पनीर की पीड़ा (व्यंग्य)

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अब स्कूलों में भी यही हाल है। एक सरकारी स्कूल में निरीक्षण के दौरान शिक्षिका ने बताया—“हमने बच्चों को विविधता का पाठ पढ़ाया है।” मैंने पूछा—“कैसे?” उन्होंने जवाब दिया—“बच्चों को पनीर की पाँच रेसिपी याद करवाई है—पनीर दो प्याज़ा, मटर पनीर, पालक पनीर, कढ़ाई पनीर और शाही पनीर।”

हमारे मोहल्ले में एक पंडित जी रहते हैं—नाम नहीं लूँगा, क्योंकि नाम लेते ही वे आ जाते हैं और फिर कम से कम दो घंटे तक प्रवचन देते हैं कि “ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई और उसमें पनीर का क्या योगदान है।” पंडित जी ने अब प्रवचन देना बंद कर दिया है, अब वे पनीर ज्ञान बाँटते हैं। कहते हैं—“पनीर एक तत्व है, जैसे पंचतत्व—जल, अग्नि, वायु, आकाश और पनीर।” एक दिन बोले, “पनीर सबमें है, तुझमें है, मुझमें है, हरजीत की चाट में है, शर्मा जी के टिफिन में है। जो पनीर को पहचान गया, वह आत्मा को पहचान गया।” मैंने कहा—“पंडित जी, आत्मा तो कब की निकल चुकी है, अब पेट में गैस है। वो भी पनीर से।” पंडित जी ने गुस्से से देखा, फिर बोले—“इस अधम को भूतल पर पनीर की कृपा नहीं चाहिए।” अब उनकी कृपा से मोहल्ले में एक नया मंदिर बन रहा है—“श्री श्री पनीरेश्वर धाम”। वहाँ हर मंगलवार को “शाही पनीर आरती” होती है। बर्फी के बदले पनीर का प्रसाद बँटता है। एक बार मैंने मज़ाक में कह दिया कि “प्रसाद खट्टा था”, तो मुझ पर “गौग्रास का अपमान” कहकर एफआईआर दर्ज हो गई।

अब स्कूलों में भी यही हाल है। एक सरकारी स्कूल में निरीक्षण के दौरान शिक्षिका ने बताया—“हमने बच्चों को विविधता का पाठ पढ़ाया है।” मैंने पूछा—“कैसे?” उन्होंने जवाब दिया—“बच्चों को पनीर की पाँच रेसिपी याद करवाई है—पनीर दो प्याज़ा, मटर पनीर, पालक पनीर, कढ़ाई पनीर और शाही पनीर।” मैंने कहा—“अरे देवी, ये विविधता नहीं, एकता में एकता है!” शिक्षिका बोलीं—“सर, नया पाठ्यक्रम आया है, ‘राष्ट्रीय व्यंजन-निर्माण योजना।’" अब बच्चा रटता है—‘सबका स्वाद, एक पनीर’, जैसे पहले रटता था ‘सबका साथ, सबका विकास।’ एक बार एक बच्चा गलती से ‘भिन्डी’ लिख आया। पूरा स्कूल उठ खड़ा हुआ। उसकी कॉपी को गंगाजल से शुद्ध किया गया। बच्चे को समझाया गया—“ये देश का अपमान है। यहाँ पनीर बोलना ही देशभक्ति है।” अब स्कूल में झंडा फहराते समय राष्ट्रगान के बाद “पनीर वंदना” गाई जाती है—“पनीर तुंही महान, तेरे बिना न हो खान।”

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एक दिन मैं एक पुराने मित्र के घर गया। देखा तो उनकी पत्नी रसोई में रो रही थीं। मैंने पूछा—“क्या हुआ भाभीजी?” वे बोलीं—“हर दिन पनीर बना रही हूँ। अब तो हाथ कांपते हैं पनीर काटते-काटते। और सुनिए, वो तो हद कर दी इन साहब ने।” मैंने पूछा—“क्या?” बोलीं—“इन्होंने अपनी शादी की सालगिरह पर मुझे पनीर की साड़ी गिफ्ट की।” मैंने देखा, साड़ी पर छोटे-छोटे पनीर के टुकड़े प्रिंट थे, और बॉर्डर पर लिखा था—‘पनीरलिशियस लव’। मैं स्तब्ध। उनकी बेटी आई, बोली—“चाचाजी, मेरा नाम अब ‘पनीरिका’ रख दिया है।" अब मोहल्ले में शादियाँ नहीं होतीं, पनीर महोत्सव होते हैं। बैंड वाले भी अब ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ के बजाय ‘तेरे बिना पनीर अधूरी सी लगती है’ गाते हैं। और क्या कहें! अब तो रिश्तेदार भी पूछते हैं—“दूल्हे की तरह पनीर है ना? या वही पुराने वेज?” एक ज़माना था जब वर को देखा जाता था, अब पनीर को। लोग कहते हैं—“लड़का अच्छा है, इंजीनियर है, सरकारी नौकरी है—बट टेल मी, डज़ ही लाइक पनीर?” और जब जवाब ‘हाँ’ होता है, तब ही बारात निकलती है।

