क्या है हुर्रियत कॉन्‍फ्रेंस और इसका मकसद

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अभिनय आकाश । Feb 3 2020 8:03PM

हुर्रियत कांफ्रेंस स्थापना के बाद कई बार टूट भी चुकी है। साल 2003 में इनमें बिखराव की शुरूआत हुई। जब भारत सरकार से बातचीत के मुद्दे पर सैय्यद अली शाह गिलानी और मीरवाइज अलग हो गए। सैय्यद का ग्रुप यह चाहता कि भारत सरकार से कोई भी बातचीत न हो जबकि मीरवाइज बातचीत के पक्षधऱ थे।

मैं भारत का रहने वाला एक देशभक्त हिन्दुस्तानी हूं। मुझे अपनी देश की मिट्टी पर गर्व है और मुझे यकीन है कि देश के 130 करोड़ हिन्दुस्तानियों में से 99.9 फीसदी लोग खुद को दिल से देशभक्त भारतीय नागरिक मानते होंगे। लेकिन हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके दिल में भारत के लिए नफरत का अंधेरा है और पाकिस्तान के लिए प्यार की मोमब्बतियां। ऐसी ही देशद्रोही सोच रखने वाले लोगों में से हैं जम्मू कश्मीर के अलगाववादी नेता और उन जैसे लोगों की नुमाइंदगी वाली हुर्रियत कॉन्फ्रेंस। आखिर ये हुर्रियत कॉन्फ्रेंस क्या है? इसका मकसद क्या है और इसकी शुरुआत कब हुई थी? आज हम एमआरआई में बात करेंगे जम्मू-कश्मीर की अलगाववादी पार्टियों के बारे में साथ ही भारत विरोधी रैलियों के मुख्य आयोजक और अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी और उन जैसे अलगाववादी नेताओं की दूषित सोच का भी एमआरआई स्कैन करेंगे।  

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सबसे पहले आपको दो लाइनों में बता देते हैं कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस क्या है?

यह एक ऐसा संगठन है जो कि जम्मू कश्मीर में अलगाववाद की विचारधारा को प्रोत्साहित करती है।

ऐसे खड़ी हुई हुर्रियत कांफ्रेंस

साल 1987 में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने गठबंधन कर चुनाव लड़ने का ऐलान किया। घाटी में इसके खिलाफ जमकर विरोध हुआ। इस चुनाव में भारी बहुमत से जीतकर फारुख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर में अपनी सरकार बनाई। इसके विरोध में खड़ी हुई विरोधी पार्टियों की मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को महज 4 सीटों पर संतोष करना पड़ा जबकि जम्मू और कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस को 40 और कांग्रेस को 26 सीटें मिलीं। इसके ही विरोध में घाटी में 13 जुलाई 1993 को ऑल पार्टीज हुर्रियत कांफ्रेंस की नींव रखी गई। हुर्रियत कांफ्रेंस का काम पूरी घाटी में अलगाववादी आंदोलन को गति प्रदान करना था। यह एक तरह से घाटी में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के विरोध स्वरूप एकत्रित हुई छोटी पार्टियों का महागठबंधन था।

इस महागठबंधन में केवल वही पार्टियां शरीक हुईं जो कश्मीर को वहां के लोगों के अनुसार जनमत संग्रह कराकर एक अलग पहचान दिलाना चाहती थीं। हालांकि इनके मंसूबे पाक को लेकर काफी नरम रहे। ये सभी कई मौकों पर भारत की अपेक्षा पाक से अपनी नजदीकियां दिखाते रहे हैं। 90 के दशक में जब घाटी में आतंकवाद चरम पर था तब इन्होंने खुद को वहां एक राजनैतिक चेहरा बनने की कोशिश की लेकिन लोगों द्वारा इन्हें नकार दिया गया।

इनका कहना था कि ये स्थानीय लोगों के मन की बात को सामने लाने का काम कर रहे हैं लेकिन इनकी पाक अधिकृत कश्मीर पर कोई राय नहीं है। इनके ऊपर आरोप है कि ये विदेशों से धन लेकर घाटी में अलगाववादी विचारधारा को बढ़ाते हैं। इनके कई नेताओं पर देश विरोधी कार्यों में शामिल होने के आरोप हैं।

कई बार हुर्रियत में हुआ बिखराव

हुर्रियत कांफ्रेंस स्थापना के बाद कई बार टूट भी चुकी है। साल 2003 में इनमें बिखराव की शुरूआत हुई। जब भारत सरकार से बातचीत के मुद्दे पर सैय्यद अली शाह गिलानी और मीरवाइज अलग हो गए। सैय्यद का ग्रुप यह चाहता कि भारत सरकार से कोई भी बातचीत न हो जबकि मीरवाइज बातचीत के पक्षधऱ थे। मीरवाइज वाजपेयी सरकार के कश्मीर को लेकर बनाए गए फार्मूले पर बातचीत को तैयार थे।

हुर्रियत का अलग संविधान

जम्‍मू कश्‍मीर के लोगों के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के मुताबिक एक शांतिपूर्ण संघर्ष को बढ़ावा देना ताकि उनकी आजादी सुनिश्चित हो सके। भारत, पाकिस्‍तान, और जम्‍मू कश्‍मीर के लोगों के साथ मिलकर कश्‍मीर विवाद को एक वैकल्पिक समझौते के तहत हल करने की कोशिश करना। कश्‍मीर में जारी संघर्ष को देशों और इसकी सरकारों के अलावा दुनिया के सामने भारत के बलपूर्वक और झूठे कब्‍जे के तौर पर दिखाना।

