क्‍या है MSP का स्‍वरूप, किसान क्या चाह रहे हैं, कानून बनाने से सरकार पर कितना बोझ पड़ेगा?

MSP laws
अभिनय आकाश । Dec 6 2021 6:16PM

अभी तक सरकार 23 फसलों पर एमएसपी देती है। लेकिन कुछ भी लिखित में नहीं है। बस किसानों का यही डर है कि ये एमएसपी कभी भी बंद हो सकती है। इसीलिए उनकी मांग ये है कि अब एमएसपी पर कानून बनाया जाए।

प्रधानमंत्री के गुरु पर्व के दिन लाइव टीवी पर वादा करने के बाद संसद के शीतकालीन सत्र में तीनों कृषि कानून वापस हो चुके हैं। एक साल से ज्यादा चले किसान आंदोलन के लिए ये एक बड़ी जीत के रूप में देखा गया। लेकिन किसान आंदोलन के नेता अब भी टस से मस होने को तैयार नहीं हैं। इनका कहना है कि उनकी मांग विस्तृत है। सिर्फ कृषि कानून वापस होने भर से उनका आंदोलन वापस नहीं होगा, वो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गारंटी भी चाहते हैं। अभी तक सरकार 23 फसलों पर एमएसपी देती है। लेकिन कुछ भी लिखित में नहीं है। बस किसानों का यही डर है कि ये एमएसपी कभी भी बंद हो सकती है। इसीलिए उनकी मांग ये है कि अब एमएसपी पर कानून बनाया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान संगठनों की मांग का आधार क्या हैं और क्या ये मांग वाकई पूरी हो सकती हैं। अगर हां तो हां और अगर नहीं तो क्यों नहीं। ये मुद्दा देश के किसानों, उनकी उपज और उसके उपभोक्ताओं और पूरे देश के आर्थिक सेहत से जुड़ा मुद्दा है और उस नीतिगत विचारों से जुड़ा मुद्दा है जिसके तहत आने वाले समय में सरकार अमल करना चाहती है। 

एमएसपी क्या है?

किसानों के हित के लिए एमएसपी की व्यवस्था सालों से चल रही है। केंद्र सरकार फसलों की एक न्यूनतम कीमत तय करती है। इसे ही एमएसपी कहते हैं। मान लीजिए अगर कभी फसलों की क़ीमत बाज़ार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार इस एमएसपी पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है ताकि किसानों को नुक़सान से बचाया जा सके।

कहां से हुई एमएसपी की शुरुआत?

1965 में भारत भीषण अनाज संकट से जूझ रहा था। भारत लाल गेंहू का आयात करने के लिए मजबूर था। जिसे पीएल 480 कहा जाता था। उस दौर में भारत का कोई अनाज बैंक नहीं होता था। भारत के पास पर्याप्त फॉरेन एक्सचेंज भी नहीं था, जिससे हम वैश्विक बाजार से कोई अनाज खरीद पाते। यही से न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की शुरुआत हुई। इसके बाद हरित क्रांति आई और आने वाले कुछ सालों में भारत अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। 1960 के दशक में हरित क्रांति में पंजाब की बड़ी भूमिका थी। पंजाब ने गेंहू और चावल उगाना शुरू कर दिया। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। आज फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के पास बड़ी मात्रा में अनाज का भंडार है। आज सरकार का अनाज का भंडार 97 मिलियन मिट्रिक टन है। जबकि 1965 में सिर्फ 7 मिलियन मिट्रिक टन अनाज खरीदने के पैसे नहीं थे।

एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी क्यों मांग रहे किसान संगठन?

