मी लॉर्ड! कब होगी सुनवाई: भारतीय जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी विचाराधीन

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अभिनय आकाश । Feb 21 2022 6:48PM

सुप्रीम कोर्ट में 73 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं वहीं भारत के सभी कोर्ट को मिलाकर इन केसों का आंकड़ां 44 मिलियन तक चला जाता है। इनमें से आठ लाख केस तो पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से लंबित हैं। जबकि 1 लाख केस 20 साल से ज्यादा वक्त से फैसले के इंतजार में हैं।

करीब दो सौ साल पहले विलियम ई ग्लैडस्टोन की कही लाइन Justice delayed is justice denied न्याय के क्षेत्र में प्रयोग किया जाने वाली लोकप्रिय सूक्ति है। इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है किन्तु इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो तो ऐसे 'न्याय' की कोई सार्थकता नहीं होती।  हमारे देश में न्याय मिलने की रफ्तार बहुत सुस्त है। हमारे देश की न्यायपालिका मुकदमों के बोझ तले दबी है। वर्षों तक वो अदालतों के चक्कर लगाता है। लेकिन अक्सर उसे न्याय नहीं मिल पाता। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मामले की सुनवाई होते-होते इंसान की मौत भी हो जाती है। ऐसा ही एक मामला महाराष्ट्र के एक 108 साल के बुर्जुग के साथ भी हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के याचिका स्वीकार करने से पहले ही बुजुर्ग की मौत हो गई। 108 साल का बुजुर्ग अब यह देखने के लिए जिंदा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक भूमि विवाद मामले में उसकी अपील को स्वीकार कर लिया है। यह मामला 1968 से चल रहा था और खारिज होने से पहले 27 साल तक बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष लंबित रहा। सोपान नरसिंग गायकवाड़ ने 1968 में एक रजिस्टर्ड सेल डीड के जरिए एक प्लॉट खरीदा था। बाद में उन्हें पता चला कि इसके मूल मालिक ने लोन के लिए इसे बैंक में गिरवी रखा था। 27 सालों तक बॉम्बे हाई कोर्ट में मामला पेंडिग रहा। जिसके बाद इसे खारिज कर दिया गया। सोपान नरसिंग ने इस निर्णय को चुनौती दी। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जुलाई 2021 में याचिका स्वीकार की गई। लेकिन तब तक याचिकाकर्ता जीवित ही नहीं बचा। लेकिन ये कोई एकलौता ऐसा मामला नहीं है। किसी शख्स को 1982 में सजा दी गई और उसकी अपील पर फैसला 40 साल बाद आता है और उसे बरी कर दिया जाता है। वह दोषी अकेला नहीं था, तीन और लोग थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। आपने 1984 के भोपाल गैस त्रासदी के बारे में तो खूब सुना होगा। 1984 में हुए भोपाल गैस कांड ने करीब 5 लाख लोगों की जिंदगी में आंसू भर दिए थे। बहुत सारे लोगों का जीवन इंतजार में बीत गया कि यूनियन कार्बाइड के प्लांट से गैस लीक होने के जिम्मेदार लोगों को सजा मिलेगी और उनकी जिंदगी में इंसाफ का सूरज उगेगा। मुआवजे के मामले में कंपनी और केन्द्र सरकार के बीच हुए समझौते के बाद 705 करोड़ रुपए मिले थे। इसके बाद भोपाल गैस पीड़ित संगठनों की ओर से 2010 में एक पिटीशन सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी, जिसमें 7728 करोड़ मुआवजे की मांग की गई थी। इस मामले में अब तक फैसला नहीं हो पया। सालों से कई संगठन इन बच्चों के लिए, गैस पीड़ितों के लिए काम कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले आरटीआई से इन्हें चौंकाने वाले दस्तावेज मिले, जो कहते हैं कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर ने एक ऐसे अध्ययन के नतीजों को दबा दिया, जिससे कंपनियों से पीड़ितों को अतिरिक्त मुआवजा देने के लिए दायर सुधार याचिका को मजबूती मिल सकती थी। लंबे मुकदमें के बाद 2010 में भोपाल की निचली अदालत ने यूनियन कार्बेइड के सात अधिकारियों को दोषी ठहराया था और उन्हें महज दो साल की सजा होती है। न्यायप्रणाली की लाचारी जगजाहिर है और जजों पर मुकदमों का भारी बोझ किसी से छिपा भी नहीं है। लेकिन आज भी हिन्दुस्तान में जब कहीं दो लोगों के बीच में झगड़ा होता है, कोई विवाद होता है तो वे एक-दूसरे से कहते हुए पाए जाते हैं- ‘आई विल सी यू इन कोर्ट’। क्योंकि आज भी लोग भरोसा करते हैं न्यायपालिका पर। उनको भरोसा होता है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनेगी, प्रशासन उनकी बात नहीं सुनेगा, पुलिस उनकी बात नहीं सुनेगी तो कोर्ट सुनेगी उनकी बात और न्याय देगी। 

