अशिक्षा के स्कूल (व्यंग्य)

नया सत्र शुरू होते ही अभिभावकों के शरीर में आक्रोश बढ़ने लगता है। बाल अधिकार संरक्षण आयोग, शिक्षा मंत्री, उचित शिक्षा को कटिबद्ध सरकार और समाचार पत्रों को सूचित किया जाता है। कई जागरूक अखबार अभियान चलाते हैं।
अधिकांश अभिभावक स्कूल प्रबंधन के खिलाफ शिकायत करने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते। ऊंची कुर्सी वाले अफसर के पास जाते हैं लेकिन जांच कमेटी गठित करने से ज़्यादा उनके वश में भी नहीं होता । जांच कमेटी जांच कर सकती है, रिपोर्ट दे सकती है। सही रिपोर्ट देने में देर लग सकती है जी। रिपोर्ट आने के बाद जांच का ऊंट किस करवट बैठता है कह नहीं सकते। इस बारे हर कहीं पहुंचे हुए ज्योतिषी भी नहीं बता सकते।
नया सत्र शुरू होते ही अभिभावकों के शरीर में आक्रोश बढ़ने लगता है। बाल अधिकार संरक्षण आयोग, शिक्षा मंत्री, उचित शिक्षा को कटिबद्ध सरकार और समाचार पत्रों को सूचित किया जाता है। कई जागरूक अखबार अभियान चलाते हैं। शिक्षा विभाग सख्त निगरानी करता है। कई स्कूलों के छात्र और अभिभावक प्रदर्शन भी करते हैं। जो नेता पहले विपक्ष में थे, अब सरकार में हैं उन्हें परिस्थितिवश शांत रहना पड़ता है। यह स्वाभाविक होता है जी। पहले शासित, अब शासक होने पर भी इंसानियत के नाते जागरूक अभिभावकों के सक्रिय सहयोग से प्रतिनिधि मंडल विकसित करते हैं।
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आरोप लगाया जाता है बिना पूर्व सूचना के फीस बढ़ाई, पूछने पर वाजिब वजह नहीं बताई। मनमाने तरीके से फीस बढाना, कॉपी, किताबें, ड्रेस के नाम पर लूट रहे हैं। एलकेजी की किताबें खरीदने गए एक परिवार को तीन पैक दिए गए। एक किताब का, दूसरा कापियों का, तीसरे में में गोंद, मार्कर, पेन, फेविगम ड्राइंग शीट और क्रेयोंज़ वगैरा रहे। जब उनसे कहा कि कुछ सामान नहीं लेना चाहते, मुंह बनाते हुए जवाब दिया, लिस्ट वेब साईट पर है देख लें, जो लेना है बता दें। बाक़ी सामान मनचाहे दामों पर देते हुए एहसान किया। स्कूल प्रबंधन को इनकी दुकान से सामान बिकवाने के लिए और इन्हें मनचाही दरों पर बेचने में यश प्राप्त है। सब कुछ पारदर्शिता, अनुशासित ईमानदारी से सुनियोजित है। स्कूल वालों को फीस घटानी नहीं आती।
सभी ने बच्चे पढ़ाने हैं। ऊंचे स्कूल में तो प्रवेश वैसे भी किस्मत या पैसे से मिलता है। स्कूल वालों से पूछने की हिम्मत करेंगे तो वे कुटिल मुस्कराहट के साथ सधा हुआ जवाब देंगे जिसका अर्थ होगा, हमने तो आपको निमंत्रण पत्र नहीं भेजा था कि हमारे प्रसिद्ध, बढ़िया, शानदार स्कूल में बच्चों को पढ़ने ज़रूर भेजना। आप इन्हें किसी और स्कूल में भी तो भेज सकते थे। सरकारी स्कूलों में काफी चीज़ें मुफ्त हैं वह बात अलग है कि वहां के अध्यापक भी अपने बच्चों को वहां नहीं पढ़ाते ।
आंदोलन, प्रदर्शन और जोश कुछ दिन चलता है फिर एक दिन चाय, पानी और समोसों में फंस जाता है। कौन अभिभावक नहीं चाहता कि उनके बच्चों के नए सत्र की शुरुआत सकारात्मक हो। आश्वासन, इरादे, वायदे झुलस कर रह जाते हैं। खुद की हुई शिकायत बेकार लगने लगती है। स्कूल प्रबंधन की नकली मुस्कराहट पसंद आने लगती है।
- संतोष उत्सुक
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