आपका अपना चोर (व्यंग्य)

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ग्राहक ने लिखा- आपकी दुकान में एक पोस्टर है, जिसमें महात्मा गांधी का एक वचन लिखा है– ग्राहक भगवान होता है। उसका सम्मान करना चाहिए। किंतु आज मैं बड़े दुख के साथ कह रहा हूँ कि मैंने महात्मा गांधी को झुठलाते हुए बड़ी बेशर्मी भरी हरकत की है।

करोड़ों का रुपया खाकर, पचाकर, डकार कर विदेशों को उड़न छू हो जाने वाले इस जमाने में उस ईमानदार चोर की बात किए बिना नहीं रह सकता। समझ नहीं आता कि उसे बेवकूफ कहूँ या बुद्धिमान? भोला कहूँ या शातिर? अब उसने काम ही ऐसा कुछ किया है कि बताए बिना नहीं रह सकता। पतझड़ के मौसम की तरह पत्तों की तरह झड़ने वाली नौकरियों ने बेरोजगारों की ऐसी झड़ी लगा दी है, जैसे इनकी होड़ गिरते मूल्यों से है। ऐसे विकट काल में उस चोर का लिखा पत्र न हँसने देता है, न ही रोने। करूँ तो क्या करूँ? इस हालात को समझने के लिए मैंने उस पत्र को कई बार पढ़ा। जब-जब पढ़ा तब-तब नया लगा। आश्चर्यकारी लगा। कभी-कभी बेवकूफी वाला भी लगा। कहते हैं जब तक नौकरी होती है तब तक मौसम सदाबहार लगता है। एक बार जो बेरोजगारी के कालगर्भ में जाता है, उससे अपने भी पिंड छुड़ाने का प्रयास करते दिखायी देते हैं। शायद ऐसा ही कुछ हुआ था उस चोर के साथ। उस चोर के पत्र में जमाने की सच्चाई बयान हो रही थी। लिखा था–

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भगवान समान दुकानदार जी, 

मैं आपका नियमित ग्राहक हूँ। आपकी दुकान में एक पोस्टर है, जिसमें महात्मा गांधी का एक वचन लिखा है– ग्राहक भगवान होता है। उसका सम्मान करना चाहिए। किंतु आज मैं बड़े दुख के साथ कह रहा हूँ कि मैंने महात्मा गांधी को झुठलाते हुए बड़ी बेशर्मी भरी हरकत की है। ग्राहक का भगवान वाला चोला पहनकर शैतानी की है। मैंने आपका ध्यान भटका कर मेरे दूध मुँहे बच्चे के लिए पावरोटी और दूध का पैकेट चुराया है। मेरी बेरोजगारी ने इस हरकत को बहुत देर तक सही ठहराया। मैं भी इसी बहकावे में खुद को खुद की नजरों से बचाने के लाख प्रयास करता रहा। लेकिन हमें बनाना वाला भगवान बड़ा जादूगर है। वह जमाने से सच की छिपाने की हिम्मत दे न दे, लेकिन खुद से छिपाने की हिम्मत कभी नहीं दे सकता। मैं एकांत में अपनी हरकत के बारे में सोच-सोच कर विचलित हो उठा। मुझसे रहा नहीं गया। पिछले कई महीनों से मैं बेरोजगार चल रहा हूँ। जब तक जमापूँजी थी तब तक ईमानदार होने का कोई मौका नहीं गंवाया। यहाँ तक कि भिखारी को सामने से बुलाकर रुपए-पैसों की मदद की। आज मैं खुद भिखारी बन चुका हूँ। हाथ में रेखाएँ हो न हों पैसा होना सबसे जरूरी है। रेखाओं से भाग्य का पता चलता है। पैसों से इंसान की हैसियत। आज मेरी हैसियत दूध मुँहे बच्चे के लिए उसकी भूख न मिटाने के लिए दुत्कार रही थी। जब दुत्कार की लताड़ सहनशीलता पार करती है, तभी दुनिया में पाप होते हैं। आज यही हुआ मेरे साथ। मैं चाहता तो यह बात छिपाकर देश से भागे हुए भगौड़ियों की तरह सीना गर्व से फुला सकता था। मैं ऐसा नहीं कर सकता। चोरी अवश्य की है। किंतु उसूलों को नहीं तोड़ा है। आज नहीं तो कल देश की मिट्टी को जवाब देना होगा। क्या यह देश चोरों की जन्मभूमि है? नहीं। हरगिज नहीं।

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मैं चुनावी वायदों की तरह झूठ नहीं बोलूँगा। मुझे सत्ता की गद्दी नहीं दूध मुँहे बच्चे की जिंदगी चाहिए। चोरी का दूध और पावरोटी उसके खून में अधिक समय तक बहे और वह भी आगे चलकर मेरी तरह कोई चोरी करे, इससे पहले ही मैं आपके पैसे चुका दूँगा। तब तक मैं अपने बच्चे का सबसे पसंदीदा खिलौना आपके पास छोड़े जा रहा हूँ। आपके पैसे मिलते ही दुकान के शटर के नीचे जैसे मैंने खिलौना रखा है, वैसे ही रख देना। आपका बड़ा उपकार होगा। मेरा बच्चा उस खिलौने की तलाश में बहुत रोएगा। कोई बात नहीं। मैं उसका रोना सह सकता हूँ। लेकिन चोर बनने की पीड़ा उससे भी अधिक रुलाने वाली है। मैं यह कलंक अपने माथे रखकर देश का नाम बदनाम नहीं कर सकता। क्योंकि देश मिट्टी से नहीं लोगों से बनता है। और उन लोगों में आप, मैं और मेरा बच्चा भी है। मेरा बच्चा आगे जाकर चोर का बेटा कह लाए, मैं यह सहन नहीं कर सकता। मैं आशा करता हूँ कि एक बेरोजगार से चोर बने असहाय पिता की पीड़ा को आप अवश्य समझेंगे। चोर से ईमानदार बनने के प्रयास में...

आपका अपना पावरोटी और दूध पैकेट चोर

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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