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44 मिलियन केस पेंडिंग

सुप्रीम कोर्ट में 73 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं वहीं भारत के सभी कोर्ट को मिलाकर इन केसों का आंकड़ां 44 मिलियन तक चला जाता है। इनमें से आठ लाख केस तो पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से लंबित हैं। जबकि 1 लाख केस 20 साल से ज्यादा वक्त से फैसले के इंतजार में हैं। 2 हजार मामले तो ऐसे भी हैं जो पिछले 50 सालों से सुनवाई के इंतजार में हैं। कहा जाता है कि no one is guilty until proven यानी अपराध सिद्ध होने तक किसी को भी दोषी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन हजारों ऐसे मामले ट्रायल में हैं और जेल में बंद हैं।  इन कैदियों को अंडर ट्रायल प्रिशनर्स यानी विचाराधीन कैदी माना जाता है, जो अभी तक दोषी साबित नहीं हुए और कोर्ट में उनके मामले चल रहे हैं। 

अंडर ट्रायल

जनवरी 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार 76 प्रतिशत अंडर ट्रायल प्रिशनर्स हैं। यानी हर 4 में से 3 कैदी। दो साल पहले एक और रिपोर्ट सामने आई थी जिसमें कहा गया था कि 1200 से ज्यादा अंडर ट्रायल मामले हैं। लेकिन इसमें गौर करने वाली बात ये रही कि इन 1291 ने जेल में अपराध के लिए दोषी पाए जाने पर मिलने वाली सजा का आधे से ज्यादा का वक्त ट्रायल के दौरान काट दिया। इनमें से कई की तो दोषी पाए जाने पर दी जाने वाली सजा की अवधि का भी वक्त गुजर गया लेकिन फिर भी अभी जेल में ही हैं। 49 प्रतिशत अंडर ट्रायल केस का सामना कर रहे कैदी 18 से 30 साल की आयु के हैं। यानी आधे से ज्यादा अंडर ट्रायल कैदी युवा पीढ़ी के हैं। 

बैकलॉग को साफ करने में 324 साल लग जाएंगे

साल 2018 में भारत सरकार का प्रमुख नीतिगत 'थिंक टैंक' नीति आयोग की तरफ से एक दिलचस्प आंकड़े पेश किए गए।  2018 के नीति आयोग के रणनीति पत्र के अनुसार, हमारी अदालतों में मामलों के निपटान की तत्कालीन प्रचलित दर पर, बैकलॉग को साफ करने में 324 साल से अधिक समय लग जाएंगे। वो भी तब जबकि इस दौरान नए केस फाइल नहीं किए जाएं तो। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। नए केस लगातार आ रहे हैं। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि 2018 के वक्त पेंडिंग केसों की संख्या 3 करोड़ के करीब थी। दिसंबर 2018 में 30 से अधिक वर्षों से अदालतों में चल रहे मामलों की संख्या 65,695 थी। इस साल जनवरी तक, यह 60% से अधिक बढ़कर 1,05,560 हो गया था। एक अलग रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले दो सालों में भारत में एक मिनट के भीतर 23 केस रजिस्टर्ड हुए हैं। 

