ईमानदारी– देश का सबसे बड़ा अपराध (व्यंग्य)

Honesty
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मैं सोचता हूँ कि अगर इस देश में सच्चाई और ईमानदारी सचमुच महान हैं, तो हमें उनके लिए मंत्रालय होना चाहिए। लेकिन यहाँ सच का मंत्रालय नहीं, झूठ का महल है। बच्चों की किताबों में हमें पढ़ाया जाता है- 'सत्य की हमेशा जीत होती है।'

मैं ईमानदार आदमी हूँ। यह कहना इस देश में उतना ही शर्मनाक काम है जितना कि किसी को बताना कि आप बेरोजगार हो। लोग हँसते हैं, आँखें घुमाते हैं और पूछते हैं – “भाई, अब तक जिंदा कैसे हो?” सच तो यह है कि इस देश में ईमानदारी एक बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं। लोग जुकाम वाले से हाथ मिलाते हैं, डेंगू वाले से गले मिलते हैं, लेकिन ईमानदार से मिलने से डरते हैं। शायद उन्हें लगता है कि कहीं यह बीमारी उन्हें भी न लग जाए। स्थिति यह है कि मैं मुहल्ले में पहुँचूँ तो लोग ऐसे साइड हो जाते हैं जैसे मैं कोई जंजीर से छूटा हुआ कुत्ता हूँ। शादी-ब्याह में बुलावा आता है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि समाज का नियम है, न कि मेरी इज़्ज़त के लिए। मेज़बान मुझे देखते ही दुखी हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि दारू और चिकन की प्लेट मैं छूने से भी डरूँगा। मैं कोने में बैठा सूखी रोटी पर सब्ज़ी खाता रहता हूँ और बाकी लोग दिल्ली-लखनऊ की राजनीति पर पैग छलकाते हैं। मेरी स्थिति वही है जैसे कोई ‘साइलेंट ज़ोन’ में लाउडस्पीकर। सबको लगता है मैं हूँ तो मेले का मज़ा कम हो जाएगा।

मेरी पत्नी रोज़ भुनभुनाती है। उसका नारा साफ़ है – “घर में आदर्श से नहीं, नोट से चूल्हा जलता है।” वह मेरे माथे पर पसीना देखती है और चिल्लाती है, “तू आदमी है या महापुरुष? घर के लिए तो कभी पाप कमाकर भी ला।” उसका दुख जायज़ है, लेकिन मैं क्या करूँ? पड़ोस वाली शर्मा अंकल की बीवी हर तीज पर सोने का हार पहनकर निकलती है, हमारे घर में आज भी तांबे के गिलास में पानी पिया जाता है और बच्चे उस गिलास को देखकर मुँह बिचकाते हैं कि इसमें सेल्फ़ी नहीं दिखती। पत्नी कहती है: “तेरी ईमानदारी ने हमें कहीं का न छोड़ा। पड़ोसी की लड़की विदेश पढ़ रही है और हमारे बच्चे इंग्लिश मीडियम की फीस के लिए तरस रहे हैं।” मैं तर्क देता हूँ कि चरित्र सबसे बड़ा पूँजी है, तो वह पलट कर कहती है, “बाज़ार में चरित्र बेचकर चावल ला देंगे क्या?” झगड़े में हमेशा वही जीतती है क्योंकि मेरे पास तर्क तो है पर राशन का बिल नहीं। बच्चे भी माँ के पक्ष में खड़े हो जाते हैं, उन्हें स्पष्ट दिखता है कि पिताजी ईमानदार हैं और यही परिवार का सबसे बड़ा अपराध है। घर में ईमानदारी अब ‘बुरा रोग’ मानी जाती है।

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ऑफिस मेरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर है जहाँ मैं अकेला गीदड़ की तरह कराहता हूँ। बाकी सब शेर, भेड़िये और लोमड़ियाँ हैं। उनकी टेबल पर रिश्वत की मिठाइयाँ, ठेके की कमीशन, और मलाईदार फाइलें रहती हैं। मेरी टेबल पर सिर्फ़ “नैतिकता की फाइल” पड़ी रहती है जो सालों से वैसे ही पतली है जैसे मेरी जेब। लोग मुझे देखकर कहते हैं, “ये रहा राष्ट्र का भविष्य, इसे देखो और अपनी गलतियों पर शर्म करो।” लेकिन वहीं अगले ही पल सब मेरे सामने पैसे बाँटते हैं जैसे सारे नोट रक्षाबंधन के धागे हों। प्रमोशन में भी मैं हमेशा फेल रहता हूँ। फाइल पर घोटाले के दस्तख़त करने वालों को पाँच सीढ़ी ऊपर भेज दिया जाता है और मुझे सीढ़ियों पर बैठकर अपना टिफ़िन खाने की आज़ादी दे दी जाती है। सहकर्मी अब मेरे वरिष्ठ बन चुके हैं। वो मुझे आदेश देते हैं और फिर पान की पीक थूककर कहते हैं, “गांधी की औलाद, कम से कम कलम लाल कर लो।” मेरा ईमानदारी का चश्मा सबको खटकता है क्योंकि उनके अपराध उसमें दो गुना मोटे दिखते हैं। दफ्तर तो उनके लिए कमाई का मेला है लेकिन मेरे लिए आजीवन कारावास।

