85% मुसलमानों को अपनी तरफ करने का बीजेपी का प्लान, कौन हैं 'पसमांदा' जो केवल PM मोदी को दिखते हैं?

Pasmanda
Prabhasakshi
अभिनय आकाश । Jul 9 2022 5:10PM

समांदा पूरी मुस्लिम आबादी को धर्म आधारित आरक्षण देने की मांग का भी विरोध करते हैं, उनका तर्क है कि यह समुदाय के भीतर राज्य के संसाधनों तक असमान पहुंच की अनदेखी करता है।

आज बात मुसलमानों की करेंगे। उन मुस्लिमों जो किसी को नजर नहीं आते हैं। ये वो मुसलमान हैं जिनके वोट तो सबको चाहिए। लेकिन इनकी बात कोई नहीं करता है। दिलचस्प बात ये है कि इनकी बात अगर किसी व्यक्ति ने की है तो उसने की है जिसे मुसलमानों का विरोधी बताया जाता है। वो नाम है पीएम नरेंद्र मोदी का जिनको लेकर विरोधी अक्सर आरोप लगाते हैं कि उनके आने के बाद मुसलमान डरा हुआ है। मोदी सरकार में कोई मंत्री मुस्लिम नहीं है। एक मात्र मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी हुआ करते थे। लेकिन संयोग से 7 जुलाई को ही उनका कार्यकाल खत्म हो गया। क्योंकि राज्यसभा के सांसद के रूप में उनके कार्यकाल की अवधि खत्म हुई तो अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ने इस्तीफा जाकर राष्ट्रपति को सौंप दिया। अब देश में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी हैं। लेकिन पसमांदा समाज की फिक्र बीजेपी को बहुत सता रही है। लेकिन पासमांदा समाज का जिक्र और फ्रिक अगर बीजेपी की तरफ से ये जानते हुए करे कि एक भी सांसद उसका मुस्लिम नहीं है। राज्यसभा के दरवाजे भी अब बंद हो गए। इस देश में दोनों सदनों को मिलाकर 400 से ज्यादा सांसद जिस पार्टी के आते हैं उनमें एक भी मुसलमान नहीं। उसी राजनीतिक पार्टी के 1300 से ज्य़ादा विधायक समूचे देश में हैं। लेकिन उसमें भी एक भी मुसलमान नहीं। भले ही मुस्लिमों की नुमाइंदगी के मामले में बीजेपी का हाथ तंग रहा हो। लेकिन बीजेपी की चिंता मुस्लिम समाज को लेकर है क्योंकि जब इस देश में अलग-अलग योजनाएं चलती हैं। जिसका ऐलान प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से किया जाता है। चाहे वो आयुष्मान योजना हो चाहे उज्जवला योजना। या फिर प्रधानमंत्री आवास योजना। हर योजना के माहतत धर्म जाति देखी नहीं जाती है, बल्कि गरीबी और दरिद्रगी देखी जाती है, मुफलिसी देखी जाती है। 

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क्यों पीएम मोदी चाहते हैं इन पर फोकस

बीजेपी नए भौगोलिक इलाकों में अपने विस्तार की कोशिश कर रही है। जिसके लिए उसने 30-40 साल का पॉलिटिकल प्लान बनाया है। इसी कवायद के तहत बीजेपी अब नए वोट बैंक भी ढूंढ़ रही है। ये नया वोट बैंक पसमांदा मुसलमानों का है। अब आप कहेंगे कि ये पसमांदा मुसलमान कौन है? ये बताने से पहले आपको थोड़ा ब्रैकग्राउंड बता देते हैं। 2 और 3 जुलाई को हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी। इसमें पीएम मोदी ने अल्पसंख्यकों के कमजोर और वंचित तबके को बीजेपी के साथ लाने की बात कही थी। पीएम मोदी ने कहा था कि हमें तुष्टीकरण नहीं बल्कि तृप्तिकरण के रास्ते आगे बढ़ना है। इसके लिए अल्पसंख्यक समुदाय के बीच देशभर में स्नेह यात्रा निकालनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यक में भी उन लोगों से जुड़िए जिनकी कोई बात नहीं करता है। खासतौर से जिस देश में अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान ही समझा जाता हो उन मुसलमानों में वो तबका जिसकी कोई सुध नहीं लेता वो है पसमांदा मुसलमान। बीजेपी को जब अपने तौर पर निर्दश देते हुए प्रधानमंत्री ने हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जिक्र किया तो अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी सक्रिय हो गया। मुस्लिम समाज के भीतर 85 फीसदी हिस्सा पसमांदा समाज का आता है। यानी 2011 की जनगणना के हिसाब से 19.2 फीसदी मुसलमान में 85 फीसदी हिस्सा पिछड़े और दलित  मुस्लिम आते हैं, जो मुस्लिम समाज में एक अलग सामाजिक लड़ाई लड़ रहे हैं। 

पसमांदा मुसलमान कौन हैं?