जीडीपी पर भी प्रभाव

लंबित मामलों की सूची और इसके निपटारे में हो रही देरी भारत की अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डाल रही है। टाटा ट्रस्ट ऑर्गनाइजेशन की तरफ से 2016 में आई एक रिपोर्ट बताती है कि न्यायिक देरी की कीमत भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.5 प्रतिशत है। यानी करीब 50 हजार करोड़ रुपये सालाना। लेकिन ये कोई नई और सनसनीखेज खुलासे नहीं है जो हमने किए हैं। भारतीय न्याय अधिकारी और सरकार इस बात से भली-भांति परिचित हैं। 2021 में भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के कोर्ट में लंबित मामलों पर चिंता जतायी। राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय न्याय प्रणाली देरी का शिकार हो रही है। देश भर में 3.3 करोड़ मुकदमें विभिन्न कोर्ट में लंबित हैं। इसमें से करीब 2.84 करोड़ तो देश की निचली अदालतों में लंबित हैं। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने भी यह माना है कि कोर्ट में पेंडिंग मामले एक तरह की चुनौती बन गए हैं और निचली अदालतों पर तत्परता से ध्यान देने की जरूरत है। साथ ही उन्होंने कहा कि केस पेंडिंग होने की वजह से निर्दोष आदमी न्याय की उम्मीद छोड़ देता है। संविधान दिवस पर भारत के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने भी अदालत में लंबित मामलों को स्वीकार किया। कुल मिलाकर कहा जाए तो सभी ये बात जानते भी हैं और मानते भी हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल की इसका हल क्या है। 

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क्यों समस्या हल नहीं हो पा रही है?

इसके कई कारण हो सकते हैं, मसलन जजों की कमी, अपर्याप्त जांच, खराब इंफ्रास्ट्रक्चर, स्पष्ट जनादेश का अभाव। भारत के कई कोर्ट के पास बुनियादी सुविधाओं का आभाव है। 26 प्रतिशत कोर्ट परिसर में महिलाओं के लिए अलग शौचालय नहीं है। 16 प्रतिशत के पास कोई शौचालय तक नहीं है। 54 प्रतिशत कोर्ट में साफ पीने का पानी उपलब्ध है। 27 प्रतिशत कोर्ट रूम डिजीटल हैं, यानी जजों की टेबल पर कंप्यूटर उपलब्ध हैं। 32 प्रतिशत कोर्ट के पास डॉक्यूमेंट के स्टोरेज के लिए अपना अलग रिकॉर्ड रूम है। इसके अलावा स्टॉफों की कमी भी एक समस्या है। साल 2022 में 21 प्रतिशत न्यायिक अधिकारियों के पद रिक्त हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात में 5 हजार से अधिर रिक्तियां हैं। 

जजों की कमी

जहां तक बात जजों की है तो 25 हाईकोर्ट में 400 जजों के पद भरे नहीं गए हैं। लोअर कोर्ट में ये आंकड़ा 5 हजार को पार कर जाता है। जिससे भारत में 50 हजार लोगों पर एक जज हैं। जज तो दूर की बात है भारत के कोर्ट में कोर्ट रूम की भी कमी है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना के अनुसार 20 प्रतिशत जजों के पास बैठने के लिए अपना कोर्ट रूम तक नहीं है। 

भारत अपनी जीडीपी का 0.08 प्रतिशत न्याय प्रणाली पर खर्च करता है। ये रकम सैलरी, अलाउंस, ऑपरेशर्स पर खर्च किए जाते हैं। ये बेहद की कम हैं। लेकिन बैकलॉग के लिए केवल रिसोर्स की कमी को कारण नहीं माना जा सकता है। लग्जूरियर्स लेटिगेशन की आदत भी इसका एक बड़ा कारण है। जिला कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक कई तरह की अपील। दिल्ली हाई कोर्ट के सभी केसेज को लेकर की गई एक स्टडी में पता चला कि 70 प्रतिशत देरी के मामलों में वकीलों ने तीन बार से ज्यादा समय मांगा था। इससे साफ है कि जब तक जज ऐसे वकीलों पर सख्त नहीं होते, अपील की पेडेंसी बनी रहेगी।

