमक-धमक वाली जिंदगी। कल मेरा ऐसा होगा जो पहले जैसा कभी न होगा। बस जीवन में कल-कल होगा। कल से याद आया कि हिंदी वैयाकरणशास्त्री की मति मारी गई थी जो उन्हें भूत और भविष्य के लिए केवल एक ही शब्द मिला था– ‘कल’। कल के चक्कर में कल तक भटकता रहा। देखने वालों ने गालिब हमें पागलों का मसीहा कहा। अब यह मसीहा बदलना चाहता है तो कम्बख्त नींद भी किश्तों में मिलने लगी है। क्या करें बार-बार मधुमेह की बीमारी के चलते शौचालय के दर्शन जो करने पड़ते हैं।
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रात को अलार्म ऐसे लगा रखा था जैसे सुबह होते ही विश्वविजेता बनने के लिए सिकंदर की तरह कूच करना है। अब भला आपको क्या बताएँ कि घर का कुत्ता मौके-बेमौके भौंक देता है तो मैं उसको चुप नहीं करा पाता और चला था नए प्रण निभाने। यह अलार्म शब्द जिसने भी रखा है वह कहीं मिल जाए तो उसकी अच्छे से खबर लूँ। जब भी गाढ़ी नींद में रहता हूँ तभी अल्लाह-राम (शायद प्रचलन में यही आगे चलकर अलार्म बन गया होगा) की अजान और मंदिर की घंटी बनकर बज उठता है। मुझे आभास हुआ कि जो घरवालों की डाँट-डपट से उठने का आदी हो चुका हो उसे दुनिया के अलार्म क्या उठा पायेंगे।
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जैसे-तैसे सुबह उठा तो देखा कि सूरज अभी तक आया नहीं है। मैंने आव देखा न ताव एक बार के लिए घरवालों की क्लास लगाने के बारे में सोचा। तभी बदन को तार करने वाली ठंडी ने अहसास दिलाया कि ये तो सर्दी के दिन हैं। सूरज दादा वर्क फ्रॉम होम की तर्ज पर बादलों की ओट से छिप-छिपकर ड्यूटी किए जा रहे हैं। मैंने सोचा जिस सूरज दादा की फिराक़ में लोग आस लगाए जीते हैं वे ही साल के चार महीने सर्दी और चार महीने बारिश के चक्कर में छिप-छिपकर रहते हैं। और मात्र चार महीने गर्मी के दिनों में अपनी चुस्त-दुरुस्त ड्यूटी देकर हमारा आदर्श बने बैठे हैं। उनसे ज्यादा तो ड्यूटी मैं ही कर लेता हूँ। इस हिसाब से देखा जाए मुझे नए प्रण लेने की आवश्यकता ही नहीं है। वैसे भी न जाने कितने मोटे लोग दुबले बनने की, न जाने कितने काले लोग गोरे बनने की, न जाने कितने जड़मति बुद्धिमति बनने की कोशिश करने के चक्कर में पानी पर प्रण के लकीरें खींचते रहते हैं। उनमें हम भी एक सही। वैसे भी–
पानी के बुलबुलों-सी सोच हमारी, यूँ बुलबुलाते और फट जाते हैं।
जैसे नींद में खुद को शहंशाह और, सुबह होते ही कंगाल पाते हैं।।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
टीका से टिकाऊ हुआ टीका (व्यंग्य)
- अरुण अर्णव खरे
- जनवरी 18, 2021 19:38
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आस्था का टीका हमारे लिए कितने महत्व का है यह हम पुरातन काल से जानते हैं। इतिहास बताता है कि युद्ध में हर योद्धा को उसकी मॉं या पत्नी टीका लगाकर ही भेजती थी जिससे उसकी बाज़ुओं में कई गुना जोश भर जाता था और दुश्मन की शामत आ जाती थी।
