रंगा-बिल्ला: देश के खूंखार अपराधी जिसने उड़ाए थे PM के होश

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अभिनय आकाश । Feb 14 2020 3:18PM

भाई के सामने ही बहन का रेप किया जाता है। पुलिस के बचने के इरादे से दोनों ही भाई-बहन से ठीक चार दशक पहले साल 1978 में दिल्ली में एक भाई-बहन का अपहरण होता है और कुछ देर को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस घटना को अंजाम उस वक्त के कुख्यात अपराधी रंगा-बिल्ला ने दिया था।

रस्सी, जल्लाद और इंसानी गले का ऐसा रिश्ता जिसे शायद ही कोई अपराधी अपने जीवनकाल में देखना चाहता होगा। फांसी वाली सजा-ए-मौत हिन्दुस्तान में किसी भी अपराधी को दी जाने वाली सबसे बड़ी सजा है। वर्तमान में निर्भया मामले में अपराधियों की फांसी की सजा कानूनी पेचीदगियों की वजह से टलती जा रही है। फांसी के दो घंटे के बाद भी आरोपी को मौत नसीब नहीं हुई तो उस अपराधी को दूसरे तरीके से मौत की नींद सुलाया गया। आपको बताते हैं कौन है वो अपराधी जिसकी निगरानी खुद पीएम कर रहे थे।

भाई के सामने ही बहन का रेप किया जाता है। पुलिस के बचने के इरादे से दोनों ही भाई-बहन से ठीक चार दशक पहले साल 1978 में दिल्ली में एक भाई-बहन का अपहरण होता है और कुछ देर को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस घटना को अंजाम उस वक्त के कुख्यात अपराधी रंगा-बिल्ला ने दिया था। 

दिल्ली के धौलकुआं में रहने वाले नेवल अफ़सर की 16 साल की बेटी और 14 साल का बेटा 26 अगस्त 1978 को घर से संसद मार्ग के लिए निकले थे। घर से ऑल इंडिया रेडियो के लिए निकले बच्चे वहां पहुंचे ही नहीं थे और रास्ते से ही गायब हो गए थे। पुलिस में केस दर्ज हुआ कि फिएट कार में दो बच्चों को जबरन ले जाया गया है। उस गाड़ी का नंबर MRK 8930 था। नेवी अफ़सर के इन दो बच्चों को लेकर सर्च ऑपरेशन पूरी रात चला। लेकिन, कोई सफ़लता नहीं मिली।

पुलिस की टीमें यूपी, हरियाणा और पंजाब तक खोजबीन में लग गईं। 29 अगस्त को एक चरवाहे को एक लड़की की लाश मिली। पुलिस पहुंची और इलाके की जांच शुरू हुई तो उससे 50 मीटर की दूरी पर एक बच्चे की लाश मिली। घर वालों को बुलाया गया और शिनाख्त हुई कि ये दोनों अफ़सर के ही बच्चे हैं। ताज्जुब करने वाली बात ये रही कि लड़के के जेब में रखे पैसे और लड़की की उंगली में सोने की अंगूठी अब भी थी। जिससे ये मतलब निकाला गया कि लूट के इरादे से उनका अपहरण नहीं हुआ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ख़ुलासा हुआ कि दोनों का 26 अगस्त की रात ही 10 बजे के क़रीब मर्डर हो गया था। ऑटोप्सी रिपोर्ट में ये पाया गया कि लड़की का रेप नहीं हुआ था। आधिकारिक तौर पर भी डॉक्टर्स ये बताने की हालत में नहीं थे कि लड़की के साथ रेप हुआ या नहीं। पुलिस सर्जन का कहना था कि इसके पीछे की वजह है कि बॉडी में डीकंपोजीशन शुरू हो गया था। ये इमरजेंसी के बाद का दौर था। केंद्र में एक बड़े आंदोलन के बाद नई सरकार आई थी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे और संसद में 'Shame-Shame' के नारे लग रहे थे। राज्यसभा में तो पीएम के इस्तीफ़े तक की मांग हुई। छात्रों का हुजूम बोट क्लब पहुंच गया। गुस्साए कई छात्र तो तत्कालीन पुलिस कमिश्नर के घर तक पहुंच गए और दिल्ली पुलिस के खिलाफ नारे लगाने लगे। उधर, छात्र-छात्राओं की भीड़ बोट क्लब पर बढ़ती जा रही थी। बोट क्लब पर बढ़ती प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने पुलिस प्रशासन के साथ केंद्र सरकार को भी चिंतित कर दिया था। तब तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बोट क्लब पहुंचे और प्रदर्शनकारी छात्रों से बातचीत करने लगे। इसी दौरान छात्रों का एक समूह इस कदर भड़का कि उसने पथराव शुरू कर दिया। पत्थराव के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी को भी पत्थर लगे और उनके माथे से खून निकलने लगा और देखते-देखते उनका कुर्ता खून में सन गया। बताया जाता है कि अटल बिहारी के माथे पर बाईं ओर चोट आई थी। छात्रों की इस हिंसक प्रतिक्रिया के बाद सरकार ने मामले की जांच क्राइम ब्रांच से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआइ) को सौंप दी थी। पुलिस के साथ समस्या ये थी कि वे हत्या के पीछे के कारणों को नहीं जान पा रहे थे। हत्यारे कौन हैं, इसकी भी जानकारी नहीं हो पा रही थी। इस बीच फिंगरप्रिंट्स और फॉरेंसिक रिपोर्ट इस केस को रंगा-बिल्ला की ओर ले जा रहे थे। मामले की पल-पल की जानकारी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुद ले रहे थे। 