इंडियन एक्‍सप्रेस की खबर के अनुसार, इस समय केंद्र सरकार ने 23 फसलों पर MSP की घोषणा कर रखी है। इनमें 7 अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ), 5 दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), 7 तिलहन (रेपसीड-सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल) शामिल हैं। इसके अलावा और 4 व्यावसायिक (गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट) शामिल हैं। जबकि एमएसपी तकनीकी रूप से सभी खेती लागतों पर न्यूनतम 50% रिटर्न सुनिश्चित करते हैं, ये अभी तक केवल कागजों पर हैं। भारत के अधिकांश हिस्सों में उगाई जाने वाली अधिकांश फसलों में किसानों को विशेष रूप से फसल के समय प्राप्त होने वाली कीमतें आधिकारिक तौर पर घोषित एमएसपी से काफी कम हैं। चूंकि एमएसपी पर वैधानिक प्रावधान नहीं है, इसलिए किसान अपने अधिकार के तौर पर इसकी मांग नहीं सकते हैं। यही कारण है कि किसान संगठन चाहती हैं कि मोदी सरकार केवल सांकेतिक या वांछित मूल्य के बजाय एमएसपी को अनिवार्य दर्जा देने वाला कानून बनाए।

एमएसपी कैसे लागू किया जा सकता है?

मूल रूप से तीन तरीके हैं जिसके तहत न्यूतम समर्थन मूल्य को देश में लागू किया जा सकता है-

पहला तरीका ये है कि निजी व्यापारियों या प्रोसेसर पर दबाव बनाकर उन्हें एमएसपी के तहत भुगतान करने के लिए मजबूर करना। ये पहले से ही गन्ने पर लागू है। चीनी मिलें किसानों को गन्ने के लिए केंद्र के "उचित और लाभकारी मूल्य" के तहत ही भुगतान करती हैं। कई राज्य सरकारें को तय कीमत से भी ज्यादा देने की कोशिश कर रही हैं। इसके अलावा आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत जारी गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1966 जो गन्ना खरीद के 14 दिनों के भीतर कानूनी रूप से गारंटीकृत मूल्य का भुगतान करने के लिए बाध्य करता है। 2020-21 चीनी फसल वर्ष (अक्टूबर-सितंबर) के दौरान, मिलों ने लगभग 298 मिलियन टन गन्ने की पेराई की, जो देश की कुल उत्पादन 399 मिलियन टन के तीन-चौथाई के करीब था।

दूसरा तरीका ये है कि सरकार अपनी एजेंसियों जैसे भारतीय खाद्य निगम (FCI), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) और भारतीय कपास निगम (CCI) के माध्यम से एमएसपी पर खरीद करके इसे लागू कर सकती है। इस तरह की खरीद में पिछले साल भारत के चावल / धान के उत्पादन का लगभग 50% हिस्सा था, जबकि गेहूं के लिए 40% और कपास में 25% से अधिक था। सरकारी एजेंसियों ने भी 2019-20 के दौरान चना (चना), सरसों, मूंगफली, अरहर (कबूतर-मटर) और मूंग (हरा चना) की 0.1 मिलियन टन से अधिक की महत्वपूर्ण मात्रा खरीदी। इसमें से अधिकांश अप्रैल-जून 2020 में कोविड-प्रेरित राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बाद का था, जब किसानों द्वारा सर्दियों-वसंत रबी की फसलों का विपणन किया जा रहा था। हालांकि, इन फसलों की खरीद 2020-21 में गिर गई। सरसों, अरहर, मूंग, मसूर (पीली मसूर) और सोयाबीन के मामले में, खरीद की आवश्यकता वास्तव में महसूस नहीं की गई, क्योंकि खुले बाजार की कीमतें काफी हद तक एमएसपी से ऊपर थीं।

तीसरा मार्ग मूल्य की कमी के भुगतान के माध्यम से है। इसके तहत सरकार न तो सीधे खरीद करती है और न ही निजी उद्योग को एमएसपी देने के लिए मजबूर करती है। ये किसानों द्वारा सभी बिक्री को मौजूदा बाजार कीमतों पर करने की अनुमति देता है। किसानों को केवल सरकार के एमएसपी और कटाई के मौसम के दौरान विशेष फसल के लिए औसत बाजार मूल्य के बीच के अंतर का भुगतान किया जाता है।

एमएसपी को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने की वित्तीय लागत क्या होगी?