मेरे बच्चे अब साफ़ कह चुके हैं – “पापा, हमें आपके संस्कार नहीं चाहिए, हमें स्कूटी, मोबाइल और फॉरेन टूर चाहिए।” मैंने बहुत समझाया कि ईमानदारी से जीवन लंबा और शांत होता है। वे हँसकर बोले, “लंबा तो जेल की सज़ा भी होती है। हमें उस लंबाई से क्या करना है?” समाज भी मुझे आइडल केवल दूर से मानता है। जैसे कोई पत्थर की मूर्ति को अगरबत्ती लगाता है पर घर में उसे कभी नहीं रखता। हर गली-मुहल्ले में मेरी तारीफ़ होती है लेकिन कोई बेटी का रिश्ता मेरे बेटे से जोड़ने को तैयार नहीं। क्योंकि सबको चिंता है कि ईमानदार की संतान भूखी रह जाएगी। शादी-ब्याह में मैं खड़ा होता हूँ तो लोग मेरे पास आकर फुसफुसाकर कहते हैं, “आप बहुत नेक हैं, आपके जैसे लोग ही देश को सँभाले हुए हैं।” लेकिन वहीं वोट किसी गुंडे, किसी नोट बाँटने वाले नेता को डालते हैं। मुझे एक वोट भी नहीं मिलता। समाज मुझे आदर्श चाहता है पर नेता और ठेकेदार की गली में रहना पसंद करता है। मैं आदर्श नाम का बोर्ड हूँ जिसे देखकर सब सिर झुकाते हैं लेकिन आगे जाकर चौराहा बदल लेते हैं।

ईमानदार आदमी की मौत भी उसकी ज़िंदगी जैसी ही अकेली और अपमानजनक होती है। मेरे मोहल्ले में जब कोई बेईमान नेता मरता है तो षड्यंत्रों की कैंची लेकर पूरी भीड़ निकल पड़ती है। पाँच हज़ार लोग उसे कंधा देते हैं, फूलों की बाढ़ आती है, एक दर्जन समाचार चैनल चीख़ते हैं—‘जनता का सच्चा सेवक चला गया।’ और मैं जानता हूँ कि उसने कितने अरब सेवा में खा लिए। लेकिन जब ईमानदार आदमी मरता है, तो गली के बच्चे भी उसे देखने नहीं आते। मेरी शवयात्रा में बस पत्नी, दो बच्चे और मोहल्ले का एक कुत्ता होगा जो शायद आदत से निकल आए, दया से नहीं। लोग कहेंगे—“बेचारा, आदमी अच्छा था पर मूर्ख था।” मरने के बाद शायद अखबार में कोने की खबर छपे: “ईमानदार बाबू का निधन।” और उसी हेडलाइन के नीचे बड़े अक्षरों में यह भी छपे—“पूर्व मंत्री के भ्रष्टाचार पर सीबीआई जाँच।” दोनों साथ-साथ छपेंगे और लोग बाद वाले पर चर्चा करेंगे। मेरा जीवन और मौत दोनों अखबार की फुटनोट हैं।

मैं सोचता हूँ कि अगर इस देश में सच्चाई और ईमानदारी सचमुच महान हैं, तो हमें उनके लिए मंत्रालय होना चाहिए। लेकिन यहाँ सच का मंत्रालय नहीं, झूठ का महल है। बच्चों की किताबों में हमें पढ़ाया जाता है—‘सत्य की हमेशा जीत होती है।’ स्कूल से निकलकर बच्चा देखता है कि राजनीति में सत्य हमेशा पिछली पंक्ति में बैठा होता है। कक्षा की कविता कहती है कि ईमानदार राष्ट्र का गहना होता है, और सच्चाई यह है कि गहनों की दुकान पर कभी ईमानदारी नहीं बेची गई। अब मुझे लगता है कि संविधान में संशोधन होना चाहिए: हर नागरिक को भ्रष्ट होने का मूल अधिकार दिया जाए, ताकि जो ईमानदार बचा हो वह खुद को अपराधी न माने। और यदि कहीं कोई ईमानदार फिर भी जीवित बच जाए, तो उसे चिड़ियाघर में पिंजरे में रखा जाए ताकि बच्चे देख सकें, जैसे बाघ या शेर को देखते हैं। बाहर एक बोर्ड टाँगा जाए—“यहाँ ईमानदार आदमी प्रदर्शित है। कृपया उस पर पत्थर न मारें। वह पहले से ही लहूलुहान है।” यही इस देश का अंतिम व्यंग्य है कि ईमानदार आदमी अब सिर्फ़ प्रदर्शन की वस्तु रह गया है, जीवन की उपयोगिता से बाहर।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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