सामूहिक ज़िम्मेदारी नहीं (व्यंग्य)

सामूहिक उत्तरदायित्व की कोई नैतिक कसौटी नहीं होती। राजनीति की बात पता नहीं कैसी होती है। वहां जनता, समूह के रूप में एक होकर, एक व्यक्ति को अपना नेता चुनती है जिसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। जनता की सामूहिक ज़िम्मेदारी नहीं होती।
सामूहिक ज़िम्मेदारी जैसे दो शब्द सुनकर नया सा लगता है। हालांकि यह शब्द पुराने हैं लेकिन अब लगता है कि इस तरह की कोई चीज़ नहीं होती। अगर ऐसी चीज़ कहीं किसी कोने में पड़ी भी होगी तो हमें इसकी ज़रूरत अब नहीं रही। जिन चीज़ों की हमें ज़रूरत नहीं होती उन्हें हम संजोकर नहीं रखते। रोज़ सैंकड़ों फ़ोटोज़ खींचते हैं लेकिन दोबारा उन्हें देखते भी नहीं, कुछ लोगों के लिए यह फख्र की बात है कि उनके स्मार्ट फोन में इतने हज़ार फोटो हैं।
किसी एक व्यक्ति को किसी भी काम की ज़िम्मेदारी देना आसान है निस्बत इसके कि उस काम की सामूहिक ज़िम्मेदारी दी जाए। समूह में तो कई तरह के लोग होंगे वे क्यूं ज़िम्मेदारी लेंगे। कहां इतने लोगों की नैतिकता, सामाजिकता और राष्ट्र प्रेम को ज़िम्मेदार ठहराकर खतरे में डालना और कहां सिर्फ एक व्यक्ति को। जिसे जब चाहे पकड़ कर अन्दर कर सकते हैं। पीट सकते हैं। पहाड़ जब खिसकने लगें, सड़कें जब बहने लगें तो उसकी ज़िम्मेदारी किसी सामान्य व्यक्ति को देना सुरक्षित है न कि पूरी कम्पनी को। एक से निबटना आसान है, समूह से निपटना मुश्किल। कम्पनी भी तो समूह होती है।
इसे भी पढ़ें: जहाँ धोखा भी ‘सर्टिफाइड’ है! (व्यंग्य)
सामूहिक उत्तरदायित्व की कोई नैतिक कसौटी नहीं होती। राजनीति की बात पता नहीं कैसी होती है। वहां जनता, समूह के रूप में एक होकर, एक व्यक्ति को अपना नेता चुनती है जिसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। जनता की सामूहिक ज़िम्मेदारी नहीं होती। सब लोगों की अलग अलग ज़िम्मेदारी होती है क्यूंकि किसी को पता नहीं होता कि किस ने किस को वोट दिया है। सामूहिक ज़िम्मेदारी खतरनाक स्थिति होती है। जिसमें स्थिति के कारण हुई घटना ऊपर से नीचे तक सब को फंसा देती है लेकिन जब सवाल उठते हैं तो जवाब देने के लिए व्यक्ति अकेला रह जाता है। उसे ही जवाब देना पड़ता है बाक़ी सब अपने अपनी अपनी खोह में घुस जाते हैं।
यह तो कई बार हो चुका है कि जो व्यक्ति चोट खाता है, दुर्घटना में चोटिल हो जाता है, नरक में जाता है, उसकी अपनी गलती ज़्यादा मानी जाती है कि उसने भीड़ कि तरह क्यूं सोचा। अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा बारे ईमानदार चिंतन क्यूं नहीं किया। वैसे तो ऐसी घटनाओं की ज़िम्मेदारी खराब व्यवस्था, लचर प्रशासन, लापरवाह अनुशासन को दे सकते हैं लेकिन ज़िम्मेदारी स्थापित करते, कानून के दरवाज़े खटखटाते बरसों बीत जाएंगे लेकिन यह सुनिश्चित नहीं हो पाएगा कि वास्तव में ज़िम्मेदार कौन है। इसलिए सुरक्षित यही है कि व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी डालकर मामला उलझा दिया जाए और सुलझा हुआ मान लिया जाए।
एक तरीका यह भी हो सकता है कि परिस्थितियों को ज़िम्मेदार करार दिया जाए। उन नक्षत्रों को भी निकम्मा कहा जा सकता है जिसके कारण घटना, दुर्घटना में तब्दील हो गई। मान लीजिए बन्दूक के माध्यम से किसी पर हमला किया और व्यक्ति मर गया तो इसमें बन्दूक को भी दोषी ठहराया जा सकता है। संसार की पहली बन्दूक बनाने वाले को भी शुद्ध दोषी माना जाना चाहिए। फिर हमें उसके उत्तराधिकारियों को भी सामने लाना होगा लेकिन यह तो फिर से सामूहिक ज़िम्मेदारी की खिचड़ी पकाना होगा। बेहतर तो यही है कि एक बंदा फंसाओ और सामूहिक पंगे से छुट्टी पाओ।
- संतोष उत्सुक
अन्य न्यूज़