सभी 23 अधिसूचित फसलों के कुल उत्पादन का एमएसपी मूल्य 2020-21 में लगभग 11.9 लाख करोड़ रुपये था। लेकिन ये पूरी फसल बाजार में तय कीमत नहीं मिल पाई। अगर इन 23 फसलों के आँकड़ें देखें जाएं तो साल 2019-20 में सभी को मिलाकर 10.78 लाख करोड़ रुपये के बराबर का उत्पादन हुआ। लेकिन ये सारी फसल बेचने के लिए नहीं होती, किसानों के अपने इस्तेमाल के लिए भी होती है,बाज़ार में बिकने के लिए इन सब फसलों का अनुपात भी अलग होता है। जैसे 50 फीसदी रागी का होगा, तो 90 फीसद दालों का होगा। गेहूं 75 फीसदी होगा। तो अगर औसत 75 फीसदी भी मान लें तो ये 8 लाख करोड़ से कुछ ऊपर का उत्पादन होगा।। वहीं सरकार ने भी 2020-21 में कई फसलें खरीदीं थी। इनमें 89.42 मीट्रिक टन धान, 43.34 मीट्रिक टन गेहूं शामिल था। जो 253,275 करोड़ रुपए का था। इसमें नेफेड द्वारा खरीदे गए दलहन और तिलहन का एमएसपी मूल्य (2019-20 में 21,901 करोड़ रुपये और 2020-21 में 4,948 करोड़ रुपये) और सीसीआई द्वारा कपास या कच्चे अन-जिन्ड कॉटन (2019 में 28,420 करोड़ रुपये और 2020-21 में 26,245 करोड़ रुपये रहा। इसके अलावा मिलों द्वारा क्रश किए गए गन्ने के एमएसपी मूल्य (2020-21 में 92,000 करोड़ रुपये) पर विचार किया जाना है। कुल मिलाकर, लगभग 3.8 लाख करोड़ रुपये की उपज पर एमएसपी पहले से ही सीधे या कानूनी आदेश के माध्यम से लागू किया जा रहा है।  23 एमएसपी फसलों के पूरे मार्केट सरप्लस के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने का मतलब होगा 5 लाख करोड़ रुपये या उससे अधिक को कवर करना। सरकार द्वारा खरीदी जाने वाली फसल भी बेची जाती है, जिससे राजस्व आंशिक रूप से एमएसपी खरीद से होने वाले खर्च की भरपाई करता है। दूसरे, सरकारी एजेंसियों को मंडियों में आने वाले एक-एक अनाज को खरीदने की जरूरत नहीं है। बाजार में आवक के एक चौथाई हिस्से को भी बढ़ाना अक्सर अधिकांश फसलों में कीमतों को एमएसपी से ऊपर उठाने के लिए पर्याप्त होता है।