यासीन मलिक से लेकर गिलानी तक 

एपीएचसी की एग्जिक्‍यूटिव कांउसिल में सात अलग-अलग पार्टियों के सात लोग बतौर सदस्‍य शामिल हुए। जमात-ए-इस्‍लामी से सैयद अली शाह गिलानी, आवामी एक्‍शन कमेटी के मीरवाइज उमर फारूक, पीपुल्‍स लीग के शेख अब्‍दुल अजीज, इत्‍तेहाद-उल-मुस्लिमीन के मौलवी अब्‍बास अंसारी, मुस्लिम कांफ्रेंस के प्रोफेसर अब्‍दुल गनी भट, जेकेएलएफ से यासीन मलिक और पीपुल्‍स कांफ्रेंस के अब्‍दुल गनी लोन शामिल थे। मई 2002 में अब्‍दुल गनी लोन को आतंकियों ने मार दिया। लोन, इस समय पीपुल्‍स कांफ्रेंस के मुखिया सज्‍जाद लोन के पिता थे। अब्‍दुल गनी लोन के अलावा अगस्‍त 2008 में शेख अजीज की पुलिस फायरिंग में मौत हो गई थी।

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हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में 23 अलग-अलग धड़े हैं। इसके बड़े नेताओं में मीरवाइज उमर फारूक, सैयद अली शाह गिलानी, मुहम्मद यासीन मलिक प्रमुख चेहरे हैं। लेकिन ये वो लोग हैं जो अपनी जरूरत और सुविधा के मुताबिक नागरिकता चुनते हैं और देश का माहौल खराब करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं। हुर्रियत का दोहरा चरित्र रहा है जिसका पर्दाफाश और विश्लेषण करना बेहद ही अहम है। ऐसे तो पाकिस्तान हमेशा मौके की तलाश में रहता है, लेकिन यासीन मलिक हो या सैय्यद अली शाह गिलानी ऐसे लोगों की दूषित सोच का फायदा उठाकर पाकिस्तान के नेता अपनी संसद में कश्मीर-कश्मीर चिल्लाते हैं और आतंकवादी की मौत का मातम मनाते हैं। 

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बीते बरस सैय्यद शाह गिलानी की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर सुर्खियों में रही थी जिसमें वो अपनी घर की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में गो-इंडिया, गो बैक लिखते हुए देखा गया था। गिलानी जैसी अलगाववादी नेताओं ने जम्मू कश्मीर के भटके हुए लोगों को भड़काने में उनसे अपील की थी कि लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकलें और दीवारों पर गो-इंडिया- गो बैक जैसे नारे लिखें। 

अब आपको गिलानी के एक ऐसे दूसरे चरित्र की बात बताते हैं। सैय्यद अली शाह गिलानी को अपनी बीमार बेटी को देखने के लिए सऊदी अरब जाना था। उनकी मजबूरी थी। जिसके लिए उन्हें पासपोर्ट की जरूरत पड़ गई। हालांकि नियमों के मुताबिक तब गिलानी को पासपोर्ट में अपनी नागरिकता भारतीय बताने में शर्म आ रही थी। लेकिन जब जरूरत महसूस हुई तो ये श्रीनगर के पासपोर्ट आफिस पहुंच गए और नागरिकता वाले कॉलम में गिलानी ने खुद को इंडियन बताया था लेकिन जैसे ही गिलानी का काम बन गया वो पलट गए। पासपोर्ट आफिस से बाहर निकलते ही गिलानी की भारतीयता खत्म हो गई और तब उन्होंने कहा था कि बाय बर्थ आई एम नाट इंडियन। 

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गिलानी जैसे नेताओं को न तो देश के संविधान की फिक्र है और न ही भारत की एकता और अखंडता की परवाह है। भारत की जमीन पर खड़े होकर ऐसे लोग पाकिस्तान के झंडे लहराते हैं। जो जवान देश की रक्षा करते हुए आतंकवादियों के हाथों शहीद हुए, उन्हीं आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में श्रद्धांजलि देने पहुंच जाते हैं और उन्हें शहीद का दर्जा तक देने से नहीं चूकते हैं। लेकिन जो सैनिक अलगाववादियों को बाढ़ से बचाते हैं उन्हीं सैनिकों के लिए ये अलगाववादी अपशब्द का इस्तेमाल करते हैं। आपको याद होगा 2014 में कश्मीर में बाढ़ आई थी और गिलानी जैसे लोग उस बाढ़ में फंस गए थे तो उन्हें बचाने लिए पाकिस्तान की फौज या राजदूत नहीं आए थे, तब भारतीय सेना ने बिना किसी पूर्वाग्रह के उन्हें बचाया था।

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हुर्रियत का पाकिस्तान राग

2 अप्रैल 2014 को गिलानी, उमर फारूक और शब्बीर शाह की बैठक में शामिल हुए। 

नवंबर 2013 को पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और अलगाववादियों ने की बैठक की। 

सरताज अजीज ने अलगाववादियों से की कश्मीर मुद्दे पर चर्चा।

3 जुलाई 2012 को पाकिस्तान के विदेश सचिव और अलगाववादियो की बैठक।

गिलानी के गुनाह

1 मई 2015- पाकिस्तानी झंडों के बीच संबोधन

29 जनवरी 2015- त्राल में मारे गए आतंकियों को श्रद्धांजलि 

अगस्त 2014- सेना को कश्मीर समस्या की वजह बताया

2 मार्च 2012- एक आतंकी के लिए वीजा की मांग की

6 मई 2011- ओसामा बिन लादेन को महान बताया

सच तो ये है कि ये अलगाववादी नेता अपने दोहरे चरित्र का उदाहरण बार-बार देश को देते रहे हैं। भारत एक उदार देश है और हमारी उदारता दुनियाभर में मशहूर है। गिलानी और यासीन मलिक और उमर फारूक जैसे लोग इस उदारता का फायदा हमेशा से उठाते रहे हैं।

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