दुनिया में क्लाइमेट चेंज की तेज हुई रफ्तार, कहीं आग तो कहीं बाढ़, कैसे पाएंगे कुदरत की आखिरी चेतावनी से पार

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अभिनय आकाश । Nov 1 2021 6:17PM

दुनिया में कहीं जंगलों की आग कहर बरपा रही कहीं ग्लेशियर पिघल रहे। ये सामान्य घटनाएं नहीं। ये सारी घटनाएं अप्रत्याशित हैं। ऐसी आपदाओं का अनुमान किसी ने भी नहीं किया। लेकिन आपको ये लग रहा कि ये बहुत है तो आपकी गलतफहमी है। अतीत में देखने को मिला वो ट्रेलर है असली पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त।

प्रलय का मंजर कैसा होगा? हमारे पुरखों ने अलग-अलग वर्णन किए और हमने अलग-अलग नजरों से दृश्यों को देखा। दुनिया में कहीं जंगलों की आग कहर बरपा रही है तो कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। साल की शुरुआत में ही स्पेन की राजधानी मेड्रिड में इस साल रिकॉर्ड बर्फबारी हुई। पारा लुढ़कर माइनस 25.4 डिग्री सेल्यिस तक पहुंच गया। मेड्रिड में पिछले 50 सालों के दौरान रिकॉर्ड बर्फबारी हुई है। फरवरी का महीना वैलेंटाइन वीक 2021, शीतकालीन प्रकोप ने न केवल दक्षिणपूर्व टेक्सास में बर्फ़, ओले और बर्फ़ीली बारिश लायी, बल्कि कई दिनों तापमान को भी गिरा दिया। भीषण बर्फबारी के कारण पूरे टेक्सास में लगभग 5 दिनों तक लोग बिना बिजली और पानी के घरों में कैद रहे थे। इस भीषण आपदा के कारण लगभग 60 लोगों की मौत हो गई थी। अब ग्लोब के दूसरे हिस्से में चलते हैं और दूसरे महीने में भी चीन की राजधानी बीजिंग में पिछले 10 सालों का सबसे खतरनाक सैंडस्टॉर्म (धूल भरी आंधी) आई। 15 मार्च 2021 को आए इस तूफान की वजह से पूरा बीजिंग शहर पीले रंग की रोशनी से ढंक गया था। कई इलाकों में लाइट्स जलानी पड़ी। सड़कों पर लोग हेडलाइटें जलाकर कार चला रहे थे। और आगे बढ़ते हैं जुलाई 2021 रिकॉर्ड बारिश के कारण यूरोप की कई नदियों के किनारे टूट गए और नदियों का पानी शहरों में तेजी से बढ़ने लगा। बाढ़ ने यूरोप के कई हिस्सों को जनमग्न कर दिया। इससे यूरोप को को करीब 70 हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया गया। बाढ़ की चपेट में आकर 200 लोगों ने अपनी जान भी गंवा दी। और थोड़ा आगे बढ़ते हैं और अगस्त के महीने पर आते हैं ग्रीस, तुर्की, इटली, स्पेन और लेबनान के जंगल एक-एक कर जलते रहे। अमेरिका का कैलिफोर्निया स्टेट को लगातार दूसरे बरस अपने इतिहास की सबसे खतरनाक व्हाइट फायर यानी जंगली आग का सामना करना पड़ा। आप कह रहे होंगे विदेशी बात है हमें इससे क्या। हम तो रोटी-कपड़ा और मकान इन्हीं तीन जिंदगी की जरूरतों में अपना पूरा जीवन निकाल देते हैं। तो अब भारत की बात करते हैं। बेमौसम गर्मी और बरसात भारत के कई इलाकों को परेशान कर रहा है तो बाढ़ और बारिश से लोगों की जान जा रही है। केरल में अक्टूबर के महीने में बाढ़ से कम से कम 42 लोगों की मौत। अक्टूबर में ही उत्तराखंड में बाढ़, बारिश और भूस्खलन से 100 से ज्यादा लोगों की मौत। अक्टूबर महीने में गंगा का उफान पर होना। ये सामान्य घटनाएं नहीं हैं। ये सारी घटनाएं अप्रत्याशित हैं। मतलब ऐसी आपदाओं का अनुमान किसी ने भी नहीं किया था। लेकिन चिंता की बात ये है कि इन आपदाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन अगर आपको ये लग रहा है कि ये बहुत है तो आपको गलतफहमी है। जो अतीत में देखने को मिला वो तो एक ट्रेलर है असली पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त। ये सीधे तौर पर इंसानी सभ्यता के अस्तित्व से जुड़ी है। अगर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो दुनियाभर के तमाम तटीय शहर एक दिन समंदर का निवाला बन जाएंगे और मानव सभ्यता का वजूद भी मिट सकता है। क्या है जलवायु परिवर्तन, किन देशों पर इसका सबसे ज्यादा खतरा है, भारत के संदर्भ में क्या है और इससे बचाव के लिए आगे का रास्ता क्या होगा सब आपको तफ्सील से बताते हैं।

