ज़िंदगी जीने वाले (व्यंग्य)

लोग अब समझने लगे हैं कि ज़िंदगी एक बार ही मिली है। इस सन्दर्भ में फ़िल्में भी खूब प्रेरित करती हैं। ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ सिर्फ एक फिल्म ही नहीं थी उसमें वास्तव में सिर्फ एक बार मिली ज़िंदगी को खुलकर जीने के लिए प्रेरित किया गया था।
जिस तरह प्यार करने की अदाएं निराली होती हैं उसी तरह देश से प्यार करने के अंदाज़ भी अलग अलग होते हैं। देखने में आता रहता है, कुछ लोग प्यार तो दिल की गहराइयों से करते हैं लेकिन गालियों, हाथों, टांगों और डंडों का इस्तेमाल भी करते हैं। सार्वजनिक संपदा को तोड़ फोड़ कर, आग लगाकर प्रमाण देते हैं कि हमने देश से कितना प्यार किया। उनकी ऐसी हरकतों से दूसरे भी प्रेरित होते हैं।
लोग अब समझने लगे हैं कि ज़िंदगी एक बार ही मिली है। इस सन्दर्भ में फ़िल्में भी खूब प्रेरित करती हैं। ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ सिर्फ एक फिल्म ही नहीं थी उसमें वास्तव में सिर्फ एक बार मिली ज़िंदगी को खुलकर जीने के लिए प्रेरित किया गया था। अपनी छूटती, अधूरी, छोटी छोटी तमन्नाएं पूरी करने को कहा गया था। शायद तभी ज्यादातर लोग मनपसंद खाकर, तनपसंद पहनकर उपदेशयुग में मस्त रहने में व्यस्त हो गए हैं।
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ज़िंदगी को जीने वाले अपनी पसंद को सबसे ऊपर रखते हैं। वे मानते हैं कि विदेशी टूथपेस्ट ज़्यादा बढ़िया दांत साफ़ करता है। दूर देश से सलीके से मंगवाई खुशबूएं उन्हें दीवाना बनाकर रखती हैं। बाज़ार उनके लिए ही तो अन्तर्राष्ट्रीय डिज़ाइनर्स के वस्त्र, जूते और खाना लाया है तो क्यूं न प्रयोग करेंगे और खाएंगे। हमारी तो जीभपसंद कॉफ़ी पर भी ख़ास ब्रांड की मुहर है। दुनिया भर में बनी जीन्स में हमने अपना जिस्म पहना दिया है। कोई माने या माने, सच्चा देश प्रेम भी इसमें समाहित है।
हमारा मनोरंजन तकनीक से हाथ मिलाकर आर्थिक खेती कर रहा है। वह अलग बात है कि हमारी कला साहित्य और संस्कृति के किस्से कहानियां, प्रयासों की जंग लगी जंजीरों की जेल में कैद हैं। जिसके सामने चौड़ी सड़क पर, विदेशी कम्पनियों की छत में से नीला आसमान ढूंढते, किसी ख़ास देश का चश्मा पहने, उत्कृष्ट स्वादिष्ट सेब जैसे फोन थामे, पर्यावरण प्रेमी निकलते रहते हैं। यह लोग कभी कभार, अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ रहे बच्चों को लेकर, आर्गेनिक शैली में बनाए भारतीय गांव में ज़रूर जाते हैं ताकि अपने देश की आंचलिक और ग्रामीण संस्कृति से उनका लगाव चिपका रहे।
समझदार लोग मानते हैं कि शाकाहारी और मांसाहारी स्वाद की सीमित बातें ज़रूर करनी चाहिएं। एक बार मिली ज़िंदगी में आराम देती शानदार मय पी सकते हैं। सप्ताह में एक दिन न भी पी तो क्या फर्क पड़ता है। मांस खाएं या न खाएं, तमाम तरह की हेराफेरियां, गुस्ताखियां और बदमाशियां कर मनपसंद पूजास्थल जाकर, भेंट अर्पित कर भविष्य अच्छा भविष्य गुज़ारने की अनुमति प्राप्त कर सकते हैं। यह प्रक्रिया दोहराई जा सकती है।
कुल मिलाकर ज़िंदगी जीने वाले, अपने क्रियाकलापों का प्रबंधन सोच समझकर करते हैं और जो ऐसा कर पाते हैं वही फालतू के पचड़ों में न पड़कर ज़िंदगी जी लेते हैं।
- संतोष उत्सुक
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