कोचिंग सिटी वाला शहर कैसे बच्चों के मृत्युलोक में तब्दील हो गया

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अभिनय आकाश । Jan 7 2020 3:36PM

कोटा का सबसे बड़ा शिशु अस्पताल जेके लोन जहां एक महीने में 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। समझ में नहीं आता कि किस गलियारे से जिंदा धड़कते हुए बच्चे ईलाज के लिए दाखिल होंगे और किस गलियारे से उनकी लाशें सीने से चिपकाए बिलखते हुए मां-बाप बाहर निकलेंगे।

कोटा पहले जहां का पत्थर मशहूर था फिर नाम चला कोचिंग क्लास का। लोग कहने लगे कि बच्चों को कोटा भेज दो जिंदगी संवर जाएंगी। लेकिन इसी कोटा में एक अस्पताल है जेके लोन। जिसमें एक-एक करके दम तोड़ रहे हैं बच्चे। अब तक 107 मासूम अपनी मां की गोद में ही खामोश हो चुके हैं। जनता ने जिन्हें अपना वोट देकर रहनुमा बनाया था उनके पास इन 107 मौतों पर बेशर्म बोलों के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे में आज हम बात करेंगे राजस्थान के कोटा में दम तोड़ते नौनिहालों के बारे में। 

कोटा का सबसे बड़ा शिशु अस्पताल जेके लोन जहां एक महीने में 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है। समझ में नहीं आता कि किस गलियारे से जिंदा धड़कते हुए बच्चे ईलाज के लिए दाखिल होंगे और किस गलियारे से उनकी लाशें सीने से चिपकाए बिलखते हुए मां-बाप बाहर निकलेंगे। दिसंबर का मतलब कोटा के इस अस्पताल में दाखिल होने वाले बच्चों के मां-बाप के लिए रिश्तेदारों के लिए दहशत में बदल चुका है। 

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बात बच्चों की मौत की हुई है तो बयानों का दौर शुरू हो गया है। आंकड़े का खेल जारी है। डॉक्टर के इस बयान को सुनिए और बार-बार सुनिए। फिर पूछिये उन माताओं से उन पिताओं से शायद वो यही कहें कि विकास के दावे झूठे हैं। इंडिया को न्यू इंडिया बनाने वाली बातें खोखली हैं। बच्चे क्यों मर रहे हैं इस पर जब अस्पताल के सुपरिटेंडेंट से पूछा गया तो उन्होंने अजीब ओ गरीब तर्क देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की। तब अस्पताल के सुपरिटेंडेंट डॉक्टर एच एल मीणा ने बताया था कि जांच के बाद हमने पाया है कि सभी 10 मौतें सामान्य हैं और इसमें कोई लापरवाही नहीं हुई है। सुपरिटेंडेंट के अनुसार उनके पास ज्यादातर मरीज कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बरन जिलों से आते हैं और जिस वक़्त वो अस्पताल लाए जाते हैं उनकी तबियत बहुत ज्यादा बिगड़ी होती है। 

नए साल की आती हुई रूत और मौसम खुशगवार था। बदलाव का आसमानी इश्तेहार था और सामने 107 मौतों की दीवार थी। गुलाबी शहर वाले गद्देदार खलल नहीं चाहते थे। तो न पूछे बिलखते हुए बाप की हुजूर हमारे लाल को तो बस बुखार था, मर कैसे गया? न पूछे तड़पती हुई मां- हुजूर हमारी लाडली को बस निमोनिया था मर कैसे गई। न पूछे दादा-दादी, नाना-नानी की आप तो सरकार हैं, आपसे न पूछें तो किससे पूछे। 

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एक महीने में 107 बच्चों का मर जाना वो भी एक ही अस्पताल में ये कोई मजाक है क्या? साल भर के, दो साल के, चार साल के बच्चों का गिनती में बदल कर रह जाना। अपने कलेजे को थोड़ा और मजबूत करके रखिए क्योंकि अब आपको जरा और विस्तार से बताते हैं। 