चीज प्रोग्राम की वजह से मुश्किल में पड़ गया था अमेरिका

अर्थशास्त्र का एक धरा इस तरह से एमएसपी दिए जाने का विरोध करता रहा है और अभी भी करता रहा है। अब आपको बताते हैं कि करीब 43 साल पहले अमेरिका ने अपने दूध के किसानों को एमएसपी दिया था तो उनका क्या हाल हो गया था। 1977 में जिमी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति बने। कार्टर एक किसान थे और उनकी पहले की छह पीढ़िया अमेरिका में खेती कर रही थीं। वो जब राष्ट्रपति बने तो अमेरिका के किसानों को उनसे खासी उम्मीदें थी। अपने कैंपेनिंग के दौरान उन्होंने किसानों के लिए कई तरह की घोषणाएं भी की थीं। जिमी कार्टर ने दूध के किसानों के लिए घोषणा की कि छह महीने में दूध के दाम खुद ब खुद बढ़ जाएंगे। जिसके बाद ज्यादातर किसानों ने दूध का उत्पादन शुरू कर दिया। फिर ये सवाल हुआ कि इस दूध का करेंगे क्या और इसे खरीदेगा कौन? सरकार ने तय किया कि वो खुद खरीदेगी। ताकी दूध की डिमांड बढ़े और दामों पर कोई असर न पड़े। लेकिन सरकार के पास स्टोर्स की कमी थी और दूध जल्दी ही खराब होना शुरू हो गई। अब अमेरिकी सरकार ने तय किया कि वो किसानों से दूध नहीं चीज खरीदेगी। सरकार ने चीज खरीदनी शुरू की और चीज बनाने वालों ने दूध खरीदा। सरकार ने दूध खरीदने के लिए एक दाम तय कर दिया जिसे न्यूतम समर्थन मूल्य कह सकते हैं। इस दाम पर जो भी अमेरिकी सरकार को अपनी चीज बेचना चाहता था वो बेच सकता था। समस्या ये हो गई कि किसानों ने खराब चीज भी सरकार को बेचनी शुरू कर दी तो सरकार ने चीज को टेस्ट करके अप्रूव करने वालों की भर्ती शुरू कर दी। जल्दी ही सारे सरकारी गोदाम चीज से भर गए। सरकार ने जमीन के 33 फीट नीचे का एक बड़ा गोदाम भी बनवाया। 1980 में जिमी कार्टर की सरकार चली गई और रोनाल्ड रीगन नए राष्ट्रपति बने। 1981 तक इस योजना पर अमेरिकी सरकार का 200 करोड़ डॉलर यानी 14 हजार 875 करोड़ खर्च हो चुके थे। हर एक अमेरिकी के लिए 1 किलो सरकारी चीज मौजूद थी। फिर ये तय हुआ कि चीज गरीबों में बांट दी जाएगी। दूध के दाम हर छह महीने में बढ़ने वाला प्रावधान भी हटा दिया गया। ये बेसिक डिमांड और सप्लाई की समस्या थी और सरकार ने एक गैर जरूरी दूध की डिमांड कर रही थी और किसान उस दूध की सप्लाई कर रहे थे। सरकार ने किसानों को फिर से पैसे दिए ताकि वो अपने दूध का उत्पादन कम कर सके। 

एमएसपी पर ख़रीद के प्रावधान में कानूनी बाधाएं

दुनिया के कुछ देश हैं, जो एमएसपी इंश्योर करते हैं, लेकिन इन देशों ने भी एमएसपी को लीगल नहीं किया है। एमएसपी लीगल करने से भविष्य में अनेक संवैधानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इससे जुड़ी व्यवस्था में बदलाव करना मुश्किल हो जाएगा। एमएसपी हमेशा एक 'फेयर एवरेज क्वॉलिटी' के लिए होता है। यानी फसल वैसी होगी जैसा कि तय किया गया है तो ही उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। लेकिन कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर ठीक बैठती है या नहीं इसे तय कैसे किया जाएगा? जो फसल उन मानकों पर खरी नहीं उतरेगी उसका क्या होगा? भविष्य में सरकारें कम खरीदेंगी तो ज़ाहिर है किसान निजी कंपनियों को फसलें बेचेंगे। निजी कंपनियां चाहेंगी कि वो एमएसपी से कम पर खरीदें ताकि उनका मुनाफ़ा बढ़ सके। सरकार के पास फिलहाल कोई रास्ता नहीं है जिससे वो एमएसपी पर पूरी फसल खरीदने के लिए निजी कंपनियों को बाध्य कर सके। अगर क़ानून में एमएसपी का प्रावधान जोड़ दिया तो इससे जुड़े हर मुकदमें में तीन पक्ष शामिल होंगे - एक सरकार, एक किसान और तीसरा निजी कंपनी और वहां सरकार को दिक्कत होगी।

-अभिनय आकाश 


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