“पनीर ही क्यूँ?” ये सवाल था छोटे नानक का, जो चौथी क्लास में पढ़ता था और स्कूल से लौटते वक्त रोटी में हर रोज़ वही सफेद सी स्लाइस देखकर टेबल पलटने का मन करता था। उसकी आँखों में वही जिज्ञासा थी जो रामायण के लक्ष्मण की थी—लेकिन यहाँ प्रश्न ‘सीता कहाँ हैं?’ नहीं था, प्रश्न था ‘भिन्डी क्यों नहीं है?’ पर मम्मी का उत्तर क्लासिक था, जैसे किसी धर्मगुरु की वाणी—“पनीर प्रोटीन है बेटा, और तुम्हारे पापा को भी पसंद है।”

बेटा तो कुछ ना बोला, लेकिन रसोई की खिड़की से हवा में उड़ा एक पनीर का टुकड़ा सीधे बबलू कुत्ते के मुँह में जा गिरा। कुत्ता भौंकते-भौंकते चुप हो गया, मानो कह रहा हो—“क्यों रे इंसान, ये तो कुत्ते भी नहीं खाते।” मम्मी ने टोका नहीं, शायद उन्होंने भी हार मान ली थी। अब पनीर सिर्फ सब्ज़ी नहीं, संस्कार बन चुका था। जैसे घर में कोई बुज़ुर्ग होता है जो भले ही कुछ न बोले, लेकिन हर चीज़ में उसकी मौजूदगी रहती है—पलंग पर, पूजा घर में, और अब थाली में।

पापा ने तो हद कर दी थी। “मुझे तो बटर पनीर, पालक पनीर, शाही पनीर, मटर पनीर सब पसंद है।” ये कहकर उन्होंने शादी की सालगिरह पर मम्मी को भी पनीर की साड़ी गिफ्ट की थी। लाल रंग की साड़ी जिसमें सुनहरे धागों से ‘पनीर लव्स यू’ लिखा था।

“हम पनीर नहीं खा रहे, पनीर हमें खा रहा है…” ये बात चुपचाप कह दी थी दादी ने, जिन्हें डायबिटीज थी, ब्लड प्रेशर था, और ऊपर से पनीर की सब्ज़ी। एक दिन उन्होंने पनीर की एक बोटी उठाई, देखा, चूमा और चुपचाप पूजा की थाली में रख दी। “अब इसे भगवान ही खाए।” और तबसे पनीर भगवान का भोग बन गया।

बबलू कुत्ता अब पनीर देखकर रोने लगता है। एक दिन कॉलोनी का एक विदेशी आया, जिसने पूछा, “इंडियन वेजिटेरियन डिश?” तो पास खड़े शर्मा अंकल ने तपाक से कहा, “ओनली पनीर! वी आर द पनीर नेशन!” विदेशी ने मुस्कुराकर कहा, “आई वांट समथिंग एल्स।” शर्मा जी ने तिरंगा झाड़कर कहा, “यू आर अ टेररिस्ट।”

प्याज़, टमाटर, गाजर, शिमला मिर्च, बैंगन—सब एक-एक कर फ्रिज से निकाल बाहर किए गए। क्रांति आ चुकी थी। अब हर डिश में सिर्फ़ एक ही नाम लिखा होता—“पनीर आधारित स्वाद”। शादी हो, अंतिम संस्कार हो, बर्थडे हो, ऑफिस पार्टी हो—हर जगह पनीर। लोग अपने बच्चों का नाम पनीरप्रिया, पनीरनाथ, श्रीपनीरेश्वर रखने लगे थे।

एक दिन मोहल्ले में सब्ज़ी मंडी में पत्ता गोभी ने बगावत कर दी। “क्यों भाई, मेरा क्या दोष?” उसने चिल्लाकर कहा। पालक बोली, “हमारा भी हरा रंग है, पर हमारा नसीब काला।” मटर फूट-फूटकर रो पड़ा, “मैं तो खुद पनीर के साथ ही आता हूँ, पर नाम में मेरा कहीं जिक्र नहीं होता।” तभी आलू पीछे से बोला, “मैंने तो समोसे तक में इज्ज़त बचाई है, यहाँ तो मेरी भी हालत ख़स्ता हो गई है।”

लेकिन किसी ने नहीं सुना। सब्ज़ियों की सभा में एक प्रस्ताव पास हुआ—“अब कोई सब्ज़ी पनीर के साथ काम नहीं करेगी।” लेकिन जैसे ही शाम को होटल वाला आया, सब बिक गए। “५० रुपये किलो!” होटल वाले की आवाज़ में पैसा नहीं, लाचारी थी। “ग्रेवी में पनीर दिखे या न दिखे, ग्राहक पनीर का नाम सुनकर ही पेट भर लेता है।”

प्याज़ खा लो, तो आँखें नम होती हैं,

पर पनीर खा लो, तो आत्मा नम होती है।

जिस थाली में खाना खाया, उसी में पनीर निकला।

अब घर में प्रेम नहीं, सिर्फ़ कड़ाही की गंध है।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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