उन्होंने टीकाकरण से पहले टीका के डिब्बे को टीका लगाया... टीवी पर यह सीन देख कर दिल बाग़-बाग़ हो गया। ये हुई न बात... मन के भीतर से आवाज आई। हमें विश्वास हो गया कि अब विज्ञानं अपना काम करेगा। विज्ञानं और आस्था हमारे लिए हमेशा से एक दूसरे के पूरक रहे हैं पर विज्ञानं से ज्यादा भरोसा हमें अपनी आस्था पर है। हम अपनी आस्था के मुताबिक ही विज्ञानं पर भरोसा करते हैं। केवल विज्ञानं पर भरोसा करना हमें नहीं आता। इसीलिए हमने जब राफ़ेल मँगाए तो उनके उतरते ही सबसे पहला काम हमने उन पर टीका लगाने का किया। हमारा मानना है कि टीका लगने से राफ़ेल की मारक क्षमता में और वृद्धि हो गई व दुश्मन के मन में भय का भाव दोगुना हो गया।
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आस्था का टीका हमारे लिए कितने महत्व का है यह हम पुरातन काल से जानते हैं। इतिहास बताता है कि युद्ध में हर योद्धा को उसकी मॉं या पत्नी टीका लगाकर ही भेजती थी जिससे उसकी बाज़ुओं में कई गुना जोश भर जाता था और दुश्मन की शामत आ जाती थी। सिर कटने के बावजूद केवल धड़ से ही घंटों युद्ध करते रहते थे हमारे पुराने जमाने के ये योद्धा। बाजुओं में जोश आ जाए तो फिर किसी की क्या बिसात जो सामने टिक जाए। बस पूर्व में हमसे यही गलती हो गई थी कि बाजुओं में जोश भरे बिना ही हमने वायरस को सबक सिखाने की ठान ली और तालियाँ बजवा दी। जैसी आशंका थी वही हुआ... तालियाँ बजीं, खूब बजीं पर कमजोर रह गईं और उनसे इतनी ऊर्जा उत्पन्न नहीं हो सकी कि वायरस भयभीत हो पाता, उलटा वह बेशर्म मेहमान की तरह घर में टिक गया। उस समय हमने ललाट पर टीका लगवा कर तालियाँ बजाने का आव्हान किया होता तो फिर फड़कती भुजाओं से निकली तालियों का असर ही कुछ अलग होता और हमें आज इस विज्ञानी टीके की जरूरत ही नहीं पड़ती।
उसके पहले भी हमसे एक गलती हुई थी। उसी गलती के कारण देश में वायरस के प्रकोप से संक्रमित मरीजों की संख्या करोड़ के आंकड़े को पार गई। देश में जब पहला मरीज़ मिला था तभी हम उसे पकड़ कर माथे पर हल्दी चावल का टीका लगा देते तो उसके अंदर जा घुसे वायरस का दम वहीं निकल जाता। दम नहीं भी निकलता तो कम से कम वह दूसरे पर चिपकने लायक तो नहीं ही बचता और हमें महामारी का इतना दुखद एवं घातक स्वरूप नहीं नहीं देखना पड़ता।
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हमारे यहाँ कहा भी जाता है कि देर आए दुरुस्त आए। सो हमने पिछली दो-दो गलतियों से सबक सीखा और उन गलतियों को सही समय पर सुधार लिया। टीका को टीका लगाकर हमने अपने टीकाकरण अभियान की शुरुआत की। डिब्बे के ऊपर आस्था का टीका क्या लगा, डिब्बे में बंद विज्ञानं के टीका में हमारी आस्था जाग गई। हमें अपनी आस्था पर हमेशा अपनी काबिलियत से ज्यादा भरोसा रहा है। टीकाकरण शुरु हुए दो दिन हो गए और कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली... यह सुखद परिणाम आना ही था सो आ रहा है। टीका पर टीका टिप्पणी करने वाले टीका के टिकाऊ सिद्ध हो जाने से चुप हैं।
- अरुण अर्णव खरे