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पिछले कई वर्षों से जलवायु परिवर्तन या क्लाइमेट चेंज सबसे चर्चित कीवर्ड की लिस्ट में है। दुनिया की आधी से अधिक समस्यों की वजह। सबसे पहले आपको क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन के बारे में बताते हैं-

जलवायु परिवर्तन या फिर कहे क्लाइमेट चेंज का मतलब पृथ्वी के औसतम तापमान में हो रही वृद्धि से है। लेकिन इस वृद्धि की वजह क्या है? ये तो आपको पता ही है कि पृथ्वी को प्रकाश और गर्मी सूरज से मिलती है। सूरज की किरणें जब पृथ्वी पर पड़ती हैं तो उनमें से कुछ किरणें परावर्तित होकर बस अंतरिक्ष में चली जाती हैं और कुछ किरणों को हमारे वायुमंडलों में मौजूद ग्रीन हाउस गैसें परावर्तित होने से रोक लेती हैं। इसे ग्रनी हाउस इफेक्ट कहते हैं। वायुमंडल को आप पृथ्वी के चारो ओर गैसों का एक कवच कह सकते हैं। सूरज की इस गर्मी को वायुमंडल में मौजूद ग्रीन हाउस गैसें  परावर्तित होने से रोक लेती हैं। इसी से पृथ्वी पर जीवन संभव हो पाता है। वरना बेहद ठंड के कारण न सिर्फ इंसानों का रहना मुश्किल हो जाएगा बल्कि खेती भी आसान नहीं होगी। फिर दुनिया की आबादी का पेट भरना मुश्किल होगा। ये तो हो गई टेक्निकल बात अगर सरला शब्दों में बताने की कोशिश करें तो किसी भी इलाके में उसे वेडर पैटर्न क्लाइमेट कहते हैं। जैसे हमारे हिन्दुस्तान की बात करें तो सावन, भादो में पानी बरसता है। पूस के महीने में खूब ठंड परती है। अगर इस सामान्य स्थिति में बदलाव आए जैसे मान लीजिए कि अगस्त में कड़ाके की ठंड पड़ने लगे और नवंबर में खूब पानी गिरे तो क्या होगा खेती का पूरा पैटर्न बदल जाएगा। सारी चीजें खराब हो जाएंगी क्योंकि हम शारिरीक और मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होंगे।

जलवायु परिवर्तन की वजह?

जितनी तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है इसके लिए मानव क्रियाएं जिम्मेदार हैं। घरेलू कामों, कारखानों और परिचालन के लिए मानव तेल, गैस, कोयले के इस्तेमाल की वजह से जलवायु पर इसका असर पड़ रहा। ये जीवाश्म ईंधन जलते हैं तो उनसे ग्रीन हाउस गैस निकलती है जिसमें सबसे अधिक मात्रा कार्बन डायओक्साइड की होती है। इन गैसों की सघन मौजूदगी की वजह से सूर्य का ताप धरती से बाहर नहीं जा पाता है और यही धरती का तापमान बढ़ने का कारण है। 19वीं सदी की तुलना में धरती का तापमान लगभग 1.2 सेल्सियस अधिक बढ़ चुका है और वातावरण में CO2 की मात्रा में भी 50% तक वृद्धि हुई है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

अगर ग्लेशियर यूं ही पिघलता रहा, मौसम बिगड़ता रहा तो इंसान अन्न-पानी तक के लिए तरसेगा, क्यो हिन्दुस्तान, क्या पाकिस्तान और क्या अमेरिका और ईरान सभी की खतरे में पड़ जाएगी जान। अगर यूं ही बढ़ता रहा तापमान तो निर्जन हो जाएंगे कई क्षेत्र, खेत और रेगिस्तान। तापमान बढ़ने के कारण कुछ इलाक़ों में इसके उलट परिणाम भी हो सकते हैं। भारी बारिश के कारण बाढ़ आ सकती है। हाल ही में चीन, जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड्स में आई बाढ़ इसी का नतीजा है। तापमान वृद्धि का सबसे बुरा असर ग़रीब देशों पर होगा क्योंकि उनके पास जलवायु परिवर्तन को अनुकूल बनाने के लिए पैसे नहीं। कई विकासशील देशों में खेती और फसलों को पहले से ही बहुत गर्म जलवायु का सामना करना पड़ रहा है और ठोस क़दम के अभाव में इनकी स्थिति बदतर हो जाएगी।

दुनिया के विभिन्न हिस्से कैसे प्रभावित होंगे?

दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। कुछ स्थान दूसरों की तुलना में अधिक गर्म होंगे, कुछ में अधिक वर्षा होगी और अन्य में अधिक सूखे का सामना करना पड़ेगा।

अगर तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर नहीं रखा गया तो...