फास्ट ट्रैक कोर्ट की अवधारणा ने भी दम तोड़ दिया 

जनता को सस्ता और जल्द न्याय दिलाने के लिए शुरू की गई फास्ट ट्रैक कोर्ट की अवधारणा ने भी दम तोड़ दिया है। जनवरी 2020 में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय FTC ने 28,000 मामलों का परीक्षण पूरा किया, जिनमें से केवल 22% मामलों को पूरा होने में एक वर्ष से भी कम समय लगा जो कि अदालतों के प्रकारों में सबसे कम था (SC / SC) एसटी कोर्ट, जिला / सत्र न्यायाधीश, POCSO कोर्ट, आदि) जिसके लिए डेटा दिया गया था। आगे FTCs में 42% परीक्षणों को पूरा करने में 3 साल से अधिक समय लगा जबकि 17% को पूरा करने में 5 साल से अधिक समय लगा। 2017 की रिपोर्ट के आंकड़ों की तुलना में पता चला है कि 2018 में पूरी हुई परीक्षण धीमी थीं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि अगर खराब न हो तो अन्य अदालतों के लिए FTCs की हालत।

यह हमारे न्यायिक प्रशासन की विफलता को दर्शाता है। मानवीय गरिमा के संवैधानिक मूल्य का अपमान है। लाखों केस की फाइलें सुनवाई के इंतजार में धूल फांक रहे हैं। इन सब का हल क्या है? 

न्यायिक पदों पर नियुक्ति की जरूरत है- कोर्ट्स में जजों की कमी के कारण लंबित मामलों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। पदों को जल्द भरा जाए। अगर सभी रिक्त पद भर दिए जाते हैं तो इसमें काफी राहत मिल सकती है।

डिजिटल- आधुनिक तरीकों और टेक्नोलॉजी को लाकर देरी की समस्या से बड़ी हद तक निजात पाई जा सकती है। सेवा से लेकर सम्मन तक और जमानत तक, न्याय प्रणाली में हर काम हाथ से किया जाता है।

वर्चुअल कोर्ट- वर्चुअल कोर्ट का सेटअप ज्यादा मात्रा में किया जाए। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से 2005 ई कमिटी लॉन्च की गई थी जिसका मकसद वर्चअस हियरिंग को अंजाम देना था। लेकिन पिछले 17 सालों में कुछ खास प्रभाव नहीं डाल सकी। हां, कोरोना महामारी के दौर में कुछ सेलेक्टेड केस की वर्चअल सुनवाई हुई। 

वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देना- विवादों का कोर्ट के बाहर सेटलमेंट। ऐसा कैसे संभव है? मध्स्थता, बातचीच या मोलभाव के जरिये और इसका प्रावधान न्याय व्यवस्था में पहले से है। कोर्ट वैकल्पिक विवाद समाधान, या कोर्ट एडीआर, पारंपरिक मुकदमेबाजी के बाहर विवादों को हल करने के लिए एडीआर विधियों के आवेदन को संदर्भित करता है।

केंद्रीय न्यायाधिकरण आखिरी विकल्प बनाया जाए। ये अस्तित्व में हैं लेकिन इनके आदेशों को भी चैलेंज करने का आधिकार है। पर्यावरण, सशस्त्र बलों, कर और प्रशासनिक मुद्दों से संबंधित विवादों से निपटने के लिए, वे भारत की अत्यधिक बोझ वाली अदालतों से कुछ भार उठाने के लिए हैं। जाहिर है, यह आवश्यक गति से नहीं हो रहा है। पासपर्ट डिलिवरी से लेकर ट्रैवल बुकिंग, बैंक ट्रांजक्शन, मेडिकल सर्विस तक हमने टेक्नलॉजी का प्रयोग कर प्रक्रिया की गति में सुधार लाया है। फिर कोर्ट में क्यों नहीं? हर क्षेत्र में चाहे वो नौकरी हो या अन्य कोई काम सभी की एक डेडलाइन निर्धारित होती है। लेकिन न्याय प्रणाली में क्यों इससे अछूती है। जवाबदेही प्रणाली में सुधार लाता है। एक देश के रूप में हमें जावबदेह बनना होगा। लाखों लोग जेल में बंद न्याय के इंतजार में अपने जीवन के अमूल्य समय को नष्ट कर रहे हैं। समय की भरपाई कोई नहीं कर सकता है। 

-अभिनय आकाश

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