कौन था रंगा बिल्ला

रंगा का असली नाम कुलजीत सिंह और बिल्ला का असली नाम जसबीर सिंह था। दोनों ने नेवी अधिकारी के दोनों बच्चों को फिरौती के लिए अपहरण किया था। लेकिन जब रंगा औऱ बिल्ला को पता चला की बच्चों के पिता नेवी के अधिकारी हैं। तो वो डर गए। किसी अनहोनी से बचने और वारदात को छिपाने के इरादे से दोनों ने बच्चों की हत्या कर दी थी। फिंगरप्रिंट्स और फॉरेंसिक रिपोर्ट्स के आधार पर पुलिस ने रंगा-बिल्ला की तस्वीरें कई जगह लगा दीं और अख़बारों में भी उनकी तस्वीरें छापी गई। इस दौरान रंगा-बिल्ला की एक गलती ने उन्हें पुलिस के हत्थे चढ़ा दिया। दरअसल, रंगा-बिल्ला कालका मेल में आर्मी के लिए रिज़र्व डिब्बे में चढ़े हुए थे। दो सैनिकों ने उनसे पूछताछ तो दोनों उनसे भिड़ गए। आर्मी वालों ने इनको पीटा और पुलिस के हवाले कर दिया।

पुलिस के हत्थे चढ़े रंगा-बिल्ला को लेकर लोगों में भारी रोष था। देश का हर शख्स चाहता था कि रंगा-बिल्ला को फांसी हो। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह पता चला था कि उसके साथ दरिंदगी हुई थी। हालांकि, कानूनी प्रक्रिया में चार साल लगे। 31 जनवरी 1982 को रंगा यानी कुलजीत सिंह और बिल्ला यानी जसबीर सिंह की फांसी तय हुई।  बिल्ला और रंगा को अदालत ने फाँसी की सज़ा सुनाई जिसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने बरक़रार रखा। राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने उनकी दया की याचिका अस्वीकार कर दी। फाँसी से एक हफ़्ते पहले इन्हें जेल नंबर 3 की फाँसी कोठी में ले जाया गया। वहाँ उन्हें पूरी तरह से एकाँतवास में रखा गया और वो 24 घंटे तमिलनाडु स्पेशल पुलिस के जवानों की निगरानी में रहे। दोनों को फाँसी देने के लिए फ़रीदकोट से फ़कीरा और मेरठ से कालू जल्लाद को बुलाया गया। निर्धारित समय पर जेल के सुपरिंटेंडेंट आर्य भूषण शुक्ल ने लाल रुमाल हिलाया और कालू ने फ़कीरा की मदद से लीवर खींच दिया। लेकिन इसमें से एक अपराधी तो फांसी के बाद मर गया लेकिन दूसरा दो घंटे के बाद भी जिंदा रहा। उसकी नब्ज दो घंटे बाद भी चल रही थी। मेडिकल साइंस के अनुसार ऐसा तब हो सकता है जब आदमी के शरीर का वजन कम हो या वो सांस रोकने में सक्षम हो। तिहाड़ जेल के पूर्व प्रवक्ता सुनील गुप्ता ने अपनी किताब ब्लैक वारंट में इस किस्से का जिक्र करते हुए लिखा है कि जेल के डाक्टर ने जब रंगा की नब्ज चलते देखी तो जेल प्रशासन के किसी को फांसी के तख्ते के नीचे भेज कर रंगा के पैर को दोबारा खींचने का आदेश दिया। रंगा के पैर को तब तक खींचा गया जब तक उसकी सांसे थम नहीं गई। बिल्ला और रंगा किसी के भी रिश्तेदारों ने उनके शवों को स्वीकार नहीं किया और जेल की तरफ़ से ही उनकी अंतयेष्टि की गई। इस हत्‍याकांड के बाद तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दोनों बच्चों के नाम पर 1978 में बहादुर बच्चे-बच्चियों के लिए वीरता पुरस्कार शुरू किया जो हर साल गणतंत्र दिवस पर आज भी दिया जाता है।-अभिनय आकाश

 

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