- 29 दिसंबर को 6 बच्चों की मौत हो गई।

- 30 दिसंबर को 4 बच्चों की मौत हो गई।

- 31 दिसंबर को 5 बच्चों की लाशें निकलती हैं।

सवाल सत्ता और विपक्ष के खेल का नहीं है। सवाल है बच्चों की उखड़ती हुई सांसों का दवाई का, ग्लूकोज की बोतल के बिना, ईलाज के बिना छोटे-छोटे बच्चों का मर जाना और वो भी इलाके के सबसे विशालकारी सरकारी अस्पलात में। 

ये उस सरकार या इस सरकार की बात नहीं है। हर सरकार ने सरकारी अस्पतालों को बर्बाद करने का काम किया है। 

पूछिए कैसे तो ये भी आपको बता देते हैं।

- साल 2014 में 15 हजार 719 बच्चे भर्ती हुए और 1198 बच्चे मर गए।

- 2015 में 17 हजार 579 बच्चे दाखिल हुए और 1260 बच्चे मर गए।

- 2018 में 16 हजार 436 में 1005 बच्चे मर गए।

- 2019 में 16892 बच्चों में 978 मर चुके हैं। 

मतलब साफ है कि न वसुंधरा सरकार ने अस्पताल को कम बर्बाद किया न उनके पहले की सरकार ने और न ही अशोक गहलोत ने कोई कसर छोड़ी। बर्बाद अस्पताल, बर्बाद इंतजाम और खस्ता हाल जनता का मुकद्दर बन चुका है। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला कोटा से सांसद हैं। कोटा स्थित चिकित्सालय में नवजात शिशुओं की मौत की दुखद घटना के बाद लोकसभा अध्यक्ष और स्थानीय सांसद ओम बिरला लोगों से मिलने पहुंचे। इस दौरान उन्होंने जमीन पर बैठकर लोगों की समस्याएं सुनी। ओम बिरला ने गम में डूबे उन परिवार वालों के दुख दर्द को बांटा जिन्होंने अपने बच्चों को खोया है। इससे पहले ओम बिरला ने इस घटना को दुखद बताते हुए कहा था कि यह जरूरी है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये राज्य सरकार और केंद्र सरकार मिल कर काम करें और एक सामूहिक प्रयास हो। 

शासन व अस्पताल की ओर से शर्मसार करने वाली हरकत सामने आई, जब 107 बच्चों की मौत से इंसान‍ियत कराह रही हो तब अस्पताल के दौरे पर आए संवेदनहीन मंत्री का स्वागत ग्रीन कारपेट ब‍िछाकर क‍िया गया। कोटा के प्रभारी मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री पीड़ितों से मिलने और घटनाक्रम की जानकारी लेने के लिए जेके लोन अस्पताल पहुंचे तो उनके स्वागत में प्रशासन ने हरे रंग का कारपेट बिछा दिया। दौरे को देखते हुए प्रशासन ने अस्पताल में रंग-रोगन भी करवाया।

अब जरा आपको अस्पताल का सूरत-ए-हाल भी बता देते हैं। एक-एक बिस्तर पर दो-दो बच्चे लेटे हैं। वार्ड में बिस्तर चिपका दिए गए हैं। खिड़कियां तक दुरूस्त नहीं हैं। और बैठे हुए मां-बाप उनके ईश्वरों के इंतजार में हैं जिनके हाथों में अपने बच्चों की नब्ज देकर वो निश्चित महसूस कर रहे हैं।

सवाल तो ये है कि हर हुकूमत की नींद तभी क्यों खुलती है जब सैंकड़ों बच्चों की सिसकियां उनकी तड़प, उनकी उखड़ती हुई सांसे भारतीय आर्यूर्वेद के इतिहास में एक बर्बर प्रयोग के तौर पर दर्ज हो चुकी होती है। सवाल है कि है कि ये सिलसिला थमेगा कब।