  • अत्यधिक बारिश के कारण यूरोप और ब्रिटेन में बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं. मध्य पूर्व के देशों में भयानक गर्मी पड़ सकती है और खेत रगिस्तान में बदल सकते हैं।
  • प्रशांत क्षेत्र में स्थित द्वीप डूब सकते हैं।
  • कई अफ्रीक्री देशों में सूखा पड़ सकता है और भुखमरी हो सकती है।
  • पश्चिमी अमेरिका में सूखा पड़ सकता है बल्कि दूसरे कई इलाक़ों में तूफ़ान की आवृति बढ़ सकती है।
  • ऑस्ट्रेलिया भीषण गर्मी और सूखे की मार झेल सकता है।

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दुनिया के सामने पर्यावरण का लक्ष्य

1850 में दुनिया में औद्योगिक क्रांति शुरू हुई थी। उस वक्त कार्बन का उत्सर्जन 1.5 डिग्री से ज्यादा का उत्सर्जन नहीं होना चाहिए। इसको लेकर भारत समेत तमाम देश रोम में जुटे। जहां जी20 के देश द्वारा कहा गया कि 2050 तक पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन नेट जीरो हो जाएगा। यानी कार्बन का उत्सर्जन होना बंद हो जाएगा। लेकिन सबसे गौर करने वाली बात है कि दुनिया के 80 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन 20 प्रतिशत देश ही करते हैं। ये 20 विकसित देश औद्योगिक क्रांति की वजह से ही विकसित हुए। इनकी चिमनी लगातार काला धुआं उगलती  रही। दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाती रही और उसे पक्के माल में परिवर्तित करती रही। फिर वही पक्का माल हमें अनाप-शनाप दामों में दोबारा बेचती रही। ये देश खुद मुनाफा कमाते रहे और दुनिया के पर्यावरण की ऐसी-तैसी करते रहे और विकसित देश कहलाने लगे। अब इन देशों की बोली अपनी जरूरतें पूरी होने के बाद बदलने लगी और कहने लगे कार्बन उत्सर्जन कम करो। लेकिन इस पर विकाशसील देशों का कहना है कि आप तो चिमनियों से धुआं उगल-उगल कर विकसित हो गए अब हमारी बारी आई है तो इंड्रस्ट्रियल आउटपुट बढ़ाना है तो हम क्यों न करे। भारत इस टारगेट का इसलिए विरोध कर रहा है कि वही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है। भारत फिलहाल आर्थिक विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है। वह दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। करोड़ों लोगों को गरीबी से निकालने के लिए यह जरूरी है कि भारत अगले कई सालों तक लगातार तेजी से आर्थिक विकास की राह पर बढ़े। ऐसे में अगले दो-तीन दशकों तक भारत का कॉर्बन उत्सर्जन तेजी से बढ़ने की संभावना है। कई अध्ययन बताते हैं कि जी-20 देशों में भारत इकलौता ऐसा देश है जो तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के पेरिस अग्रीमेंट के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी कदम उठा रहा है। यहां तक कि अमेरिका और यूरोपीय देशों के ऐक्शन 'अपर्याप्त' हैं।

सरकारें क्या कर रही हैं?

दुनिया के तमाम देश ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेट शिखर सम्मेलन में क्लाइमेट चेंज की चुनौती पर चर्चा के लिए जुटे हैं जिसे COP26 नाम दिया गया है। 31 अक्टूबर से शुरू हुआ सम्मेलन 12 नवंबर तक चलेगा। इस सम्मेलन में कई मुद्दे दशकों से अजेंडे में शामिल रहे हैं जिनमें यह भी शामिल है कि अमीर देश इस समस्या से निपटने में गरीव देशों की किस तरह मदद कर सकते हैं। अजेंडा मुख्य रूप से चार लक्ष्यों के लेकर काम करता है। पहला, 2050 तक सभी देश नेट जीरो सुरक्षित करें। इसका अर्थ है कि सदस्य देश इस सदी के मध्य तक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को जीरो तक लाने का प्रयास करें। दूसरा अजेंडा प्रभावित देशों को प्राकृतिक आवासों का बचाव करना है।  तीसरा पहले दो लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विकसित देशों को हर वित्त वर्ष में 100 बिलियन डॉलर देने वाले अपने वादे को पूरा करना चाहिए। चौथा लक्ष्य है एक साथ मिलकर काम करना। ऐसा नहीं है कि मौसम से जुड़े मसले पर पहली बार ऐसी हलचल दिख रही है। 1997 में क्योटो,  2009 में कोपेनहेगन और 2015 में पैरिस में इसी तरह के सम्मेलन हुए थे। लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकला।

निजी स्तर पर आप क्या कर सकते हैं-

सरकार को अपने स्तर पर बड़े और नीति-परक बदलाव करने की ज़रूरत है लेकिन बतौर जिम्मेदार नागरिक हम अपने स्तर पर भी इस प्रयास का हिस्सा बन सकते हैं। हमारे छोटे-छोटे प्रयास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में उपयोगी साबित हो सकते हैं। जैसे -

  • विमान सेवा का कम इस्तेमाल
  • कार का उपयोग ना करें या फिर करें तो इलेक्ट्रिक कार का
  • ऊर्जा बचाने वाले उपकरणों का इस्तेमाल करें

-अभिनय आकाश 

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