एक फ़ारसी शब्द, 'पसमांदा' इसका संधि विच्छेद करेंगे तो पस का मतलब होता है पीछे और मांदा का अर्थ होता है पीछे छूट जाना। मतलब वो लोग जो 'पीछे छूटे हुए' हैं दबाए गए या सताए हुए हैं। इसका उपयोग मुसलमानों के बीच दलित और बैकवर्ड मुस्लिमका वर्णन करने के लिए किया जाता है। जो मुस्लिम समाज में एक अलग सामाजिक लड़ाई लड़ रहे हैं। मुस्लिम समाज का क्रीमी तबका उन्हें हेय दृष्टि से देखता है। ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर पसमांदा मुसलमान हिंन्दुओं से ही कन्वर्ट होकर बने है इसलिए वो भी हिन्दुओं की तरह जातियों में बंटे हैं। 20 सदी के दूसरे सदी में इसे लेकर चलने वाले आंदोलन को मोमिन आंदोलन कहा गया. जबकि 90 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर कई बड़ी संस्थाओं ने पिछले और दलित मुस्लिमों की आवाज उठानी शुरू की। 

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मुस्लिम में तीन वर्ग होते हैं

अशराफ

अफगानिस्तान और मध्य एशिया से आए

हिन्दू अपर कॉस्ट से कन्वर्ट होकर मुस्लिम बने

शेख, सैय्यद, मिर्जा, मुगल, खान 

मुस्लिमों में 15-20 फीसदी आबादी

अजलाफ 

पिछड़ी जातियों के हिंदू धर्म बदलकर मुस्लिम बने

अरजाल

दलित अति पिछड़ी हिंदू जातियों से मुस्लिम बने

मुस्लिमों में सबसे पिछड़ा और कमजोर तबका 

क्या मुसलमान जाति के आधार पर बंटे हुए हैं?

कुंजरे (राइन), जुलाहा (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फकीर (अल्वी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवाराती), लोहार-बढ़ाई (सैफी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वनगुर्जर। ये सभी जाति और समुदाय के लोग पसमांदा की पहचान के साथ एकजुट हो रहे हैं।

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सभी पसमांदा दलित नहीं

'अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के कला और विज्ञान स्कूल में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर खालिद अनीस अंसारी का कहना है कि 'पसमांदा मुस्लिम' शब्द का इस्तेमाल पहली बार 1998 में अली अनवर अंसारी ने किया था, जब उन्होंने पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना की थी। "पूर्व राज्यसभा सांसद और अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संस्थापक अली अनवर अंसारी का कहना है कि “पसमांदा में अब तक दलित शामिल हैं, लेकिन सभी पसमांदा दलित नहीं हैं। संवैधानिक रूप से कहें तो हम सभी एक ही श्रेणी में हैं- ओबीसी। लेकिन आगे चलकर हम चाहते हैं कि दलित मुसलमानों को अलग से पहचाना जाए। राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग, जिसे न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग के नाम से जाना जाता है। इसकी तरफ से मई 2007 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया था जिसमें स्वीकार किया गया था कि जाति व्यवस्था ने मुसलमानों सहित भारत में सभी धार्मिक समुदायों को प्रभावित किया है।

पसमांदा मुसलमानों की ज्यादा जनसंख्या वाले 5 राज्य

उत्तर प्रदेश 3.5 करोड़
बिहार 1.5 करोड़
झारखंड  40 लाख
बंगाल  2 करोड़
दिल्ली 17 लाख

पसमांदा मुसलमान क्या चाहते हैं?

पसमांदा मुसलमानों का कहना है कि समुदाय के भीतर उनकी भारी संख्या के बावजूद, नौकरियों, विधायिकाओं और सरकार द्वारा संचालित अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ-साथ समुदाय द्वारा संचालित मुस्लिम संगठनों में उनका प्रतिनिधित्व कम है। अशराफ तबका खुद को विजेता और देशज पसमांदा मुसलमानों को पराजित समुदाय के रूप में पेश करता आ रहा है। पसमांदा पूरी मुस्लिम आबादी को धर्म आधारित आरक्षण देने की मांग का भी विरोध करते हैं, उनका तर्क है कि यह समुदाय के भीतर राज्य के संसाधनों तक असमान पहुंच की अनदेखी करता है। पसमांदा मुस्लिम कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार यह सवाल उठाया जाता रहा है कि आखिर इस देश में मुसलमानों के नाम पर संचालित लगभग सभी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में उनकी भागीदारी नाममात्र की क्यों है? मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, वक्फ बोर्ड, मदरसा बोर्ड, उर्दू बोर्ड, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन, जमात-ए-इस्लामी, तब्लीगी जमात, मिल्ली काउंसिल, इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ट्रस्ट आदि में पसमांदा मुसलमानों की हिस्सेदारी या तो बिल्कुल नहीं है या फिर नगण्य है। 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए कई पसमांदा संगठनों द्वारा पारित एक प्रस्ताव में, यह मांग की गई थी कि दलित मुसलमानों को एससी सूची में शामिल किया जाए और ओबीसी कोटे को एक अत्यंत पिछड़ी जाति (ईबीसी) श्रेणी बनाने के लिए फिर से डिजाइन किया जाए। केंद्र और राज्य स्तर पर सबसे पिछड़े मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू ईबीसी को भी शामिल किया जाए।

पसमांदा आंदोलन का इतिहास क्या है?

पसमांदाओं के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए आंदोलन आजादी से पहले की अवधि में इसके सबसे प्रसिद्ध ध्वजवाहक अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी थे, दोनों जिनमें से जुलाहा (बुनकर) समुदाय से आते थे। इन दोनों नेताओं ने उस समय मुस्लिम लीग द्वारा प्रचारित की जा रही सांप्रदायिक राजनीति का विरोध किया और सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लीग के दावे को चुनौती दी। 1980 के दशक में, महाराष्ट्र के अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संगठन (AIMOBCO) ने पसमांदाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया।  90 के दशक में डॉक्टर एजाज अली और अली अनवर के दमदार संगठनों के अलावा शब्बीर अंसारी ने भी ऑल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गनाइजेशन खड़ा किया था। शब्बीर महाराष्ट्र से ताल्लुक रखते हैं।

-अभिनय आकाश 

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