गोरखपुर- 63 बच्चे मर जाते हैं। आक्सीजन सिलेंडर के बिना।

मुजफ्फरपुर 152 बच्चे मर जाते हैं। दवाई और डाक्टर के बिना। फर्रुखाबाद में 49 बच्चे मर जाते हैं आक्सीजन सिलेंडर के बिना। और अब कोटा में 107 बच्चे दवाई औऱ ईलाज के बिना मर जाते हैं। 

हर बार लगता है कि सूरत बदलेगी लेकिन नहीं बदलती। हर बार लगता है कि सरकारें जिंदगियों की फिक्र करना सीखेंगी। नहीं सीखती। हर बार लगता है गरीबों की आवाजें सुनी जाएंगी। नहीं सुनी जाती हैं। 

नीति आयोग ने विश्व बैंक और केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें हेल्थ इंडेक्स 2019 में देशभर में 21 बड़े प्रदेशों की रैंकिंग जारी की गई। जिसमें राजस्थान का स्थान 21 राज्यों में 16वां रहा था। गौरतलब है कि नीति आयोग हेल्थ आउटकम जैसे नवजात मृत्यु दर और गवर्नेंस एंड इन्फॉर्मेशन डोमेन जैसे स्वास्थ्य अधिकारियों के ट्रांसफर और इनपुट डोमेन जैसे मानकों के आधार पर हेल्थ इंडेक्स तैयार करता है। हेल्थ इंडेक्स पर 74.01 स्कोर के साथ केरल ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए देशभर में बड़े राज्यों में पहला स्थान प्राप्त किया जबकि 43.10 स्कोर के साथ राजस्थान नीचे से पांच अंक उपर रहा था। भारत की सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था को ध्वस्त कर देने वाले सरकारी ढुल-मुल रवैये की वजह से ही बच्चों की लाशें एक महीने से निकल रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है और फिलहाल देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है। तय मानकों के अनुसार, यह अनुपात प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक होना चाहिए।

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हिंदुस्तान में ज़िंदगी की कीमत बहुत ही सस्ती है। यह ज़िंदगी और भी सस्ती हो जाती है जब आदमी गरीब होता है। थोड़ी और सस्ती हो जाती है जब आदमी गरीब होने के साथ ही गांव में रहता है और तब तो लगभग मुफ़्त ही हो जाती है जब वह गांव का गरीब होने के साथ ही राजधानी से दूर जीवन गुजार रहा हो। जब जीवन ही मुफ़्त का हो तो इसकी सुध लेने की भला किसी को जरूरत ही क्या? लेकिन ये तो बात कोटा की है। राजस्थान ही क्या देश की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का हब माने जाने वाला शहर। 

2019 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित जन्मों में 30.924 है जो अपने आप में एक बड़ी संख्या है और जिसे नकारा तो हरगिज नहीं जा सकता। बात एकदम सीधी और स्पष्ट है। ख़राब स्वास्थ्य सेवाओं के चलते चाहे देश में एक बच्चा मरे या फिर एक सौ- एक हजार बच्चे। तंत्र को पहली ही मौत से सचेत हो जाना चाहिए और ऐसे प्रबंध करने चाहिए जिससे उस एक जान को बचाया जा सके। सरकार भले ही ये कहकर अपनी पीठ थपथपा ले कि बच्चों की मौतों की संख्या में कमी आई है मगर उसे जरूर उस परिवार से मिलना चाहिए जिसने उस एक मौत के रूप में अपना सब कुछ खो दिया।

पिछली सरकारों ने क्या किया? सवाल उससे पूछा जाएगा जो अभी गद्दी पर बैठा है और चूंकि अभी राजस्थान की गद्दी पर अशोक गहलोत हैं तो वो बताएं कि आखिर वो दिन कब आएगा जब इन मौतों पर अंकुश लगेगा? यदि गहलोत इस सवाल का जवाब देने में असमर्थ हैं तो फिर ये बात जनता को समझनी होगी कि वो पढ़ाई और दवाई जब तक ये दो चीजें मु्ददा नहीं बनेंगी सरकारी सिस्टम को बुखार इसी तरह लगा रहेगा।

- अभिनय आकाश

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